कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 34 एवं 35

गताँक (कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 32 एवं 33) से आगे

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 34 एवं 35

-बुद्धिसागर सोनी ‘प्‍यासा’

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 34 एवं 35
कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 34 एवं 35

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 34

…….।।ःः वाधिकारस्ते ःः।।…….
कर्मयोग

आशाओं का नेह पुकारे
नियति पथ पर चलता जा रे
संघर्षों के बाद है जीवन
संघर्षों के बाद मिलन रे

काम क्रोध मद मोह लोभ की
जो लौं मन में खान
तोलौं पण्डित मुरखों
तुलसी एक समान

सम्मुख जो शत्रु खड़े हुए हैं
मद क्रोध लोभ से जड़े हुए हैं
फिर तू इनके मोह में क्यों है
ये नियति पथ पर अड़े हुए हैं

रण भूमि में लौटो पार्थ
जग मर्यादा की राह चलो
धर्म संस्थाप नार्थाय्
अधर्मियों का नाश करो

राम सा बन जा कपिध्वजधारी
जग मर्यादा का पालन कर
विनाशाय च् दुष्कृताम्
मृत्यु शर संधारण कर

हे पार्थ तुम्हारी निश्छलता
कायरता का बीज बो रहा
ज्ञान योग की बातें लेकर
नाहक अपना समय खो रहा

पल पल यूँ ही व्यर्थ गया तो
नियति रुठ ना जाये
टूट गया जो मन का दर्पण
फिर फिर जुड़ ना पाये

विमुख रहो ना होनी से तुम
समझो होनी की प्रत्याशा
समर भूमि में नाच रही है
मृत्यु बनकर रक्कासा

ज्वार उठा है उसके भीतर
निष्ठुर अपना ग्रास ग्रसेगी
भोग लगा तू उसको वरना
तुझसे अपनी क्षुधा हरेगी

जीत हार दो पहलू रण का
कोई जीता कोई हारा
रण से भला हुआ है किसका
ना तू जीता ना जग हारा

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 35

……..।।ःः वाधिकारस्ते ःः।।…….
निष्कामयोग

अब सशय कैसा ओ अर्जुन
यह रण तो आहूत हुआ
रणनाद सुनाओ गांडीव का
नर आहुति प्रत्याभूत हुआ

मृत देह सी संवेदनायें
हाहाकार करती भावनायें
अविश्वास की ऐसी लहर
निज आग जलती याचनायें

और अब क्या शेष है
फिर तुझे क्या क्लेश है
पतझड़ का सूखापात जीवन
आशा हुआ अखिलेश है

आशा जब अखिलेश हुआ
सपनों का समावेश हुआ
सपनों से जागी अभिलाषा
यही तो है जीवन परिभाषा

आशाओं ने महल बनाये
आशाओं ने युद्ध लड़े
आशाओं की खातिर अर्जुन
हम समरभूमि में आज खड़े

जब आ ही गये रणभूमि में
फिर पीठ दिखाना ठीक नहीं
नियति से मुँह मोड़ चले
जीवन का यह रीत नहीं

जयमाला का वरण करो
या मृत्यु को गले लगाओ
मैं मेरा का राग छोड़कर
आर्य युद्धपथ पर बढ़ जाओ

अब तो होनी निश्चित है
अनहोनी का नाम ना दो
छूट चला है तीर धनुष से
अब जो होता है वह होने दो

ना रहो पार्थ तुम मूढ़मति
पल छिन ऐसा आता है
वंचनाओं में पड़कर मानव
अवसर व्यर्थ गँवाता है

आओ तुम्हें मैं आज बता दूँ
मानवता की रीत
अपने भीतर सृष्टि रचकर
रखता है हर बीज

 -बुद्धिसागर सोनी "प्यासा"
   रतनपुर,7470993869

शेष अगले भाग में

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