पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत
श्रीमती तुलसी देवी तिवारी
भाग-2 कपिलेश्वर महादेव का दर्शन
घोषणा हुई कि सभी को कपिलेश्वर महादेव के दर्शन हेतु ले जाया जायेगा। उसके बाद 7 बजे से साने गुरूजी, मुफ्त वाचनालय में कवि सम्मेलन में जाना था। मुझे प्रसाधन की आवश्यकता थी, नीचे हमने देखा नहीं था। ऊपर हास्टल में जाते-जाते बिलासपुर की ही छत्तीसगढ़ी गीतकार बसंती वर्मा भी साथ हो लीं। वहाँ से आने पर हमें पता चला कि बस जाने वालों को लेकर जा चुकी है।
हत्मनोरथ मुझे बड़ी निराशा हुई। बसंती अपने पति श्री विनोद कुमार वर्मा को फोन करके बुलाने लगीं, वे अभी अपने कमरे में ही थे, एक ओर से नीलमणि दुबे जो शहडोल महाविद्यालय से आईं थीं, वे आ गईं, कोयम्बटूर की राव मैडम भी आ गई। सभी का एक ही प्रश्न, हमें छोड़कर आयोजक क्यों चले गये? समय की कमी थी तो सभाकक्ष में ही बता देना था, कि वहाँ से सीधे बस में चलकर बैठें। विनोद कुमार वर्मा जी अपने एक और साथी साहित्यकार के साथ आ गये। सरला पाटील जिसे व्यवस्था की जिम्मेदारी दी गई थी, किसी प्रकार की मदद करने में अपने को असमर्थ बता रहीं थीं।
‘‘मैडम कोई प्रबंध कर दीजिए, वाहन खर्च हम वहन कर लेंगे’’ नीलमणि ने कहा, ये मंझोले कद की गोरी नारी सुन्दर सी महिला है। आवाज एक दम पतली है स्वभाव की तल्ख है। उन्होंने सरला पाटील से गुजारिश की।
‘‘यहाँ से 30 किलोमीटर है आते-आते रात हो जायेगी, वैसे भी 6 बजे मंदिर बन्द हो जाता है। आप लोग कपिलेश्वर महादेव के दर्शन कर ही नहीं सकते।’’ उन्होंने पल्ला झाड़ लिया। ‘
‘हमर करमे म नई हे त का करबो, इमन ला हमर कोनों फिकर नई हे, आधा झन ला ले गिन अऊ हमला नी आगोरिन’’ कहते कहते बसंती वर्मा की आँखे छलक गईं। अपने यहाँ कार में चलने वाली वर्मा मैडम का कष्ट देखकर मैं भी दुःखी हो गई ‘‘हे भोले नाथ मैं कितनी पापी हूँ जो मुझे तुम्हारा दर्शन नहीं हो पा रहा है प्रभु मैं मन ही मन उनसे पूछ रही थी।
‘‘इस प्रकार हाथ पर हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होने का। आईये सड़क पर चलते हैं’’ अपनी महींन किन्तु तेज आवाज में नीलमणि ने सब को ललकारा। हमलोग हारे हुए कदमों से सड़क पर आये। एक लड़का जो मुश्किल से 14-15 वर्ष का होगा दुबला पतला सा। ऑटो लेकर आ रहा था। वह हमें 600 रूपयें में कपिलेश्वर ले जाने और वापस ले आने को तैयार हो गया। हम लोग भरभरा कर ऑटो में ठूंस गये। एक दूसरे की गोद में बैठकर हम लोग कपिलेश्वर महादेव के जयकारे के साथ चल पड़े। सड़क के दोनों ओर केले और कपास के खेत थे। डीप सिंचाई की व्यवस्था हर खेत में नजर आ रही थी।
शिवदर्शन की धुन में हमें इतना भी समझ में नहीं आया कि इतनी कम उम्र का लड़का इतने कम समय में हमें कैसे तीस किलोमीटर ले जायेगा ले आयेगा। पानी बरसने लगा, फुहारे हमारे जिस्म से टकराने लगीं, ठण्डी हवा ने मन प्रसन्न कर दिया।
