गतांक (देवों का घर देवघर बाबा बैजनाथ का दर्शन) से आगे
कालीघाट कोलकाता की माँ काली का दर्शन
माँ काली की नगरी कलकाता आगमन-
प्रातः 7.30 पर हम अपने दल के साथ माँ काली की नगरी कोलकाता स्टेशन की धरती पर गाड़ी से उतर कर खड़े हुए। हमारे साथ एक बड़ी भीड़ उतरी थी जिसके कारण स्टेशन पर कोलाहल बढ़ गया । हमारे सभी साथी नीचे उतर चुके थे, साथियों ने सामान स्टेशन के बाहर निकाला, हम लोग सीटी बस में बैठ कर कोलकाता के बड़ा बाजार क्षेत्र में आ गये ।
यह यहॉं की पुरानी बस्ती है 150 एम.जी. रोड. चितपुर क्रॉंसिंग बड़ा बाजार पहुँच कर हमने पुराने समय की बनी भौतिका धर्मशाले के सामने सीटी बस से अपना सामान उतारा। यहाँ नीचे एक टेबल लगाकर एक धोती कुर्ता वाले सज्जन यात्रियों को कमरे एलॉट कर रहे थे। यह एक बहु मंजिला भवन है बहुत सारे कमरे हैं, हम लोगों को तीसरी मंजिल पर स्थान मिला । चढ़ने में परेशानी थी, किंतु हम लोग ऊपर चढ़े। एक बड़े से हॉल, जिसमें पाँच पलंग थे, देवकी दीदी ,प्रभा दीदी, आशा दीदी, लक्ष्मी दूबे और मैं, हमने अपना सामान रखकर प्रसाधन का जायजा लिया। प्रसाधन तो सार्वजनिक हैं , पूरे माले के लिए दो- दो ,एक पुरुषवर्ग के लिए और एक महिलाओं के लिए।मेरे ऊपर कल के निराहार रहने का असर बाकी था, बहुत कमजोरी अनुभव कर रही थी। अतः पलंग पर लेट गई । प्रभा दीदी स्नान करने के लिए चली गईं ।
मेरे यादों का माँ काली की नगरी कलकत्ता-
यहाँ लेट कर मेरे थके हुए तन- मन को ऐसी विश्रांति का अनुभव हो रहा था जैसे मैं अपने स्वर्गीय पिता जी के सानिध्य में हूँ कोलकाता मैं पहली बार आई थी किंतु यह शहर मेरे तन- मन में रचा- बसा था। पिताजी के नवयौवन काल में (सन्1925-30के पहले से) यू.पी. बिहार के युवक रोजगार की तलाश में कोलकाता की ओर भागते थे। यह शहर देश के पहले बसने वाले शहरों में सबसे आगे था, अपनी उत्तम अवस्थिति के कारण इसे भारत का पूर्वी प्रवेशद्वार कहा जाता है, यह विदेशियों के लिए बहुत सुविधाजनक था, इसीलिए उन्होंने यहाँ उद्योग धंधों का विकास किया। यातायात के विकास के कारण यह देश के सभी हिस्सों से जुड़ा हुआ था। शिक्षा, उद्योग, व्यापार, कल-कारखानों, कोयले के कारोबार, हुगली नदी के दोनो ओर स्थापित, जूट के कारखानों कपड़ा मीलों , कोलवासरियों ,आदि में तो रोजगार मिलते ही थे, धनाढ्यों की संख्या अधिक होने के कारण घरेलू कामगरों की बहुत मांग थी, यहाँ आने वाले प्रत्येक युवक को कोई न कोई काम मिल ही जाता था। मसे भीनने से पहले ही पिताजी बलिया में आने वाली गंगा सोन, और सरयू नदियों की बाढ़ द्वारा प्रति वर्ष किये जाने वाले विध्वंश से विवश हो पश्चिम बंगाल भाग आये थे, यायावरी स्वभाव के कारण किसी न किसी बहाने पूरे बंगाल का भ्रमण कर उसे नजदीक से देखा बांग्ला भाषा सीखी, उसके विपुल साहित्य का सांगोपांग अध्ययन किया। गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर, शरदचंन्द्र, बकिमचंन्द्र आदि की कहानियाँ उनसे सुन-सुन कर मेरा बचपन बीता था और इन्हीं से प्रभावित होकर मैंने अपने भावों को कागज पर उतारना सीखा था। उन्होंने बड़ा बाजार में अपने जीवन के सबसे सुन्दर और सबसे संघर्षपूर्ण कुछ वर्ष गुजारे थे, लग रहा था यहाँ की धूल में उनके चरण रज मिले हुए हैं मै उठ कर यहाँ की घूल माथे से लगा लूँ।
माँ काली मंदिर दर्शन की तैयारी-
’’जा नाऽ ओ लेखिका बाई असनाद-खोर ले तबियत ह थोकन बने लागही।’’ देवकी दीदी मेरी हालत से वाकिफ थीं सबके नहा लेने के बाद मुझे हिम्मत देकर उठाया उन्होंने। स्नान ध्यान के पश्चात् घर से लाया गया नाश्ता लेकर हमने थेाड़ा आराम किया। आज शाम को कालीघाट काली माँ के दर्शन हेतु जाने का कार्यक्रम बना हुआ था हमारा।
माँ काली की नगरी कालीघाट की यात्रा-
बड़ी मुश्किल से नीचे उतरे , सभी साथियों के आ जाने पर हम लोग सड़क के किनारे सीटी बस का इंतजार करने लगे। यहाँ सार्वजनिक वाहन ही ज्यादा प्रयोग में आते हैं कुछ समय बाद एक लंबी सी सीटी बस धर्मशाला के दरवाजे पर आकर खड़ी हुई , हम सभी जल्दी-जल्दी उसपर चढ़े और वह हमें लेकर चल पड़ी कालीघाट, जो हुगली नदी के पावन तट पर स्थित आदि काल से भक्तों का उद्धार और दुष्टों का विनाश करती आ रहीं हैं । मेरे मन में माँ के लिए श्रद्धा का सागर उमड़ रहा था मेरे पूर्व जन्म के अच्छे कर्मो के फलस्वरूप आज मैं माँ के साक्षात् दर्शन करने वाली हूँ सोच कर रोमांच हो रहा था, मेरी सहेली कल्पना का विवाह यहीं सम्पन्न हुआ था, मैंने इसे उसका परम सौभाग्य माना था। यहाँ माँ के आर्शीवाद की छाया तले नवजीवन का श्री गणेश करना बहुत अच्छा माना जाता है। इन्हीं काली माता के नाम पर आदिकाल से इस शहर का नाम कोलिकाता, कैलकटा, कलकत्ता अथवा कोलकाता पड़ा है।
पौराणिक कथाओं से मॉं काली का अंत:संबंध-
