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कर्म और भाग्य में अंतर्संबंध-रमेश चौहान

कर्म और भाग्य में अंतर्संबंध-रमेश चौहान
कर्म और भाग्य में अंतर्संबंध-रमेश चौहान

कर्म और भाग्य में अंतर्संबंध का भारतीय दर्शन-

कर्म और भाग्य में अंतर्संबंध भारतीय दर्शन के अनुसार मानव मन का क्‍लेश तभी दूर होता है, मन की अशांति तभी तृप्त होती है जब सत्‍य से परिचय होता है । सत्‍य तत्‍व का ज्ञान ही भारतीय दर्शन है । गीता में कहा गया है -”किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः” अर्थात क्‍या करना चाहिये और क्‍या नहीं करना चाहिये का निर्धारण सहज नहीं है, इसे तो सत्‍‍‍य तत्‍व सेे ही जाना जा सकता है । करने योग्‍य कार्य और न करने योग्‍य कार्य दोनों ही कर्म हैं और इन्‍हीं कर्मो से भाग्‍य का निर्माण होता है । कर्म एवं भाग्य का प्रभाव जीवन पर निश्चित ही दिखता है। कभी-कभी कर्म पर भाग्य प्रभावी दिखता है तो कभी-कभी भाग्य पर कर्म ! क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इस बात को निश्चित कर लेने के पश्चात किये गये कर्म के साथ भाग्य सदैव खड़ा रहता है । भाग्य और कर्म को लेकर द्वन्द सा दिखाई देता है । कुछ लोग अपने आप को भाग्यवादी मान कर कर्म को नकारते हैं तो कुछ लोग कर्मवादी होने के नाम पर भाग्य को । एक दूसरे के अस्तित्व को नकारना उसी प्रकार है जैसे घने कुहासा या घने बादल में ढके सूर्य के अस्तित्व को नकाराना । वास्तव में दोनों का अस्तित्व हैं । हमें इन दोनों के अस्तित्व और इनके अंतर्संबंध को समझने का प्रयास करना चाहिये ।

karma aur bhagya
karma aur bhagya

कर्म और भाग्‍य में द्वन्‍द-

वास्‍तव में कर्म एवं भाग्‍य एक दूसरे के पूरक हैं जहां कर्म से भाग्‍य का निर्माण होता है वहीं भाग्‍य से कर्म सहज अथवा कठिन हो सकता है । दोनों एक दूसरें में अंतर्निहित हैं किन्‍तु अपने चारों ओर के लोगों को देखने पर इन दोनों में द्वन्‍द होने का आभास होता है । लोग दो भागों में बटे हुये दिखाई देते हैं- एक कर्मवादी और दूसरा भाग्‍यवादी । कर्मवादी कहते हैं-

उद्योगिनं पुरूषसिंहमुपैति लक्ष्मी,
दैवं हि दैवम् इति कापुरूषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरू पौरूषम् आत्मशक्त्या,
यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोअत्र दोष: ।।

-पंचतंत्र, मित्रसम्प्राप्ति 

वहीं भाग्‍यवादी अपने पक्ष में तर्क देते हुये कहते हैं-

समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्।
भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्

कर्म क्या है ?

‘एक मनुष्य द्वारा अपने ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञान से कर्मेन्द्रियों द्वारा किये गये प्रत्येक कार्य को ही कर्म कहते हैं ।’ जिसे दो भावों निष्काम अथवा सकाम भाव से दो रीतियों सतकर्म या कुकर्म के रूप में किया जाता है ।बिना परिणाम के कामना किये किये जाने वाले कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं । इसमें केवल काम करना होता हैै, उसके लाभ-हानि पर कोई विचार नहीं किया जाता । किसी परिणाम की लालसा से अभिष्ट मनोरथ की सिद्धी के लिये किये जाने वाले कार्य को सकाम कर्म कहा जाता है । इसमें कर्म करने के पूर्व उसके लाभ-हानि पर भलीभांति से विचार करके ही कार्य किया जाता है । जिस कार्य के किये जाने से प्रकृति को क्षति न हो, किसी दूसरे मनुष्य अथवा जीव प्रकृति को कष्ट न हो उस कर्म को सतकर्म कहते हैं ।जिस कार्य के किये जाने से प्रकृति को हानि हो, किसी अन्य प्राणी को कष्ट हो उस कार्य को कुकर्म कहते हैं ।

मानव इन्द्रियाँ क्या है ?

मानव शरीर में मुख्य 10 अंग हैं, इन्हें ही इन्द्रियाँ कहा जाता है । इन्हें दो भागों में बाँटा गया है । पहला ज्ञानेन्द्रिय एवं दूसरा कर्मेन्द्रिय । आँख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा इन पाँचों को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं क्योंकि इसी के माध्यम से जगत का ज्ञान होता है । आँख से दृश्य का रंग, बनावट आदि का, कान से ध्वनि तरंग, नाक से गंध, जीभ से रस एवं त्वचा के स्पर्श से दृश्य की प्रकृति का ज्ञान होता है । मुख, हाथ, पैर, जननअंग, और मलद्वार ये कर्मेन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा ही प्रत्येक कार्य संपादित होते हैं । इन्हीं अंगों की तृप्ती के लिये इन्हीं अंगों द्वारा कार्य किया जाता है ।

भाग्य क्या है ?