‘‘एहू म आनंद हे, हमन बनेच जावत हन ‘‘बसंती वर्मा अपनी खुशी जाहिर किये बिना न रह सकीं, मुझे भी अच्छा लग रहा था। सड़क पर भीड़ भाड़ नहीं थी। आटो तेजी से आगे बढ़ रहा था, कि धक्के से आॅटो रुक गया, ‘‘क्या हुआ ? …. क्या हुआ ? क्यों रूक गये ?’’ सभी के मुँह में प्रश्न निकला था।
‘‘ब्रेक फेल हो गया मैडम’’ ! आवाज में उदासी घोलकर उसने धीरे से कहा।
‘‘अरे बाप रे ! अब क्या करेंगे’’ ? अमलनेर से इतनी दूर आ चुके है ? यहाँ क्या मिलेगा वापस जाने के लिए ? ’’
‘‘क्या करेगा मैडम, तो हमको पता नहीं था’’। ड्राईवर कुछ सोच रहा था। सौभाग्य से वहाँ कोई गाँव था, नीम के पेड़ के नीचे कुछ लोग खड़े कुछ बैठे थे, कुछ खरीदा-बेचा जा रहा था। लड़का तेजी से गाँव की ओर भाग गया। हम लोग चुप्पी साधे कुछ न कुछ सोच रहे थे।
‘‘ये कहाँ चला गया ? यहाँ इतनी जल्दी गाड़ी बनने की बात तो सोचना ही बेकार है। दुबे मैडम त्योंरियाँ चढ़ाये बल खातीं, इधर-उधर देख रहीं थी। लगभग दस मिनट में हम देखते क्या हैं कि ड्राइवर एक दूसरी बड़ी वाले ऑटो में ड्राइवर की बगल में बैठा हमारी ओर आ रहा है।
‘‘मैडम ! ये मेरा दोस्त आपको ले जायेगा, मैं जानता था मेरा दोस्त मेरी मदद करेगा’’। हमसे ज्यादा वह प्रसन्न था। उसके मैले-कुचेले चेहरे पर मुस्कान सज रही थी।
हमारा भी ‘हाय जीव’ हुआ।
‘‘ठीक है अब हम इसे 600 रूपये देंगे, जब यह पहुंँचायेगा तो इसे ही देंगे’’। वर्मा जी जल्दी से आगे बैठे। ‘‘पचास रूपये इसे भी दे देना, बेचारा तुमको इतनी दूर लाया’’। नये ड्राइवर ने विनती भरे स्वर में कहा, वह भी एक किशोर ही था, किसी हाल में वह अठारह पार का नहीं लग रहा था। लंबा छरहरा, गोरे रंग का लड़का था वह।
‘‘यह तो बहुत भला लड़का है, कैसे हमारी परेशानी दूर कर दी इसने ? चाहता तो छोड़ देता क्या कर लेते हम अपरिचित स्थान पर मैंने सच्चे दिल से उसकी प्रशंसा की।
‘‘ठीक है ए ले’’। वर्मा जी ने उसे पचास रूपये दे दिये।
‘‘मैं आपको दर्शन कराता तो अच्छा लगता’’, लड़का पछता रहा था।
‘‘तो चलो हमारे साथ, क्या अपने घर में बता आये हो’’ ? मैंने पूछा।
‘‘यह मेरा गाँव है मैडम ! मैं बता के आ गया हूँ’’ वह प्रसन्न होकर ड्राइवर की बगल में बैठ गया।
इस ऑटो में सभी के बैठने के लिए स्थान था, इसके बाद की हमारी कपिलेश्वर महादेव की यात्रा निर्विघ्न रही। बादल के कारण धुंधलका सा नज़र आ रहा था। सड़क के दोनों ओर समतल, काली मिट्टी वाले खेत थे। कहीं-कहीं सड़क टूटी-फूटी थी, कहीं थोड़ी ठीक-ठाक।
हम लोग जब कपिलेश्वर पहुँचे तो सवा छः बज चुके थे, डर था कहीं मंदिर बन्द न हो गया हो, परन्तु सौभाग्य से वह खुला था। मैंने उस पवित्र प्रांगण में आराम की एक लम्बी उच्छवास ली और ऊपर दृष्टि डाली, हवा के संग बादल अठखेलियाँ कर रहे थे, विभिन्न आकृति के एक दूसरे से गले मिलकर आगे बढ़ते से। नीचे मंदिर के पाश्र्व में तापी नदी का चौड़ा पाट था, वर्षा ऋतु होने के पर अधिक जल नहीं था। तापी के ऊँचे कगार पर स्लेटी पत्थरों से बना वह भव्य मंदिर खड़ा था। जैसे शिव ने समाधि के लिए इस