कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 46 एवं 47-बुद्धिसागर सोनी “प्यासा”

गताँक (कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 44 एवं 45) से आगे

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 46 एवं 47

-बुद्धिसागर सोनी ‘प्‍यासा’

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 46 एवं 47-बुद्धिसागर सोनी "प्यासा"
कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 46 एवं 47-बुद्धिसागर सोनी “प्यासा”

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 46 एवं 47

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 46

।। कर्मण्येवाधिकारस्ते।।
रामायण पर्व

सुनो पार्थ! तुम राघव गाथा
जिसके पथ पर बनकर बाधा
अपराजिता थी खड़ी हुई
नियति बनकर अड़ी हुई

संयोग नहीं वह होनी था
नर को नारायण बना गया
राम ने मानव मान रखा
होनी रामायण बना गया

होनी का निश्चय था अर्जुन
सूर्पनखा थी राम की नियति
तभी तो उसपथ चला राम भी
जिस पथ जाना चाही नियति

वैधव्यजनित आहों से उपजी
सूर्पनखा की करुण पुकार
रावण का अभिशाप बन गया
अबला का निर्मम चीत्कार

जैसे सूनी कर दी तुमने
मेरे माथे का गहना
मैं तेरे वैभव की लंका
कर डालूँगी एक दिन सूना

राजमहल की जिन गलीयों में
आज सम्पदा नाच रही है
कल वहाँ मौत का मंजर होगा
मेरी अखियाँ ताक रही है

अब मैं तेरा होनी बनकर
सर्वनाश का बीज बनूँगी
रावण तेरी मृत्यु बनकर
मैं तेरे पथ में मौत रचूँगी

फुफकार उठी वह नागिन सी
विद्रूप हँसी के बीच कही
अब उस पथ मेरे कदम चलेगें
जिस पथ तेरी मौत खड़ी

मैं अब अनहोनी बन जाऊँगी
सर्वनाश भी गढ़ जाऊँगी
श्रीहत् करके समझ ना अबला
मैं तेरी मृत्यु बन जाऊँगी

सौभाग्य चिंह जब राजपथों में
पैरों का ठोकर खाती है
रणभूमि में लावा बनकर
बैरी को बहा ले जाती है

कर्मण्‍येवाधिकारस्‍ते भाग 47

।।कर्मण्येवाधिकारस्ते ।।
रामायण पर्व

आँखों से निकली चिन्गारी
मुँ से निकला अतिशय श्राप
विध्वंस कर गया लंका को
अबला नियति का अभिशाप

निर्बल किन्तु दृढ़ कदमों से
अबला नियति निकल पड़ी
रावण की अनहोनी बनकर
राम की होनी पथ में चली

बरसों उसने दण्डकवन में
एकान्तवास का शमन किया
गहन विपिन के सघन पाश में
निज पथ का संचलन किया

तपस्विनी थी सूर्पनखा भी
वन में कृत्या बनकर नाच रही
राजर्षि के निर्दैशों पर
दण्डक वन में वनवास रही

इसी सुरम्य वनप्रान्तर में
पहला बसन्त का राग जगा था
किसी यति के परछाई संग
नियति का अनुराग जगा था

आज हृदय को साल रहा है
स्मृतियों की परछाई
बीत गया जो समय के संगसग
वह लौट के फिर ना आई

विरही तुमको नहीं जाना था
पथ में अकेले छोड़ मुझे
जीवन के पल कैसे कटेगें
क्यों ना सोचा यह तुमने

दिन भी बीते रात भी बीता
बीते साल महीने
दुर्बोधिनी क्या मन में रखती
जाना नहीं किसी ने

जब पंचवटी को छूकर जाता
उन्मुक्त बसन्त मधुमास
सूर्पनखा के मन में मानो
जल .उठता था आग

राजपथों में दावानल चलती
सोने की लंका जल उठती
उस विरहन की आँखो में
लंका का वैभव जल उठती

-बुद्धिसागर सोनी “प्यासा”
रतनपुर,7470993869


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