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पुस्तक समीक्षा: ”कर्ण हूॅुं मैं” लेखक-श्री पवन प्रेमी जी, समीक्षक-डुमन लाल ध्रुव

पुस्तक समीक्षा: ”कर्ण हूॅुं मैं” लेखक-श्री पवन प्रेमी जी, समीक्षक-डुमन लाल ध्रुव

भावों के अनुभव संसार को, यथार्थ के अन्तश्चेतना काव्य संग्रह – कर्ण हूं मैं – डुमन लाल ध्रुव

राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारी एवं साहित्य के समदर्शी कवि श्री पवन प्रेमी जी की काव्य कृति ” कर्ण हूं मैं ” जो कवि की रचनाशीलता कुदरती और बुनियादी जरूरतों में से एक है। इसके प्रकट होने के बावजूद, उससे अलग होने का अहसास भी उसके साथ ही जन्म लेता है। यह अलगाव कवि को यथार्थ की समग्रता से पुनः जुड़ने के लिए बेचैन करता रहता है। यह कुछ वैसी ही बात है , जैसे एक बच्चा मां से अलहदा होते ही, पुनः उससे एकाकार होने के लिए तड़प उठता है। वह सब जो कवि को उससे अलहदा मालूम पड़ता है, उसकी कुदरती भूख को जगाता है। परंतु भूख का शमन, भूख के सामाजिकीकरण के बिना मुमकिन नहीं होता । सामाजिकीकृत होती मानव देह एक श्रम मूलक कार्यशैली अपनाने की दिशा पकड़ती है। इस तरह कुदरती और सामाजिक कार्य शैली के बीच दूरी बढ़ती जाती है पर जिसे हम रचनाशीलता कहते हैं, वह हमारे सामाजिक व्यक्तित्व के अंततः एक प्रकृति यंत्र होने से ताल्लुक रखती है। भावों के अनुभव संसार को, यथार्थ के अन्तश्चेतना कर्ण हूं मैं जैसी साहित्य की रचना – धर्मिता के स्त्रोतों को खोजने में मदद की। कवि श्री पवन प्रेमी जी के मन में जो साहित्य उपजा उसे अनुभव की तरह खोजा। उनकी कृति में रचनाशीलता के विविध आयाम हैं। भाव और संवेदन कर्ण हूं मैं के अर्थ को अग्रविकास करती है।

हार नहीं सकता मैं,
भाग नहीं सकता मैं,
रण मेरा भाग्य बना,
कर्ण हूं मैं।

कवि श्री पवन प्रेमी का मन किस संवेदनशीलता और विकलता के साथ रेत की सलवटें को दुनिया के सुख-दुख से जोड़ा है और बेहतर दुनिया की उनकी वेदना कितनी प्रत्यक्ष प्रमाणिक और सहज मानवीय है। जो मानव आकृति और दानव आकृति के तिलिस्म में बंध गया है। कहीं अधूरी छूटी कहानी के पूरी होने की प्रतीक्षा में छाया छत्रक बनता है।

रेत की सलवटें को,
एक टक निहारता रहा मैं,
लगा बता रही हो कहानी,
हर सुबह हर रात का,
आता है दौर पवन का।
रगड़ती, आगोश में लेती निकल जाती है हवा।
रेत आकृति बता रही हों,
क्या-क्या हुआ।
कोई मानव आकृति,
कोई दानव आकृति,
कोई पशु बना,
कोई छाया-छत्रक बना।

लोगों की भीड़ के बीच छोटी-छोटी चिंताओं में हमारी त्रस्त मानवता और शोषण व्यवस्था की संवेदन शून्यता के गहरे संकट छिपे हैं। वे किसी भी प्रकार की आरोपित नैतिकता और नारेबाजी के बगैर अपनी परिचित और आसपास के अनुभूतियों से जैसा असर पैदा करते हैं वह कवि की गहरी प्रतिबद्धता के बीच अश्रुओं के सैलाब को रोक पाना असंभव है।