स्थान को चुना हो। गुम्बदाकार मंदिर के सामने बरामदा है, उसके बाद गर्भगृह जहाँ अंधेरा हो चुका था। पुजारी स्वयं टार्च लेकर आ गये, ये एक युवा पुजारी हैं। यहाँ मैंने मराठी भाषा के प्रति अनन्य प्रेम देखा, वैसे राष्ट्रभाषा से भी लगभग सभी परिचित मिले, काम चलाऊ हिन्दी लोग जानते हैं सबसे बड़ी बात वे राष्ट्रभाषा के प्रति दक्षिण की भांति दुराव नहीं रखते। पुजारी हमारे प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे।
गर्भगृह में, काले पत्थर का शिवलिंग विराजित है, बड़ी सी जलहरी के मध्य। हमने भूखों को भोजन मिला हो इस भाँति एक साथ भोले बाबा को घेर लिया उन्हें स्पर्श करने लगे। जयकारे से मंदिर गूँज उठा। यथा संभव पूजा अर्चना की गई, चढ़ावा चढ़ाया गया। शिवलिंग के पास ही एक चैकोर पत्थर था, दुबे मैडम का पैर उससे छू सा गया, पुजारी तुरन्त बोल पड़े – ‘‘ना…ऽ….ऽ…..ना… पारवती माई हैं ये’’। उन्होंने तुरन्त पैर दूर खींचकर क्षमा याचना की।
‘‘इधर शिवलिंग के नीचे से गुप्त गंगा निकलती है, इसका पानी बावली में इकट्ठा होकर तापी नदी में मिलता है, उधर से पांझरा नदी आती है, यह पवित्र स्थान त्रिवेणी है। पुजारी ने काम चलाऊ हिन्दी में समझाया था। मुझे ये समझ में नहीं आया कि मंदिर में एक तेल का ही सही दीपक क्यों नहीं जल रहा है ?
मंदिर के सामने ही एक और पुराना मंदिर है, पूछने पर पता चला यह देवी माँ का मंदिर है। कपिलेश्वर मंदिर यूँ तो आदिकाल का है। परन्तु उतना पुराना नहीं दिख रहा था, जितना देवा माँ का मंदिर।
‘‘इस मंदिर को किसने बनवाया बता सकते हैं’’? मैंने पुजारी जिनका नाम मधु महाराज था पूछा।
‘‘आइला माई तोड़कर…………
कई बार उच्चारण करने पर मुझे समझ आया ‘‘अहिल्याबाई होल्कर’’ ?
‘‘हाँ…..हाँ….. वही’’। वे प्रसन्न हो गये।
नंदी के पास बैठकर मैंने फोटो उतरवाई, जल्दी में सही साथियों की एक ग्रुप फोटो ली गई।
हम बहुत प्रसन्न थे, पहले वाले ड्राईवर का नाम जीतू था। और दूसरे का दिनेश।
‘‘मइ बोला था दर्शन करा दूँगा।’’ जीतू बोला।
‘‘हाँ बेटा ! आज का पुण्य तुझे ही मिलेगा। मैंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा। दिनेश भी बहुत खुश था, ‘‘सोचो यदि मई घर में नइ होता तो’’ ? वह हँसकर बोल रहा था।
शिव मंदिर से हटकर एक और मंदिर था, जिसे आरती के पश्चात् बन्द कर दिया गया था, वहाँ दीपक जल रहा था। काले पत्थर की सर्वाभूषणों से अलंकृत वह एक दुर्लभ मूर्ति है। मेरे पूछने पर मधु महाराज ने बताया – ‘‘ये मराठों की कुल देवी आशापूर्णी माता है’’। हमने श्रद्धापूर्वक पूजा अर्चना की। खिड़की के पास ही पुजारी टार्च लेकर खड़े थे हमें मूर्ति के दर्शन में सहायता कर रहे थे।
वह क्षेत्र तीन ओर नदियों से घिरा एक टापू जैसा जान पड़ा, नदी को पार कर उधर के गाँवों में जाया जाता होगा।
‘‘इतने सुन्दर स्थान पर महाराष्ट्र सरकार ने बिजली का इन्तजाम क्यों नहीं किया’’? प्रश्न मेरे होठों से खारिज हो गया। पुरोहित ने कुछ उत्तर दिया किन्तु हड़बड़ी में समझ नहीं सकी।