पौराणिक कथा है कि प्रजापति दक्ष ने शंकर जी द्वारा धर्मसभा में खड़े होकर उचित अभिवादन न करने के कारण रुष्ट होकर अपने घर आयोजित यज्ञ में उन्हें न तो बुलाया न ही यज्ञ भाग लगाया, श्री राम को स्त्री विरह में रोते हुए वन- वन भटकते देख कर दक्ष सुता सती ने संशयग्रस्त होकर पति की आज्ञा से उनकी परीक्षा ली, उनके द्वारा पहचाने जा कर अनेक रूप दिखाने से भयभीत सती ने पति से मिथ्या बचन कहे, शिव ने मनही मन उनका परित्याग कर उन्हें बैठने के लिए सामने आसन दे दिया। सती ने जीवन की निःसारता समझ कर पिता के घर जाने की जिद्द की, वहाँ पति का अपमान देखकर योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर लिया । समाचार पाकर शिव ने वीरभद्र के साथ अपने गणों को भेजकर यज्ञ का विध्वंश करवा दिया, सती के शव को कंधे पर लेकर व्याकुल हो तांडव करने लगे जिससे तीनों लोकों में महाविनाश होने लगा। सारी सृष्टि के विनाश के भय से देवता भगवान् विष्णु के पास प्रार्थना लेकर पहुँचे तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव का विक्छेदन कर दिया उसके बावन टुकड़े जहाँ- जहाँ गिरे वहाँ शक्ति पीठ की स्थापना हुई , इन स्थानों पर माता का सदा- सर्वदा वास और लोक कल्याण होने के कारण उन स्थानों पर बड़े- बड़े मंदिरों की स्थापना हुई, आज के कालीघाट मंदिर के पास माता के दायें पैर की कुछ अंगुलियाँ गिरी थीं इसीलिए यह एक प्रभावी तीर्थ स्थल है यहाँ आने वाले भक्तों की मनोकामनाएं माता पूर्ण कर देती हैं।
माँ काली माता कालिका का प्राकट्य-
कालीमाता का रूप धर माता ने दुष्टों का संहार किया, और अपने भक्तों को अभयदान दिया।
देवताओं के समन्वित शक्तियों का स्वरूप मॉं दुर्गा-
जब तीनों लोकों पर अधिकार कर महिषासुर ने त्राहि- त्राहि मचा दिया,तब देवताओं ने अपनी -अपनी शक्यिाँ समन्वित कर दुर्गादेवी को स्वरूप दिया, महिषासुर के अंत के बाद माता ने प्रार्थना करते देवों को वचन दिया कि -’’जब भी तुम मुझे पुकारोगे मैं तुम्हारी मदद के लिए अवश्य आऊँगी ।’’ और अन्तर्धान हो गईं ।
देवताओं का मॉं दुर्गा को पुन: पुकारना-
समय गुजरा, पुनः दुष्ट दैत्यों का आतंक बढा़, इस बार शुंभ और निशुंभ नाम के दो भाइयों ने सब की नींद उड़ा दी। माता के वचन को याद कर सभी देवता हिमालय पर्वत के शिखर पर एकत्र होकर माता को पुकारने लगे। उसी समय पार्वती जी गंगास्नान हेतु वहाँ से गुजरीं, देवों को देख कर पूछ लिया कि–’’आप लोग किसे पुकार रहे हैं ?’’
माँ काली माता कालिका का प्रकट होना-
तब उनके ही शरीर के केशों से निकल कर अंबिका देवी ने कहा- ’’ये दुष्टों के सताये हुए मुझे ही पुकार रहे है।’’ उनके प्राकट्य के पश्चात् पार्वती का रंग काला पड़ गया और वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी कहलाईं । अंबिका देवी के रूप सौंदर्य से सारा हिमालय उद्भासित होने लगा।
माँ काली द्वारा शुंभ -निशुभ मर्दन की कथा-
असुरराज शुंभ के अनुचरों चण्ड और मुण्ड की दृष्टि उन पर पड़ी, उन्होंने तत्काल इस त्रिपुर सुंदरी की सुंदरता का समाचार अपने स्वामी को सुनाया और कहा कि त्रिलोकी की सारी संपदा के स्वामी! आप को उस स्त्री रत्न को तुरंत हासिल करना चाहिए। देवी को पाने की लालसा में शुंभ ने अपने दूत सुग्रींव को उनके पास विवाह प्रस्ताव लेकर भेज दिया। ’’बचपन में अज्ञानतावश मैंने प्रतिज्ञा कर लिया था कि जो वीर मुझे सम्मुख युद्ध में परास्त करेगा वही मेरा स्वामी होगा। शुंभ निशुभ तो बड़े बलवान हैं जाओ उन्हें भेज दो ,वे मुझे हरा कर मेरा पाणिग्रहण कर लें।’’ माता ने दूत से कहा, उसने जाकर शुंभ को समाचार कह सुनाया-दूत की बात सुनकर शुंभ निशुभ ने अपने को बहुत अपमानित अनुभव किया और सेनापति धुम्रलोचन को एक बड़ी सेना के साथ देवी को जिंदा या मुर्दा पकड़कर लाने के लिए भेजा।
माँ काली द्वारा चंड-मुण्ड का मर्दन-
धुम्रलोचन तो देवी की ’हं’ की हुंकार सुनकर ही जल कर भस्म हो गया। उसकी सेना को अंबिका ने पल भर में मार डाला । कुछ ने भागते हुए अपने स्वामी के पास जाकर सारा हाल सुनाया, जिसे सुनकर वे दोनो क्रोद्ध से भर उठे। उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ चण्ड और मुंड को उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़कर लाने का आदेश देकर भेजा। हिमालय के सुवर्णशिखर पर सिंह पर सवार देवी को देख वे उन्हें पकड़े दौड़ पड़े। कुछ ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। उनकी यह धृष्टता देख कर क्रोध से माँ का मुख काला पड़ गया, भौहें वक्र हो गईं वहाँ से तत्काल विकराल मुखी काली का प्राकट्य हुआ। मृगचर्म धारण किये नर मुंडों की माला, मानव भुजाओं की करधनि,मांस विहीन गात लिए धंसी हुईं लाल आँखों से शत्रुओं को देखती, तलवार, पाश, विचित्र खट्वांग हाथ में लिए भयानक गर्जना करती वे असुरों का भक्षण करने लगीं। चंड- मुंड का सिर काट कर माँ चंडिका को भेट किया और शुंभ निशुभ का वघ करने लिए उन्हें आमंत्रित किया। चंड मुंड का सिर भेंट करने के उपलक्ष में माँ ने उन्हें चामुंडा नाम दिया।
