कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 42 एवं 43-बुद्धिसागर सोनी “प्यासा”

गताँक (कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 40 एवं 41) से आगे

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 42 एवं 43

-बुद्धिसागर सोनी ‘प्‍यासा’

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 42 एवं 43-बुद्धिसागर सोनी "प्यासा"
कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 42 एवं 43-बुद्धिसागर सोनी “प्यासा”

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 42 एवं 43

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 42

……..।।ःः वाधिकारस्ते ःः।।…….
होनी

कौन्तेय! यह तो होनी है
तुमसे नहीं टलने वाला
फिर तटस्थ क्यों खड़ा है तू
तू भी पी ले विष का प्याला

राह ना सूझे जब कोई तो
होनी पथ पर बढ़ते जाओ
साथ लिये आलम्ब अराधन
अपना सत्वर गढ़ते जाओ

साहस कर चलने वाले
संयोग गढ़ा करते हैं
जीवन का ऐसा रीत है भाई
सुपथ अवरोध मिला करते हैं

आओ भर लें नई ज्योत्सना
विभ्रान्त क्लान्त तन मन में
प्रतिदिन आता नया सबेरा
जगती के आँगन में

बृहन्नले! तुम धनुष उठाओ
प्रत्यन्चा संधान करो
इस महायज्ञ की रणवेदी में
महामृत्यु का संज्ञान करो

होनी दबी सी चिन्गारी है
नियति हम पर भारी है
अब तो वैसा ही होगा
जैसी नियति हमारी है

मुँह ना मोड़ो युद्ध से तुम
सँघर्षों में क्या जाना है
तपकर सोना कुंदन बनता है
यह तो तुमने भी माना है

नियति रथ पर बैठी होनी
बनो सारथी तुम उस रथ का
अपने वश में कर लो नियति
चलो डगर तुम होनी पथ का

बैरी व्यूह में चल तू ऐसे
नाहर वन में चलता जैसे
गहन यामिनी के आँगन में
चपल दामिनी चलती जैसे

मैं भी तो हूँ साथ तुम्हारे
मेरे संग संग चलता जा रे
मैं हूँ सारथी तेरे रथ का
अब तो कहना मान सखा रे

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 43

……..।।ःः वाधिकारस्ते ःः।।…….
होनी

तू तो मेरा मंजिल मितवा
मेरा मन भी तुम्हे पुकारे
छोड़ दे अपनी होनी मुझ पर
मेरे पथ पर चलता जा रे

लेकर तेरा सहारा पथ में
मुझको अपना पथ चलना है
तुमको अपना साज बनाकर
गीत नया मुझको रचना है

अब आगे है नई मंजिलें
नई दिशायें नये रास्ते
सब कुछ मेरे खातिर मितवा
तेरा जीवन है मेरे वास्ते

तू नहीं तो कुछ भी नहीं यहाँ
आँखों देखी जग अपना है
तेरा-मेरा अपना-पराया
जागी आँखों का सपना है

पलकों के पीछे कर जाये
मानव जाने क्या क्या पाप
पापों की छोटी चिन्गारी
बन जाता कोई अभिशाप

अपनी नियति का तू नट है
डोर तुम्हारा नियति सहारे
पथ का क्या है कैसा भी हो
चलना तुमको नियति सहारे

ऐसा नही कि पीड़ा पथ की
एक अकेला तुम्ही सहोगे
नियति को भी पीड़ा होगी
राह जो तुम काँटों की चलोगे

कितना निःश्छल मन है तेरा
बाहर कितना है दिखावा
निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छलछिद्र ना भावा

तेरा आईना तेरा मन है
तू परछाई अपने मन की
नजर उठाकर देख आईना
नियति क्या है तेरे मन की

मिथ्या मोह में मत पड़ अर्जुन
जग तो एक छलावा है
शस्त्र उठा संग्राम दिखा
नियति का बुलावा है

 -बुद्धिसागर सोनी "प्यासा"
   रतनपुर,7470993869

शेष अगले भाग में- कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 44 एवं 45

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