गताँक (कर्मण्येवाधिकारस्ते भाग 46 एवं 47) से आगे
कर्मण्येवाधिकारस्ते भाग 48 एवं 49
-बुद्धिसागर सोनी ‘प्यासा’
कर्मण्येवाधिकारस्ते भाग 48
।। कर्मण्येवाधिकारस्ते ।।
रामायण पर्व
वैधव्यता की परछाई
मुखमण्डल में तिर आई
भीगी भीगी पलकों ने
आँखों से बूँदे छलकाई
फिर से मधुमास उतर आया
सघन साल वन कानन में
पत्ता पत्ता महक उठा
रतिराज रति अभिनंदन में
बहक उठी कूकें कोयल की
बौरों से लद गयी अमराई
महक उठी साँसे नियति की
छाई मधुर मदिर सी तरुणाई
काँप उठे पर्वत के शिखर
सौरभ साँसों में समा गया
बयारों ने करवट बदली
ऋतुराज विपिन में समा गया
दूर कहीं पोखर में पंकज
सुरभि संग केली करता
भँवरों का मधुर गुँजन
सरगम संग अठखेली करता
सघन अरण्य के पार कहीं
खेतों में सरसों लहक रही
पीली चुनरिया तन में लपेटे
वसुधा आँगन में थिरक रही
पसरी फैली चित्रोत्पला
आँचल समेटकर रहती है
सागर संगम की आस लिये
स्मित मंद गति बहती है
यत्र तत्र सर्वत्र फैलती
हरियाली गदराई है
टेसू के मरमर पत्तों में
रतनारी बौराई है
स्निग्ध पर्वत उपत्यिका पर
बैठी विपिन को ताकती
अनमना सा आज मन
जाने किन पलों में झाँकती
पलभर को निस्पृह आँखो में
विस्मय के लक्षण उभरे
चित्रोत्पला के गहरे जल में
कम्पित युगल अयन उभरे
कर्मण्येवाधिकारस्ते भाग 49
।।कर्मण्येवाधिकारस्ते ।।
रामायण पर्व
वैधव्य हृदय का डोल गया
मन जाने क्या क्या बोल गया
गुनगुन करती अलि मदन संग
अनहोनी कुछ बोल गया
मलयगिरी से चलकर आई
थकी हवा पल ठहर गई
चन्दन की भीनी सुगंध
दण्डक वन में पसर गई
काम कमान तीरों से बींधा
तन पीड़ा से सिहर गया
तीर निशाने पर बैठा है
ऋतुराज बात यह समझ गया
इन्ही पलों का किया मदन ने
बरसों चिर प्रतीक्षा
होनी की भी पूरी हो गई
लम्बी विकल समीक्षा
चिर प्रतीक्षित होनी अर्जुन
तरकस के कस खोल चली
ऋतु बसन्त की छईंहा में
भेद हृदय का बोल चली
ऐसे ही कर जाती भारत
होनी जब तब अपना काम
नियति पथ को साज बनाकर
गढ़ जाती नया अंजाम
सूर्पनखा के विरह व्यथा को
रंगमंच का पात्र बना
होनी गढ़ने लगी कहानी
स्मृतिजन्य चलचित्र कथा
आओ तुमको आज सुना दूँ
बीते युग की अमर कहानी
राजमहल से निकल गली में
बन गई मुँह जुबानी
दण्डक वन से परे सिंधु के
गहरे जल के पार
वैभवशाली राजमहल में
बसता रावण का संसार
विश्वविजय उसकी अभिलाषा
वह था मानव लहू का प्यासा
सागर सीमा के इस पार
वह करता भीषण संहार
-बुद्धिसागर सोनी "प्यासा"
रतनपुर,7470993869
अगले अंक में-