माँ काली द्वारा शुंभ-निशुभ का मर्दन-
चंड मुंड के मारे जाने के बाद शुंभ निशुभ अपनी सारी सेना के साथ देवी से लड़ने आ गये। उस भयानक युद्ध में जब असुरों ने चारों ओर से अंबिका को घेर लिया तब समस्त देव शक्तियाँ अपने अपने अधिष्ठाता देवों के समान रूप लेकर आ गईं शिव जी की आज्ञा से उन्होंनें सारी असुर सेना का अंत कर दिया, तब चिता संभूत रक्त बीज रणांगन में उतरा, देवियों के प्रहार से गिरे रक्त से जब अनेक रक्तबीज उत्पन्न होकर सब ओर छा गये तब चंडिका ने काली से कहा ’’ भद्रे! तुम अपना मुख और फैलाओ,मेरे द्वारा मारे गये असुरों का रक्त पीती जाओ! रक्त हीन होकर ही यह दुष्ट मरेगा ।’’
माँ काली द्वारा रक्तबीज का मर्दन-
चंडिका ने देव शक्तियों के साथ मिलकर रक्त बीज के सारे रूपों का संहार किया , शुंभ- निशुंभ भी मारे गये, काली ने सभी का रक्तपान किया, किंतु उनकी रक्त पिपासा शांत न हुई वे निर्दोषों को भी मारने लगीं, तब महादेव जी उनके मार्ग में लेट गये, अनजाने में काली का पैर उनके वक्ष पर पड़ गया देवाधिदेव को पहचान कर व्रीड़ा से उनकी जिह्वा बाहर निकल आई,उनका क्रोध भी शांत हो गया। उनके इस रूप की पूजा कर सारा संसार निर्भय हो गया।
माँ काली की कालीघाट पहॅुचना-
सीटी बस में भीड़ कुछ अधिक ही थी जब हम लोग चढ़े तब महिलाओं की सीट पर कुछ पुरूष बैठे हुए थे, कंडक्टर ने उन्हें उठा कर हमें स्थान दिया, अब तो कई लोग खडे़ भी थे। थोड़ी-थेाड़ी दूर पर सीटी बस रुक कर सवारी उतार-चढ़ा रही थी। हम लोग कोलकाता शहर की व्यवस्था, उसकी सुंदरता देखते आगे बढ़ रहे थे। शाम हो चुकी थी, इसलिए सड़क पर भीड़ बढ़ गई थी, ऑफिस से छुटे लोग, काम- काजी महिलाएं, रोजगारी लोग, कालीघाट के दर्शनार्थी, हमारे जैसे सैलानी, अलग-अलग वेश-भूषा अलग- अलग भाषा । मैं कोलकाता को आँखों से दिल में उतार रही थी।
माँ काली की कालीघाट का मनोरम दृश्य-
जल्दी ही हम लोग काली घाट पहुँच कर उतर गये । मन को बड़ा आराम मिला जैसे भटकते-भटकते शाम को जब हम घर पहुँचते हैं तब लगता है। हमारे सभी साथी उतर गये तब हम लोग आगे बढ़े। देवनदी गंगा जिनका स्थानीय नाम हुगली है के पावन तट पर माता का सुंदर भवन बना हुआ है। पक्के धाट पर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, कई लोग स्नान करते नजर आये। जल पर कई बजरे तैर रहे थे। नाविक यात्रियों की तलाश में तट की ओर आँखें गड़ाये हुए थे। कुछ स्थानीय महिलाएं बांगला में बात करती अपने कपड़े धो रहीं थीं। सूर्य का सिंदूरी गोला पश्चिम की ओर सरकता जा रहा था। किरणों की झिलमिल जल पर नृत्य कर रही थी। मेरा मन नहाने के लिए मचलने लगा। गंगा जी के किनारे जन्म लेकर बाल्यकाल नित्य उनके सानिध्य में बिता कर उनके बाढ़जनित कोप से विविश हो हमारे परिवार को गंगा का तट छोड़ कर अरपा के किनारे डेरा डालना पड़ा था अब जब भी माँ को देखती हूँ एकदम से गले लग जाने के लिए मन मचल उठता है। नहाने का कोई कार्यक्रम नहीं था इसलिए मुझे मन मारना पड़ा। एक बहुत बड़ी भीड़ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, ये सभी काली माँ के भक्त थे। हम लोग भी उसी में शामिल हो गये। मार्ग के दोनों ओर दुकाने लगी हुई थीं, तरह- तरह की चूड़ियों से बाजार भरा हुआ दिख रहा था, यहाँ सुहाग पिटारी माँ को अर्पित की जाती है। उपहार देने अथवा अपने लिए चूड़ियाँ लिए बिना कोई सुहागन वापस नहीं जाती यहाँ से। हम लोग भी जहाँ- तहाँ रुक कर सामान देखने लगे। देवकी दीदी मेरे पास ही थी प्रभा दीदी की नजर थी मुझ पर । मेरे मन में बंगाली महिलाओं की तरह शाखा-पोला पहनने की बहुत इच्छा थी, अपने बिलासपुर में ऑर्टिफिशियल लेकर कई बार पहन चुकी थी। यहाँ तो शाखा पोला से पूरा बाजार ही भरा हुआ था, बहुत मोल तोल के बाद एक सेट ले ही लिया मैंने। दीदियों ने भी अपने पसंद के अनुसार सिंदूर बिंदी आदि खरीदा। स्थायी दुकानों से अधिक तो अस्थायी दुकाने लगीं थी। पूजन सामग्री की दुकानो पर भक्तों की भीड़ दिखाई दे रही थी । माँ की पसंद के जवाकुसुम के फूलों से भरी डलिया और ऊपर से नारियल गोला, टिकुली-बिंदी, सिंदूर आलता, चुनरी इलायची दाना आदि, कहीं-कहीं नीबू और हरी मिर्च की माला भी बिक रही थी। हम लोगों ने माता का चढावा खरीद लिया। हमारी लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही।
’जय काली कलकत्ते वाली मेरा बचन न जाये खाली-
दस महावि़द्याओं में एक काली माँ निर्बलों का बल हैं, बेसहारों का सहारा हैं संसार में उनके भक्त ही आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं, सुहागन स्त्रियां अपने सुहाग की सलामती के लिए माँ के चरणों का आश्रय लेती आ रहीं हैं, बचपन में जब मैं गाँव में रहती थी तब झाड़फूंक करने वाले तांत्रिकों को आरोह-अवरोह के साथ कहते सुना था – ‘’जय काली कलकत्ते वाली मेरा बचन न जाये खाली!’’ कहते हुए वे भभूति या अक्षत जोर से प्रभावित जन पर मारते थे, और मरीज चंगा!