भीड़ रूपी सागर में,
सटते शरीरों के बीच
निकलते हैं तीर से,
आजू-बाजू अंजानें,
रहते हैं रहगुज़र भी,
अश्रुओं के सैलाब रोके
हाथ हिलाते महसूस करते,
चेहरा देखा सभी ने,
पढ़ा नहीं।

कविताओं के जरिए सृजनशील मां के ताप को महसूस किया जा सकता है दुख और संताप से मनुष्य की मृत्यु के लिए छटपटाहट उनके संघर्ष शिव चेतना का परिहार आंतरिक स्कूल में बाहरी संघर्ष चिंता के तत्व और उत्तर बेशक नहीं है जैसा कि हम जानते हैं कि कभी पवन प्रेमी गांव और नदी की सौंदर्य दृष्टि में शास्त्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई देती है इसीलिए शुद्ध कविता या रचना की स्वायत्तता जैसी धारणाओं में उनका विश्वास नहीं है । मनुष्य की स्वतंत्रता के प्रश्न को वे भौतिक ही नहीं बुनियादी सवाल भी मानते हैं और इन्हीं विश्वासों के साथ व्यैक्तिक और सार्वजनिक दुनिया के बीच एक तार्किक किन्तु रागात्मक सामंजस्य प्राप्त करते हैं। ऐसा करते हुए कवि पवन प्रेमी जी केवल प्रश्न ही नहीं करते वरन् मानवीय संसार के वैभव और सुंदर गांव को आत्मसात करने का प्रयास भी करते हैं।

अकेला सोता रहा,
खोता रहा समय,
उठा जब नींद खुली,
रात हो गया था
फिर हृदय की आस टूट गया,
देखने की, सुंदर गाँव को
वापस आकर नदी के इस किनारे,
देखता रहा नदी के उस किनारे को।

कर्ण हूं मैं संग्रह की महत्वपूर्ण कविता में से यह भी कविता उद्धृत है जो प्रकृति और रिश्तों की जमीन से प्रारंभ होकर यह कविता विस्तार प्राप्त करते हुए मनुष्य की शक्ति और उम्मीद के एक वातावरण की सृष्टि करती है जिस पर मन से भरोसा होने लगता है। प्रगतिशीलता जताने की सतर्कता से बरी होने के कारण ये कविताएं विश्वसनीय और ऐसे आत्मीय संसार को रचती है जिनके दरवाजे पाठकों के मन के लिए स्वत: खुलते जाते हैं।

हर शाम मुरझा जाते हैं ,
रंगत खो जाते है,
नहीं रहता कोई मूल्य,
सूखकर भी जो बने अनमोल,
जीवन में भरता जो रंगत,
महुए की फूल से,
आती खुशबू,
जीवन कामिनी है,
झोपड़ी में जलती
चुल्हे की स्त्रोत है,
त्याग गुलदस्ते को,
बिनता रहा मैं महुए को।

कविता का पूरा परिवेश इतना देशी और प्रश्न इतने परिस्थितिजन्य और मौजू हैं कि संघर्ष और उम्मीद का स्वर कहीं भी आरोपित नहीं लगता है। पवन प्रेमी विचारों को रणनीति में रूपांतरित नहीं करते किंतु कविता लिखते हैं। कविता संवाद रचते हुए संबोधित करती है और कविता के रूप में संप्रेषित भी होती है। किसी भी समकालीन कवि की चिंता मौजूदा अमानवीय व्यवस्था के निषेध से जुड़कर ही उसके कथ्य को अर्थ प्रदान कर सकती है । प्रगति और परिवर्तन के नाम पर हमारे समक्ष अकल्पनीय झूठ का एक भयावह वर्तमान है। इसमें सत्यान्वेषी दृष्टि और कहने की साहस के बिना हमारी दुनिया की कविता आकार प्राप्त नहीं कर सकती है।केवल वैचारिक सदाशयता अथवा केवल अनुभूतियों का कोरमकोर उद्रेक कविता के लिए पर्याप्त नहीं होते। रचनात्मक अनुभव और भीतरी करुणा के साथ दोनों का जुड़ाव जरूरी है । पवन प्रेमी की कविताओं में उनके बीच दरार नहीं है । इसीलिए इन कविताओं का पृथक चरित्र और स्वभाव है। इस चरित्र को समझने की दृष्टि से इस संग्रह की कविता मुझे महत्वपूर्ण लगती है। इन कविताओं के जरिए पवन प्रेमी का अपनी परंपरा, इतिहास और भाषा से वह रिश्ता जाना जा सकता है दीगर कविताओं में चरितार्थ हुआ है और जिसके कारण ये कविता सहज बोधगम्य और अपनी लगती है।