‘‘अब तक सात बज चुके थे, मन सन्तुष्टि से भरा हुआ था। ‘‘यदि हम यहाँ न आते तो महाराष्ट्र यात्रा निर्थक हो जाती’’, मन ही मन मैंने सोचा। कपिलेश्वर से लेकर नीम गाँव तक सड़क एकदम टूटी-फूटी गड्ढ़ों से भरी थी, बरसात का पानी भरा होने के कारण उनकी गहराई का अंदाजा लगाना मुश्किल था, अतः हमने भोलेनाथ को प्रणाम किया और पहले की तरह वहाँ से निकल पड़े। हमारे अन्य साथियों की बस कुछ देर पहले ही वहाँ से निकली थी। यह हमें पता चल चुका था। नीम गाँव में बाजार के पास एक भव्य मंदिर से भजन की आती आवज ने बरबस हमें आकृष्ट किया, देखा तो वहाँ एक बड़ी वाली एकदम सफेद लग्जरी बस खड़ी थी, हमारे साथी वहाँ उतरकर दर्शन लाभ ले रहे थे। हम भी रुक गये।
वहाँ रुकमणी-विट्ठल का बड़ा सुन्दर विग्रह स्थापित था, पूजा अर्चना के पश्चात् स्थानीय जन चटाई पर पंक्तिबद्ध बैठकर भजन कर रहे थे। एक व्यक्ति पुस्तक पढ़कर गा रहा था, बाकी सब सस्वर दोहरा रहे थे।
धूप की सुगन्ध वातावरण को पवित्र कर रही थी, हम लोग दर्शन करके वापस आये। हमारे साथियों की बस से आगे एक लाल रंग की बड़ी वाली कार थी, जिसमे कुछ विशिष्ट जन के साथ अलका धनपत सफर कर रहीं थीं। वे गोरे रंग की मंझोले कद की सुन्दर सी महिला हैं। आज के कार्यक्रम की समाप्ति पर हमने उनसे भेंटकर छायाचित्र उतरवाये थे, किन्तु उनके विशेष नहीं बन पाये थे। हमने प्रयास किया, किन्तु उनकी बेरूखी ने हमें और आगे नहीं बढ़ने दिया।
विकलांग चेतना परिषद् के प्रथम प्रेरणास्त्रोत श्री सीताराम अग्रवल जी अपनी बैसाखियों के सहारे बड़ी मुश्किल से बस में चढ़ रहे थे। पीड़ा तो मुझे भी हुई, लेकिन मैं चुप रही, नीलमणि दुबे तल्ख हो उठीं। इस विडंबना की चर्चा उन्होंने अपने आलेख प्रस्तुतीकरण के समय बड़ी निर्भिकता से की – ‘‘यह कैसा विरोधाभास है कि हम सभी आज तीन दिनों से विकलांगो के जीवन में सुख और सम्मान का उजाला करने की बातें कर रहे हैं। हमारे सामने सकलांग ए.सी. कार में सफर कर रहे हैं और एक बुजुर्ग विकलांग अपनी बैसाखियों के सहारे बस में यात्रा कर रहे हैं। उनकी बात सुन आयोजक सन्नाटे में रह गये। उन्होंने अपनी भूल सुधारी आगे श्री सीताराम अग्रवाल जी को कार में बैठाया जाने लगा। हमारी कुछ बहनों ने हमसे बस में बैठने का आग्रह किया, किन्तु हमने विनय पूर्वक इंकार कर दिया। हमारी आटो कार से बहुत आगे-आगे अमलनेर की ओर चली। अभी पानी बन्द था। सड़क के दोनों ओर लोग बोतल में पानी लिए सड़क का श्रृंगार करने बैठे नजर आये। इस मामले में तो सारा देश बराबरी पर है (अभी तक मैंने जैसा देखा है।)
‘‘हमको एइसा आदमी रोज क्यों नहीं मिलता ? आज हमको बहुत अच्छा लगता तुम बहुत अच्छा है।’’ जीतू की आवाज उसके दिल की गहराई से निकल रही थी।
‘‘तुम भी बहुत अच्छे बच्चे हो, अफसोस तुम पढ़ने-लिखने की उम्र में काम कर रहे हो’’। मेरे मुँह से निकला।
‘‘हमारे इधर, पढ़ता नहीं ज्यादा, काम करता’’। उसने कहा।