माँ काली की कालीघाट पर कालीपूजा का इतिहास-
कालीघाट पर कालीपूजा तो वैदिक काल से ही होती चली आ रही है , मंदिर सत्रहवीं शताब्दी से विख्यात हुआ, पिछले दो सौ वर्षों से मंदिर साबर्नाराय चैधरी के परिवार के संरक्षण में संचालित हो रहा है। कालीमाता पुराणों के अनुसार शक्ति का रौद्रावतार हैं, उनके एक हाथ में रक्त सना खप्पर, और दूसरे में खड्ग है, गले में नरमुंडों की माला और कमर में हाथों की करधनी पहनती हैं। वे भगवान् शिव के ऊपर खड़ी हैं, निकली हुई जीभ से रक्त टपक रहा है, सब जगह इसी प्रकार का चित्र पूजित होता है, मूर्तियाँ भी ऐसी ही मिलती हैं। कोलकाता के कालीघाट को छोड़कर ।
माँ काली मंदिर का दिव्य दर्शन-
हिन्दुओं की आराध्या माँ काली पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की अधिष्ठात्री हैं इनका वास शहर के दक्षिणी भाग में हैं, कहते हैं इनकी कृपा से यहाँ कोई भूखा नहीं सोता ।, माँ अपनी सभी संतानों का ख्याल रखती हैं। हमारे सामने अब मध्यकालीन बांग्ला वास्तुकला का उदाहरण, 90 फुट ऊँचे शिखर, तिहरे कलश वाला माँ का भवन, अपनी शोभा का बखान करता दिखाई दे रहा था । ऊपरी दीवारों को पत्थर की जालियों द्वारा प्रकाश एवं हवादार बनाया गया हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों की पोताई में सफेद पृष्टभूमि को सूर्ख लाल रंग की धारियों से सजाया गया है।
कुछ ही देर में हम लोग माँ के ममतामय रूप का दर्शन कर रहे थे यह वही प्रतिमा है जिसे महान्काली भक्त कामदेव ब्रह्मचारी ने सन् 1809 में यहाँ स्थापित किया था। कालीघाट में माँ का विग्रह अन्य स्थानों से जरा सा हट कर है यहाँ माँ का मस्तक और मात्र चार भुजाएं ही नजर आतीं हैं रक्त वर्ण के वस्त्र से ढकी माँ की लंबी जिह्वा स्वर्ण निर्मित है,यह बाहर निकली हुई है। माँ की सुंदर दंतावली सोने की और माथे की बिंदी , नेत्र तथा सिर गेरूवे रंग के हैं । कलाइयों में चमकते स्वर्णाभूषण और गले में जवाकुसुम की रक्त वर्ण माला ! माँ का रूप देख कर आँखें चौंधिया गईं । मैंने पल भर को नेत्र बंद कर माँ की छवि को अपने हृदय में धारण करने का प्रयास किया। फिर आँखे खोल कर बार-बार प्रणाम निवेदन किया। ’’ माँ मुझ अज्ञानी पुत्री की बाँह सदा थामें रहना, मझधार में जब सारे सहारे छूट जायं तब मेरे साथ रहना माँ ! मेरी सारी गल्तियों को क्षमा कर देना माँ! प्रार्थना करते ’ करते मेरी अन्तर वाह्य दोनो वाणी मौन हो गई, सारी ध्वनियाँ पल भर को शांत हो गईं, मेरे हाथ जुड़े थे आँखों से अश्रुधार बह चली थी, माँ ने मुझे हमेशा गिरते से उठाया और आज अपने दर्शन देकर पूर्णतः कृतार्थ कर दिया।
पीछे की भीड़ ने मुझे जल्दी ही वापस ला दिया इस दुनिया में । मैं आगे बढ़ी और मेरी जगह अन्य भक्त ने ले ली । मंदिर में स्थापित शीतला माता ,गणनायक गणेश जी महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा और मंगला गौरी के दर्शन करते हम लोगों ने सिंदूर के रूप में माँ का प्रसाद प्राप्त किया। मंदिर में कई जगह पीतल की घंटियों के गुच्छे लटक रहे थे तो कई जगह नीबू हरी मिर्च की माला लटक रही थी।
देश के हर क्षेत्र के स्त्री- पुरूष अपनी अपनी मनभावन पोषाक में मंदिर में उपस्थित थे, माँ के दर्शन की लालसा मन में संजोये बड़ी दूर-दूर से आये लोगों को देख कर लगता था जैसे सारा भारत उतर आया है माँ के आंगन में।
माँ काली मंदिर की अद्भूत परम्पराएं-
माँ की प्रतिमा चौकोर काले पत्थर पर तराशी गई है। इनकी छतरी चांदी की है। पहले यहाँ पशुबलि का बहुत अधिक चलन था। पिताजी बताते थे कि नवरात्र में बलिपशु के रक्त से रास्ते में कीचड़ हो जाता था। अब भी नवरात्र में बड़ी भीड़ रहती है, यहाँ एक अनोखी परंपरा से परिचय हुआ काली पूजा के दिन जहाँ घरों और मंडपों में काली माता की आराधना होती हे वहीं कालीघाट मंदिर में माँ के लक्ष्मी स्वरूप की विशेष पूजा होती है। दुर्गा पूजा के समय षष्ठी से लेकर दशमी तक अपार जन समूह माँ के दर्शन के लिए आता है। पूजा की समाप्ति पर कई ट्रक एकड़े जूते चप्पल बटोर कर फेंके जाते हैं , पिताजी आँखों देखा हाल बताया करते थे। दशमी के दिन दो बजे से पाँच बजे तक सिंदूर खेला का कार्यक्रम रहता है जिसमे केवल महिलाएं ही भाग ले सकतीं हैं, उस समय मंदिर में पुरूषों का प्रवेश वर्जित रहता है। यह पुत्रियों पर विशेष अनुकम्पा का प्रमाण ही हैं।
माँ काली मंदिर से लौटते समय सीटीबस की एक घटना-