असफलताओं से घबराने वाला नहीं मैं।
पथरीले रास्ते से थकने वाला नहीं मैं,।
तेज आंधियों में थमने वाला नहीं मैं, ।
नदी के उफानो से बहने वाला नहीं मैं।
तुम मुझे जितना हराओगे,
और बेहतर बन कर आऊँगा।
तुम्हारे हर सवाल का जवाब लाऊँगा।
मैं फिर से आऊँगा।
मैं फिर से आऊँगा।

काव्य में रिदम और नक्काशी का व्यापक कैनवास उभर कर आया है। क्षणवादी चमत्कार की क्षणिक यौगिक प्रक्रिया है पवन प्रेमी जी सपाटबयानी के शिल्पवादी कवि हैं जो सायास भी हैं और सहज भी। कवि के भीतर समाविष्ट संघर्ष में लिखी कविता को संघर्ष से गुजरने के पश्चात ही समझा सकता है।

युग है विज्ञान तंत्र का,
हाथ की उंगलियों से,
सरकती स्क्रीन
पलटती कर में उत्तर-दक्षिण।
देर रात्रि, तीव्र रोशनी
निद्रा से महरूम,
अवसाद, आलस से घिरा,
तरुण है आज ।
आसमान से देखता कोई,
योजना बनाता है,
गुमराह करने को।
युग है यूट्यूब का,
विचार भरना और निकालना,
कैसेट बना टेप रिकॉर्डर का।
सत्य क्या है?
नहीं पता युवान को।
आसमान से कॉपी पेस्ट
बड़बड़ करता युवा,
तरुण हो खोजो
सत्य का अनुसंधान करो
तब आत्मसात करो।

कवि पवन प्रेमी जैसे-जैसे कविता की गहराई में धंसते जाते हैं, कविता ऊपर फैलती चली जाती है अपनी लंबाई-चौड़ाई में नहीं, वरन अपने अर्थ और अपने लक्ष्य के प्रति जो रात को सोने नहीं देती। यही कारण है कि पवन प्रेमी की रचनाओं को पढ़ते हुए, उन चीजों का धीरे-धीरे किन्तु पूरी गहराई से एहसास होता रहता है, जिनसे होकर पवन प्रेमी ने अपनी कविता गुजारा है।

लक्ष्य भरा जीवन,
ना सोने देता है,
ना खोने देता है,
स्मरण रहता है हर पल,
मेरु स्वरुप, महत्वाकांक्षा,
हृदय में अंकुरित,
चकाचौंध से स्फूटित,
भागीरथ श्रम अपेक्षित
दिवा स्वप्न,
अनिद्रा, निशा में।

संघर्ष यात्रा मुक्ति में ही समाप्त हो जाती है। यह ऐसी मुक्ति है जो संघर्षरत लोगों से होती हुई उनके बच्चों को मिलती है। उनके अजन्में भविष्य को इसका हकदार बनाती है । इसके प्रति संघर्षशीलता ज्यादा चिंतित होती है । अपनी पैतृक विलाप से बाहर आने की प्रेरणा के पीछे अपनी मुक्ति के लिए छटपटाहट है। किंतु उन्हें समाजस्तर में संगठित होकर आगे बढ़ने और सारे जद्दोजहद के लिए तैयार होने के पीछे अजन्में भविष्य के प्रति चिंता और सतर्कता ही प्रेरणा बनती है । मुक्ति की भूख उन्हें प्रेम और गुस्सा दोनों अंतर्मन से लैस करा देती है।