भाग्य कर्मो की संचित निधि है । जिस प्रकार व्यवहारिक जीवन में दो प्रकार की संपत्ती होती है । एक चल संपत्ती दूसरा अचल संपत्ती । चल संपत्ती के संचय से ही अचल संपत्ती का निर्माण होता है उसी प्रकार कर्मो के संचय होने से भाग्य का निर्माण होता है ।आय-व्यय के लेखा-जोखा जैसे ही कर्मो का भी हिसाब होता है । किये जाने वाले सतकर्म अथवा कुकर्म का लेखा-जोखा ही भाग्य का निर्माण करता है । गणितीय रूप में सतकर्म एवं कुकर्म के अंतर को ही भाग्य कहते हैं । सतकर्म से पुण्‍यमयी भाग्‍य तो कुकर्म से पापमयी भाग्‍य का निर्माण होता है ।

भाग्यवाद का सिद्धांत-

सतकर्म की अधिकता होने पर पुण्यमयी भाग्य एवं कुकर्म अधिक होने पर पापमयी भाग्य का निर्माण होता है । पुण्‍यमयी भाग्‍य को सौभाग्‍य तो पापमयी भाग्‍य को दुर्भाग्‍य की संज्ञा दी गई है । कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक कर्म का भोगफल अर्थात परिणाम निश्चित है । यही भाग्य है । पुर्नजन्म सिद्धांत के अनुसार एक जीवन का कर्मफल अगले जीवन तक मिलता है, यही भाग्य है । यह अनुभवगम्‍य है कि कभी-कभी अल्प परिश्रम से अधिक सफलता मिल जाती है, तो कभी-कभी अधिक परिश्रम से अल्प सफलता ही मिल पाती है । जहाँ अल्प परिश्रम से अधिक सफलता मिल जाती है, वहाँ पर पुण्यमयी भाग्य का योगदान होता है, यही सौभाग्‍य है और जहाँ अधिक परिश्रम से अल्प सफलता ही मिल पाती हैै वहाँ पापमयी भाग्य का योगदान होता है यही दुर्भाग्‍य है । पहले किये गये कर्म का कर्मफल भाग्य के रूप में पहले मिलता है । बाद में किये गये कर्म का कर्मफल बाद में मिलता है । पापमयी भाग्‍य के परिणाम को पुण्‍यमयी भाग्‍य कम अवश्‍य कर सकता है समाप्‍त नहीं । यही भाग्यवाद का सिद्धांत है ।

भाग्य एवं कर्म में अंतर-

चूँकि भाग्य, कर्मो की संचित निधि है । अतः इसका स्वतंत्र अस्तितत्व नहीं है । भाग्य कर्मो से ही बंधा हुआ है । इसलिये ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ कह कर कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया गया है । ‘जो जस करहीं सो फल चाखा’ का अर्थ है जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा । यह भाग्‍य के प्रभाव को व्‍यक्‍त करता है कर्मफल से मनुष्य क्या देवता भी नहीं बच सकते । यहाँ तक कि स्वयं जगत नियंता बिष्णु भी कर्मफल से नहीं बच सकते । 

जलान्धर की पत्नि तुलसी का भगवान बिष्णु द्वारा लज्जाहरण किये जाने पर भगवान बिष्णु पत्थर (सालिक राम) बन कर अपने कर्मफल को भोगते हैं ।

इस कथा से कर्म का भाग्‍य के रूप फल की सिद्धी मिलती है

किसी-किसी कर्म का परिणाम तात्क्षणिक प्राप्त हो जाता है तो किसी-किसी का परिणाम आने में विलंब हो जाता है किन्तु परिणाम अवश्यसंभावी है । इन्हीं कर्मो का हिसाब-किताब संचित रूप में भाग्य बन कर प्रकट होते हैं ।

क्या भाग्यवादी होकर बैठे रहना उचित है ?

यदि भाग्य पर तनिक भी विश्वास करते हो तो आपको कर्म करना ही होगा क्योंकि कर्म ही तो भाग्य का भाग्यविधाता है । अच्छे भाग्य बनाने के लिये अच्छे कर्म करने ही होंगे ।यदि आप भाग्य पर विश्वास ही नहीं करते तब तो आपके पास कर्म करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं है । चूँकि भाग्य का निर्माण ही कर्म से होता है । अतः भाग्य के भरोसे बैठा रहना कदापि उचित नहीं है । पहले किये गये कर्मो की संचित निधि भाग्य है । यदि पहले का पापमयी भाग्य अधिक हो तो सतकर्म करके इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है अथवा निष्‍प्रभावी भी किया जा सकता है । 

कर्म प्रमुख संसार में, भाग्य कर्म का सार । कर्म करे से भाग्य है,

कर्म प्रमुख संसार में, भाग्य कर्म का सार ।
कर्म करे से भाग्य है, भाग्य कर्म उपकार ।।

-रमेश चौहान

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