मंदिर से निकल कर हम लोग बाहर आये तब तक रात ने स्याह घूंघट डाल लिया था। हम लोगों को लाइन में ही अधिक समय लग गया था। सड़क पर हमे सीटी बस मिल गई किंतु बैठने के लिए जगह नहीं थी। यूं तो सीटी बस में जगह देख कर ही हम लोग चढ़े थे परंतु हमारी संख्या अधिक होने के कारण जो लोग पीछे चढ़े उनके लिए सीट नहीं बची। ऐसे लोगों में मैं, देवकी दीदी, आशा दीदी और कुछ भाई लोग थे। ड्राइवर के पास वाली सीट पर दो-तीन युवक बैठे थे, हम तीनों वहीं खड़ी हो गईं। इस उम्मीद में कि अगले स्टापेज पर हमे सीट मिल जायेगी। एक तो तीनो उम्रदराज और ऊपर से भारी भरकम ! खुद को कैसे संभालेंगे इसी चिंता में मैं थी कि बुढ़ापे की ओर बढ़ती सी काले रंग की दुबली -पतली सी ,कत्थई रंग की मोटी साड़ी पहने एक महिला कमर पर एक बड़ी सी बाँस की खाली टोकरी टिकाये बस में चढ़ी, ज्यादा पान खाने के कारण उसके घिसे हुए दाँत काले पड़ गये थे। सफेद किंतु काले किये गये वालों की छोटी सी जूड़ी सिर के पीछे बंधी हुई थी, वह महिला रास्ते में खड़े लोगो को लगभग ढकेलती हुई बस में चढ़ी थी। वह बड़ी जल्दी में जान पड़ती थी। उसने एक बार उचटती नजर हम पर डाली और जलती नजर से ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठे युवकों को देखा। उसके होठ फड़कने लगे, पसीने से तर चेहरे पर और स्याही पुत गई। वह चीख पडी –’’ एटा महिला सीट! देखते पारे ना की….ऽ? उठ! उठ! ’’
युवक उसकी ओर हक्का-बक्का सा देखने लगा, माजरा समझते ही उसके चेहरे पर नागवारी के चिन्ह उभर आये।
’’ उठ! उठ! ’’ कहते हुए उसने अपने पैर से घिसा हुआ चप्पल निकाल कर सबसे पहली सीट पर बैठे युवक को पटापट पीटना शुरू कर दिया।
’’ अरे– अरे !थाक! थाक ! आमी उठछी तो!’’ रोंआसे युवक ने अपने हाथों से सिर की रक्षा का असफल प्रयास किया।
’’ तुइ बोसे केनो गेछिस ? बॉल रे! ’’ और दो-चार चप्पल धर दिया उसने। उसके होठों के कोरों से पान की पीक बहने लगी थी, लगता था जैसे खून बह रहा हो।
’’ खाली छिलो तॅबे!’’ युवक ने बस की रॉड़ पकड़कर खुद को गिरने से बचाया । बस का ड्राइवर कान में रूई डाले मजे से गाड़ी चला रहा था, कंडक्टर शायद अभी तक कुछ समझ नहीं पाया
’’महिला देर सीट देखाछे ना कि रे?’’ उसने लज्जा और ग्लानि से सिर झुकाये लड़के के ऊपर हिकारत भरी नजर डाली । और बिना किसी भूमिका के मेरा हाथ पकड़ लिया एक बार तो मै थरथरा उठी लेकिन–
’’ तुमी बोसो मेडम ये खाने !’’ उसने मुझे उस युवक की जगह बैठा दिया । उसके भय से मैं कह न सकी कि देवकी दीदी के लिए सीट सबसे ज्यादा जरूरी है उन्हे बैठने दो,अभी हिम्मत जुटा ही रही थी कि युवक की बगल में बैठे दोनो युवक उठ कर चुपचाप खड़े हो गये वहाँ देवकी दीदी और आशा दीदी बैठ गईं ।
’’दीदी माथा खराब कोरे दिये छे।’’ युवक ने बड़ी धीमी आवाज में कहा ।
उस औरत ने कंडक्टर को किराया दिया और अगले स्टापेज पर उतर गई । कोई दैनिक बाजार करने वाली ही लग रही थी वह । मैं उसके तेवर देख कर हत्प्रभ थी। पहले तो मैं समझ नहीं पाई कि युवक ने कौन सी दीदी को अपनी पिटाई के लिए जिम्मेदार कहा था फिर याद आ गया कि पूरे देश में दीदी के नाम से जानी जाने वाली ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री के नाम ही वह रो रहा था जिसके राज में महिलाओं का आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया है। यूँ तो बंगाल पर ही पाश्चात्य शिक्षा की रोशनी सबसे पहले पड़ी थी, शिक्षा और आत्म निर्भता ने उन्हें सिर उठा कर जीना सिखा दिया है, उस पर ममता दीदी का आदेश—-’’चॅपल दिये कोथा कॅरो!’’ कुछ अधिक ही साहसी बना दिया है जिसका उदाहरण अभी हम सभी ने देखा। कहीं अच्छा भी लगा । हमेशा से दबाई जाती रहीं महिलाओं का ऐसा रूप देख कर । तभी तो पश्चिम बंगाल से महिलाओं के विरूद्ध अपराधो के समाचार कम सुनने को मिलते है। क्यों न हो हम जैसी अनजान महिलाओं के लिए जब एक महिला लड़ पड़ी तो कैसे कोई अन्याय कर सकेगा? मुझे याद आया यह वही बंगाल है जहाँ कुलीन वर के साथ अनेक स्त्रियों की शादी कर दी जाती थी, नाबालिग स्त्री को बूढ़े और अशक्त पति के साथ चितारोहण करा दिया जाता था, उसे तैयार करने में महिलाओं का सहयोग पुरूषों से भी अधिक रहता था। भारत माता के लाड़ले सपूत राजा राम मोहन राय ने लार्ड विलियम वेंटिक से मिलकर इस अमानवीय प्रथा को कानून बंद करवाया। धार्मिक, आर्थिक ,सामाजिक शैक्षणिक सुधारों के लिए लगातार प्रयास किया, ब्रह्म समाज की स्थापना की। अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए अखबार निकाले , महिलाओं की शिक्षा के लिए जन जागृति उत्पन्न की जिसका परिणाम आज की आत्मचेता नारी में देखने को मिल रही है।
माँ काली की नगरी कोलकाता इतिहास के पन्नों में-
कोलकाता नाम तो अभी हाल 2001 में रखा गया पहले इसके कई नाम थे, अंगे्रजी नाम केलकेटा, बंगाली कोलिकाता, और यू. पी. बिहार वाले इसे कलकत्ता कहा करते थे। आधुनिक कोलकाता की विधिवत नींव सन् 1690 में ईस्टइंडिया कंपनी के एक अधिकारी ‘’जाब चार नाक’’ के द्वारा डाली गई । उसने कंपनी के व्यापारियों के रहने के लिए एक बस्ती बसाई । 1698 में ईस्टइंडिया कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार परिवार सावर्णराय चैधरी से ’ सूतानुटि, कोलिकाता, और गोविंदपुर, को पट्टे पर लेकर प्रेसीडेंसी के रूप में विकसित किया। 1727 में इंग्लैण्ड के राजा जार्ज द्वितीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गई । कोलकाता नगर निगम की स्थापना की गई और सन् 1756 में पहले मेयर का चुनाव हुआ। यह अंग्रेजों की भारत में पहली प्रसाशनिक इकाई थी । तत्कालीन बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने इसपर आक्रमण कर इसे अपने अधीन कर लिया और इसका नाम अलीपुर रख दिया, सालभर में ही पुनः अ्रग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया । सन् 1772 में वारेन हेस्टिंगज ने कोलकाता को ब्रिटिश शासकों की भारतीय राजधानी बना दिया। इसके पहले ही सन् 1698 में फोर्ट विलियम की स्थापना से यह स्थान अंग्रजों के लिए सुरक्षित हो गया था। आगे सन् 1912 तक यह शहर ब्रिटिश भारत की राजधानी रहा। 1750 के बाद यह शहर पूरी तरह अंग्रजों के अधीन हो चुका था।