   संघर्ष खुद का 
    खुद से 

रहता है सदा।
जीता तो जीता
खुद से,
हारा तो हारा
खुद से।

खुद को पहचाना
अन्तर्मन में,
खुद को जाना
संघर्ष में।

यदि पवन प्रेमी की कविता के कैनवास पर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे कि उनका रचना- संसार शहरों की घरों की ठाठ – बाठ, संघर्षशील,शिष्ट- संदर्भों तक फैला है। कहीं – कहीं इससे भी आगे बढ़ता हुआ आधुनिकता की दौड़ में सहज संदर्भों को पूरी जिंदादिली के साथ स्पर्श कर लेता है । आते- जाते कवि ने कविता में बहुत सारे चित्रों को पिरो देता है। उम्मीद और शहर कवि के लिए बहुत महत्वपूर्ण अर्थ रखते हैं।

शहरों की घरों की
ठाट अलग है,
डब्बे के ऊपर डब्बे
ऊंची-ऊंची डब्बे,
डब्बे के अंदर बाथरूम
कमरे और किचन,से
वक्त नहीं अपनों के लिए
व्यस्त है फोन में,
रहना चाहते हैं हमेशा
सेफ जोन में,
शांति कहां द्वन्द्व है,
परेशान हैं विचारों से
मशीनों सी जिंदगी से
सब त्रस्त हैं,
फिर भी शहर में,
आधुनिकता की इस दौड़ में,
बनाकर घर शहर में
रहना होता है।

कवि के भीतर की आग कविताओं में उतरी है ।यह अलग बात है कि वह पाठकों को दिखाई नहीं देती है। जीवन के अंधकार को दूर करने के लिए सफलता की राह पर ले जाना चाहते हैं। अन्याय और शोषण से पीड़ित संघर्षशील जनजीवन को उजागर करती है, दूसरी ओर भविष्य के जीवन के लिए उजालों की ओर ले जाती है।

वश में करना है,
विचारों को, आकांक्षाओं को,
सिद्धि रथ हाँकना है,
छोड़ विफलता, कुंठाओं की खलल
छोड़ विचार लघु,
छोड़ आंखें घूरती हुई,
चलना है राह पर,
पत्थरों को नजर अंदाज कर
सफलता की राह पर।

कविताएं एक बहुरंगी संसार में ले जाकर यथार्थ बोध और यथास्थिति के साथ सूनसान गली निश्छलता से निहारता है। दरवाजा – खिड़कियां जैसी जीवन की गहराई को सजल नयनों से आत्मसात करती है। समकालीन विसंगतियों के दस्तावेज को सुरक्षित करती है। कवि पवन प्रेमी का काव्य संग्रह ” कर्ण हूं मैं ” आदमी की जिजीविषा का सार्थक आंकलन करती है।

गुजरता हूं उन सूना गली से
जिनकी घरों की नहीं खुलती दरवाजे,
कोई दरवाजा नहीं गलियों में,
पर अनगिनत हैं खिड़कियां,
खिड़कियों से झांकती सजल नजरें,
पर खिड़कियां बंद रहती हैं सदा,
खुलती है कभी आहटों से।

कवि पवन प्रेमी ने काव्य संग्रह ” कर्ण हूं मैं ” की कविताओं को जटिलता से कहने की हिमाकत नहीं करते और न ही रचनाओं को आभिजात्य वर्ग में सम्मिलित करते। क्योंकि उनकी रचनाओं का प्रकार है ,सहज कविता का प्रतिपादन है।अकाट्य तर्क और प्रमाणिक भाषा शैली होने के कारण यह काव्य संग्रह मूल्यांकन का अधिकार चाहती है।

– डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी ( छ.ग.)
पिन -493773
मो. नं. -9424210208

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