सन् 1850 में कोलकाता तेजी से औद्योगिक विकास के सोपान चढ़ने लगा। लेकिन सन् 1965 में आये समुदी तूफान में साठ हजार लोग मारे गये ,जिसके कारण सारी व्यवस्था चौपट हो गई, तब से कोलकाता अनियंत्रित सा स्वमेव बढ़ता रहा। 1980 तक तो देश का सबसे अधिक आबादी वाला शहर था अब दूसरे नंबर पर हैं मुंबई ने इसका स्थान ले लिया है। इस समय इसकी आबादी डेढ़ करोड़ के लगभग है (पिछली जनगणना के अनुसार)। यहाँ दमदम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है।
धर्मशाला वापस आना-
एक धक्के के साथ विचारों के तार टूट गये । हम लोग भौतिका धर्मशाला आ पहुँचे थे । सभी साथी बारी- बारी से उतरे । इस समय यहाँ का कोलाहल देखने लायक था , बड़ी दुकानों के सामने ठेले वाले अपना सामान लगाकर सस्ते में बेच रहे थे, ग्राहक ऐसे टूटे पड़ रहे थे जैसे माल मुफ्त में मिल रहा हो । इन्हीं में से कुछ चुनिंदा ग्राहक बडी दुकानों में प्रविष्ट हो रहे थे, हम लोग भी इस भीड़ में शामिल हो गये। टी. शर्ट , जिन्स पेंट, पेटीकोट ब्लाउज, सलवार सुट बच्चों के कपड़े पहाड़ जैसे ऊँचे, एक नंबर एक भाव ! मैंने घर के सभी लड़कों के लिए टी शर्ट खरीद लिया। दीदियाँ भी जम कर खरीददारी कर रहीं थीं लक्ष्मी दूबे बड़ी दुकान में घुसी थी। उसने अपने बच्चों के लिए ब्रांडेड कपड़े खरीदे। चौथी मंजिल पर चढ़ना-उतरना हमारे लिए बहुत कष्टप्रद था किंतु भोजन से पहले एक बार ऊपर जाना आवश्यक था अतः काँखते-कूँखते ऊपर चढ़े , प्रसाधन जाकर तरोताजा हुए। फिर सभी साथी मिल कर खाना खाने के लिए नीचे उतरे । सड़क पर फैले उजाले को देख कर लग ही नहीं रहा था कि रात में अंधेरा भी होता है। धर्मशाले के मैनेजर से पूछ लिया था कि घर जैसा शाकाहारी खाना कहाँ मिल सकता है। उनकी सलाह पर त्रिपाठी जी हमें लिवाकर धर्मशाले के दाईं ओर पैदल-पैदल चले, लगभग आधा किलोमीटर चल कर हम लोग एक पुराने से बहुमंजिले काम्लेक्स् में प्रविष्ट हुए, यहाँ सीढियों के पास एक कम पावर का एल.ई.डी. बल्व अपनी जरा सी रोशनी से रास्ते और सीढ़ी को रोशन कर रहा था। होटल चौथी मंजिल पर था नीचे कुछ दुकाने और गोदाम थे जो उस बक्त बंद थे। कचरा भी फैला हुआ था। सीढ़ियाँ चढ़ने में सहायता करने के लिए लोहे का पाइप लगा हुआ था । देवकी दीदी को ब्रजेश ने संभाल लिया बाकी हम लोग पाइप के सहारे साँसों का राग सुनते ऊपर चढ़ने लगे। केदारनाथ की चढ़ाई का आनंद लेते हम अपनी मंजिल पर पहुँचे । होटल क्या कहें लगता था जैसे गाँव का कोई साँझा चुल्हा है । लगभग पचास लोग बैठे थे वहाँ , कुछ खा रहे थे कुछ खाने वाले की रोटियाँ गिन रहे थे। कुछ लोग भट्ठी पर लंबावाला तवा चढ़ा कर कई-कई रोटियाँ एक साथ उतार रहे थे, कुछ आटा सान रहे थे, कुछ दाल सब्जी तैयार कर रहे थे। बैठने वाले लकड़ी की पतली बेंचों पर बैठे हुए थे, नल के पास जूठे बर्तनों का ढेर लिए एक किशोर सांय-सांय बर्तन साफकर टोकरी में रखता जा रहा था। हमारी भीड़ देखकर उनमें और स्फूर्ति आ गई । गद्दी के पास एक अधेड़ उम्र का आदमी आराम से सब्जियाँ काट रहा था उसके हाथ में बड़ा सा चाकू था जिसे वह आराम से चला रहा था। उसके पास कुछ कुर्सियाँ पड़ी हुईं थीं । उसने आराम से एक लड़के की ओर देखा उसने हमे उन कुर्सियों पर बैठा दिया। भाई लोग खड़े रह कर जगह मिलने की प्रतीक्षा करते रहे।
इंतजार तो किया लेकिन भोजन करके संतुष्ट हो गये । दाल, चावल, सब्जी रोटी सलाद अचार , लड़कों ने पूछ- पूछ कर खिलाया। मैंने होटल के मालिक को देख कर कुछ अपनापन अनुभव किया, पता नहीं उसने अपना नमक खिला दिया था इसलिए या पिता जी की यादों ने आकर मुझे उससे जोड़ दिया था। आखिर उसकी आवाज से मंैने पकड़ ही लिया कि वह यू पी का है उसकी मातृभाषा मेरी भी मातृभाषा है। जब त्रिपाठी जी बिलपेमेंट कर रहे थे तब उसने झुकी हुई निगाहों से मुझे देखा और पूछा ’’ खाना ठीक था न बन्नी?’’
’’ बहुत अच्छा लगा चाचा , एकदम घर जैसा।’’ मैं तो पहले ही कहने वाली थी । हम लोग कोलकाता की रौनक देखते दस बजे तक अपने कमरों में पहुँचे । बिस्तर पर लेटते समय मुँह से अपने आप हाय ! निकल गई । हिम्मत बांध कर हमने अपनी दवाइयाँ ली, पैरो में झंडु बाम की मालिस की । कल प्रातः सात बजे हमारी गाड़ी गंगासागर के लिए छूटने वाली थी, अतः हमने पहनने और ले जाने के कपड़े निकाल कर रख लिए । पलंग पर लेटी तो अधिक थकावट या मस्तिष्क में मची हलचल के कारण नींद ने आने से मना कर दिया । आँखों के सामने कभी माता काली की छवि उभर आती कभी क्रोध से भरी हुई वह औरत आकर अपने हाथों में थामी चप्पल दिखाने लगती, ’’तुई बोसले केनो एखोन?’’
गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर की धरती-
’’ गर्मी तो कोलकाता के रक्त में है ही , उष्णकटिबंधीय प्रदेश में स्थिति भी इसके लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है, ले देकर ढाई माह जाड़ा और बाकी के महिने कमोबेस गर्म । वाष्पन अच्छा होता है तो वर्षा भी अच्छी होती है धान की खेती सबसे अधिक होती है, तालों में जल भरा रहता है जिनमें मछलियाँ पलती बढ़ती रहती हैं मछली भात मिल गया तो सब कुछ मिल गया बंगाली को। वैसे फल फूल की कोई कमी नहीं है बंगाल में, तभी तो कविकुल गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर ने मस्ती में भर का बड़े दुलार से गाया ’’ आमार सोनार बांग्ला।’’ जो आज बांग्ला देश का राष्ट्रगान है। ’’ जनगणमन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता।’’ यह आज स्वतंत्र भारत का राष्ट्रगान है।
माँ काली की नगरी कोलकाता पुनर्जागरण एवं स्वाधीनता आंदोलन का केन्द्र –
अपनी प्राकृतिक अवस्थिति के कारण कोलकाता विदेशियों का प्रवेश द्वार अवश्य बन गया इस शहर की आँखें उनकी वेशभूषा, व्यवस्था , वैज्ञानिक उपलब्धि देख कर चैंधियाईं भी, इसने खुले दिल से उन्हे गले भी लगाया , किंतु कुछ समय पश्चात् जब इसे होश आया तब इसी ने विदेशी शासन की जड़ों में मट्ठा भी डाला ।
अंग्रेज सत्रहवीं सदी के उत्तारार्द्ध में भारत में अपनी जड़े जमाने लगे थे। वे व्यापार के अतिरिक्त भारत की श्री का अपहरण करने का मंसूबा बनाने लगे थे। उस समय देश में मुगलकाल पतन के कगार पर खड़ा था, हिन्दू समाज जाति-पाति के बंधनों में जकड़ा छुआछूत के कुष्ट से ग्रसित था। सनातन धर्म वाह्याडंबरों में कहीं खो सा गया था। शिक्षा आकाश कुसुम जैसी दुर्लभ थी। ऐसे में उस समय की नई पीढ़ी को विदेशियों की संस्कृति ने खूब लुभाया । कुछ लोगों ने अंगे्रजी भाषा सीखी उनके साहित्य का अध्ययन किया,अपनी संस्कृति और परंपराओं को हेय दृष्टि से देखा । अपने देश और इसके समग्र की निंदा की। अंग्रेजी के वैज्ञानिक साहित्य ने उन्हें एक नई दृष्टि दी । उन्होंने अंग्रेजो मे सम्मान पाने के लिए गो मांस, मदिरा का सेवन प्रारंभ कर दिया परंतु उन्हें वह अपनापन न मिला जिसकी उन्हें भूख थी। जब उनका स्वप्न भंग हुआ तब उन्होंने प्राचीन संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया और जहाँ- तहाँ अग्रजों के विरूद्ध बहसों में भाग लेने लगे। देश की दुर्दशा की ओर ध्यान आकृष्ट करने लगे । कई साहित्यकार अपनी रचनाओं में तत्कालीन परिस्थतियों का चित्रण करने लगे। इस समय बंगाल में जमींदारी प्रथा और हिन्दू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक,और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। बाबू नामधारी भारतीय अंगे्रजों की बहसों में ही बंगाल के पुनर्जागरण के बीज छिपे हुए थे। इनमें से कुछ ने देश के सामाजिक,राजनैतिक,धार्मिक सुधार के प्रयास किये । बांग्ला साहित्य ने इन दिनों नई ऊँचाइयों को स्पर्श किया। 1838 में कोलकाता में जन्में महान् उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय ने 1882 में ’आनंदमठ लिखकर देश के नौजवानों में देशभक्ति की भावना का संचार किया, इसका गीत ’वंदेमातरम्’ स्वतंत्रता संग्राम में जन-जन का कंठहार बन गया था, आज यह गीत हमारे देश का राष्ट्रगीत है। इस पुस्तक में सन् 1770 में बंगाल में आये भीषण अकाल और सन्1773 में हुए गिरि सन्यासियों के विद्रोह का वर्णन है । अकाल में हुई बेशुमार मौतों और विदेशी शासकों की क्रूरता ने संन्यासियों को हथियार उठाने पर मजबूर कर दिया ।
इनमें किसान, मजदूर, सेवानिवृत सैनिक, बेरोजगार युवक शामिल हो गये । यह गिरोह बंगाल और बिहार में प्रमुखतः सक्रिय था । लूटपाट, डकैती,सरकारी खजाने की लूट, छापामार युद्ध कर ये अंग्रजों के गले की हड्डी बन गये थे। ये दल निरीह देशवासियों की मदद करते थे। ’आनंद मठ’ में इनके क्रियाकलापों का सटीक चित्रण हुआ है। इन्होने सिंहवाहिनी भारत माता की उपासना करते संन्यासियों को चित्रित किया जिनके चरणों में सागर हिलोरे ले रहा है और सिर पर हिमालय मुकुट की तरह शोभित हो रहा है। इन्होंने और भी कई उपन्यास लिखे जैसे ,मृणालिनी, देवी चौधरानी, दुर्गेश नंदिनी, कपाल कुंडला, कृष्णकाल आदि। (मैने लगभग इनकी सभी रचनाओं के हिन्दी अनुवाद पढ़े हैं। )आनंद मठ और वंदेमातरम् ने राष्ट्रवादियों को बहुत प्रभावित किया।
यह शहर स्वाधीनता आंदोलन का केन्द्र रहा, सन्1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना से लेकर, ’युगान्तर’,अनुशीलन आदि संस्थाओं की स्थापना इस शहर में हुई । अरविंद घोष, इंदिरा देवी, देवी चैधरानी, विपिनचन्द्र पाल,आदि प्रमुख राष्ट्रभक्त हुए जिन्होंने प्रारंभ में देशभ्क्ति की अलख जगाई । इनके पे्ररणा स्रोत रामकृष्ण परमहंस के योग्य शिष्य स्वामी विवेकानेद थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष व्योमकेशचन्द्र बनर्जी चुने गये और स्वराज के वकिल सुरेंद्रनाथ बनर्जी बने। नेता जी सुभष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज तेयार कर अग्रेजों के होश उड़ा दिये, रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ो स्वाधीनता सेनानियों को इस शहर ने जन्म देकर पाला पोषा। उदयीमान भुवनभास्कर सा देदीप्यमान् अठारह वर्षीय शहीद खुदीराम बोस की कर्म भूमि कोलकाता ने आजादी की लड़ाई में उल्लेखनीय योगदान दिया ।
गुलामी की बेडियाँ काट फेंकने की भावना का प्रचार प्रसार करने , शासकों के अत्याचारों के प्रति जनता को आक्रोशित करने के लिए प्रचार तंत्र की महती आवश्यकता को देखते हुए पहला हिन्दी अखबार ’उदंत मार्तण्ड , 30 मई 1826 को यहीं से प्रकाशित हुआ, बाद में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने इस दायित्व को कुशलता पूर्वक निभाया।
कोलकाता ने और भी कई उतार- चढ़ाव देखे ,सन्1943 में जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, बंगाल में दुबारा भीषण अकाल पड़ गया। जमींदारी प्रथा के कारण किसानों के पास तो जीवन यापन के लिए ही मुश्किल से अन्न रहता था फसल नहीं हुई तो जमींदारों ने अपने भंडार में से अन्न देने से मना कर दिया । अंग्रेजों ने अपने लोगों के लिए अन्न जमाकर रखा था, वे भला क्यों देने लगे?ै भूखी नंगी जनता शहरों की ओर भागी जहाँ उसे रहने केलिए कचरे के डिब्बे के पास स्थान और फेंका गया अन्न भी कुत्ते विल्लियों और सूअरों से लड़कर प्राप्त होता था। मुट्ठी भर बासी भात के लिए भले घर की स्त्रियाँ अपना यौन रोग ग्रसित शरीर बेचने के लिए विवश थीं। फोर्ट विलियम से बाहर निकलने वाली नालियो के पास धनाढ्य घर के लोग भीड़ लगाकर खड़े रहते थे कि कब नालियों से माँड़ बहाया जाय और कब वे उसे हथेली में लेकर पींयें, उस माँण के लिए भी बड़ी लड़ाई होती थी। (रांगेय राधव के उपन्यास ’ विषाद मठ’ के अनुसार।)
इन परिस्थितियों की प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ लोगों के मन में शासन के प्रति विद्रोह पलने लगा था । जो माक्र्स और लेनिन के समानता के सिद्धान्तों से प्रभावित थे। ये खून- खराबे में विश्वास करते थे। 1947 में आजादी के बाद कोलकाता में पाकिस्तान से आये शरणार्थियों के कारण मूलभूत सुविधाएं कम पड़ने लगीं, बँटवारे में जूट और कपास उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान के हिस्से में चले गये । कच्चे माल के अभाव में जूट के कारखाने और कपड़े की मीलें बंद हो गईं । काम के अभाव में श्रमिकों ने अन्यत्र गमन किया। इस पर जले पर नमक का काम किया 1965 में आये सुमद्री तूफान ने । लाखों काम करने वाले हाथों के साथ संसाधनों को भी तो समुद्र ने लील लिया। बस्तियों की जगह मैदान निकल आये तूफान के बाद।
इतने पर भी जमींदारों का मन नहीं बदला, वे कृषि मजदूरों पर अत्याचार करते रहे। सन् 1967 में पश्चिम बंगाल के ही एक गाँव नक्सलबाड़ी में जहाँ जमींदार मजदूर को उचित मजदूरी नहीं दे रहा था, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ’चारू मजूमदार ने सशस्त्र क्रांति का बिगुल फूंक दिया । उनके विचार से –वास्तव में खेत उसका है जो उसमें कास्त करता है । चुपचाप घर में आराम करने वाले को अनाज का आधे से अधिक हिस्सा लेने का कोई हक नहीं बनता। मजूमदार चीन के कम्युनिष्ट नेता माओत्से तुंग का कहुत आदर करते थे जिनके अनुसार किसानों और मजदूरो की दुर्दशा का कारण सरकारी नीतियाँ हैं जिनके कारण शासन तंत्र और कृषितंत्र पर उच्चवर्ग का वर्चस्व हो गया। उनके विचार से इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है । इस आंदोलन का नाम नक्सलवाद पड़ा। नक्सलियों ने कम्युनिष्ट क्रांतिकारियों से खुद को अलग कर लिया और इन्होंने औपचारिक तौर पर एक अखिल भारतीय समन्वय समिति का गठन किया और भूमिगत रह कर लड़ाई लड़ने लगे।
सन् 1971 में पाकिस्तान में गृह युद्ध की स्थिति निर्मित हो गई । उसके एक भाग पूर्वी बंगाल ने विद्रोह कर दिया, भयानक मार-काट मच गया। एक बार पुनः कोलकाता शरणार्थियों के बोझ से कराह उठा। इस समय तक नक्सलवाद चरम पर पहुँच चुका था। बंगाल के प्रायः सभी युवक युवती इसमें गुप्त रूप से शामिल हो चुके थे।
उस समय बंगाल में कांगे्रस पार्टी का शासन था। देश की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। उन्होंने सशस्त्र विद्रोह के दमन हेतु कड़ा रुख अपनाया। आँकड़े कहते है इस विद्रोह में बीस हजार जवान! लेग मारे गये थे। (ये तो आँकड़े हैं वास्तव में बंगाल से जवानी रूठ गई थी ।) 1972 में हिंसक आंदोलन पर काबू पाने के उद्देश्य से चारू मजूमदार को गिरफतार कर लिया गया जहाँ उनकी इह लीला समाप्त हो गई। उनकी मृत्यु के बाद आंदोलन कई शाखाओं में बंट कर देश के कई जिलों में फैल गया। कदाचित वह अपने लक्ष्य से भटक गया।
आंदोलन के फलस्वरूप सन् 1977 में बंगाल से कांग्रस का सफाया हो गया और तभी से बंगाल पर वाम पंथ का कब्जा है। पहले मुख्य मंत्री ज्योतिबसू थे । बारहवीं मुख्य मंत्री हैं तृण्मूलकी प्रमुख नेत्री ममता बनर्जी , जिनके राज्य में कोई पुरूष महिला का अपमान् नहीं कर सकता।
सन् 1990 में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होने के कारण फिर से कोलकातंा के भाग्य ने पलटा खाया। यहाँ सड़कों पर फेरी लगाने वाले करोड़ो का व्यापार करने लगे। कुशल अकुशल श्रमिकों ने अर्थ व्यवस्था को संभाला। सूचना प्रौद्यौगिकी का क्षेत्र 70प्रतिशत हो गया जो राष्ट्रीय औसत का दूना है। रियल एस्टेट के क्षेत्र में निवेशकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, क्योंकि यहाँ नई – नई परियोजनाओं का शिलान्यास हुआ है। कई भारतीय निगमों की इकाइयाँ संचालित हो रहीं है। आई. टी. सी. लिमिटेड, बाटा शूज, बिरला कारपोरेशन, कोल इंडिया लिमिटेड, युनाईटेड बैंक, इलाहाबाद बैंक, आदि प्रमुख हैं। एशियाई देशों से व्यापारिक संबंध बढ़ाने की नीति के कारण चीन तथा दक्षिण एशियायी देशों ने यहाँ पदार्पण किया। जिससे अर्थ वयवस्था को आधार मिला।
अर्थव्यवस्था सुधर गई कोलकाता को उसके प्राचीन वैभव से भी ज्यादा बहुत कुछ प्राप्त हुआ किेतु प्रदुषण ने बड़ी समस्या का रूप ले लिया। धुएँ और धूंध के कारण श्वास रोगों में बेतहाशा बढ़तरी हो रही है। फेफड़े का केंसर भी बढ़ रहा है।वैसे तो यहाँ सार्वजनिक वाहन ही अधिक चलते हैं जिससे पेट्रोल कम जले, पुराने जमाने के वाहन ट्राम भी कई इलाकों में चलते हैं, मेट्रो रेल अवागमन को सुगम बनाती है। सन् 2000 में कोलकाता रेलवे जंक्शन बना।। पहले से हावड़ा जंक्शन और सियालदह जंक्शन हैं यह शहर दो -दो रेल मंडलों का मुख्यालय है। पूर्वी रेलवे और दक्षिणी रेलवे। दमदम हवाई अड्डा शहर के उत्तरी छोर पर है तो पूर्वी छोर पर देश का प्रधान बंदरगाह है। मेरे विचारों की कड़िया एक दूसरे से जुड़ती आगे बढ़़ती गईं।
निद्रा देवी का आह्वान्-
मैंने उठ कर फिर से बत्ती जलाई और मुख्य-मुख्य बातों को अपनी डायरी में नोट कर लिया। कमरे में बहनों के खर्राटों की आवाज गूंज रही थी। एक बार प्रसाधन से आकर मैंने पूरी श्रद्धा से निद्रा देवी का आह्वान् किया । प्रातः पौने छः बजे हमें यहाँ से निकल पड़ना था। सात बजे हमारी ट्रेन हावड़ा से छूटने वाली थी। अर्द्ध निद्रा की अवस्था में बार- बार दिन में घटी घटनाएं पलकों के द्वार खटखटा कर जगा देतीं , मैं मोबाइल में समय देखती और फिर से आँखे मूंद लेती । इसी प्रकार एक बार थोड़ी देर के लिए नींद आई , परंतु दीदियों के जागने की आहट सुन कर उठ बैठी।
शेष अगले भाग में- ‘गंगा सागर की यात्रा’
-तुलसी देवी तिवारी