व्यंग मिश्रित लघु आलेख:कौन है लाल बुझक्कड़?
डॉ. अर्जुन दूबे
1.मैं तो भाखूंगा:
क्यों भाखते हो? क्या हुआ? क्या हुआ कह रहे हो, मार पीट करवा दे रहे हो। समझ नहीं है तुमको। मुझे नहीं है! तुम्हें ही नहीं है। वह कैसे? मेरा तो काम ही सोखौती करना। तुम ही मेरे पास आते हो, मैं तो नहीं जाता। देखो मुझे सोखौती से नहीं दिक्कत है क्योंकि मैं भी तुम्हारे पास जाता हूं। तब फिर इतना हो हल्ला क्यों? देखो तुम अल्ट्रासोनिक मशीन के साथ सोखौती करने लगते हो; तुम्हारा एक नेटवर्क है जिसमें तुम अनेक दूतों को लगा रखे हो। क्या? हां, वह सोखौती अत्याधुनिक सोखौती का रूप है, मतलब एक्जिट पोल, जिसके द्वारा किसी को सत्तासीन और किसी को झोला डंडा पकड़ाकर भ्रमण करा देते हो। जो तुम्हारी सोखौती से खुश नहीं है उसका हो हल्ला करना लाजिमी है। ऐसा क्यों नहीं करते हो कि सोखौती क्रिया को कुछ काल तक बंद कर दो जबतक कि सत्ता का टग आफ वार चलता है।
क्यों सोखौती बंद कर दूं? केवल तुम्हें ही जीने का अधिकार है, मुझे नहीं? तुम जब चाहो तीर्थ भ्रमण कर लो, मैं तो पांच साल बाद गंगा नहाने जाता हूं, यदि तुम पहले मौका दे दिए तो बात दिगर है; जीने मरने की बात नहीं, सर्व शांति की बात सोचो। क्यों मैं ही, तुम नहीं? सत्ता सुख तुम प्राप्त करोगे, जिससे तुम्हें खतरा है, उसकी तो तुम.., मुझे उपदेश देते हो। तुम्ही कुछ उपाय बताओ। देखो भाखना मेरी प्रकृति है, फिर भी उपाय है कि तुम सही को मत त्यागो, भले ही कोई उसे अपनाता नहीं है;एक बात और, गलत का त्याग कर दो, भले ही सभी उसी के साथ हैं। प्रयोग करो, तब देखो परिणाम।
2.बूझो तो जानूं!
चुनाव में किस पार्टी की सरकार बनेगी, कौन मुख्यमंत्री बनेगा, थोड़ा और आगे, कौन बनेगा प्रधानमंत्री? ये सब ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनकी चुनाव होने के पहले से ही परिणाम आने के पहले तक इनकी खूब बुझौवल होती है। बुझौवल? सही भी होता है। हमारे देश/समाज में, यहीं नहीं अन्य देशों में भी, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, हस्त रेखा, भाखने की क्रिया जिसे प्रेडिक्शन भी कह सकते हैं, प्रसिद्ध भाख विद् नास्त्रेदमस तक की भाख पुस्तक खोल दी जाती है; संतों, सन्यासियों, फकीरों, मंदिरों, मजारों आदि धार्मिक केंद्रों की महिमा वर्णन का क्या पूछना! कितनों की इनसे तकदीर बदल जाती है। कौन है जो इन जगते, ख्यातिलब्ध महापुरुषों, भले ही स्वयंभू क्यों न हो, के दरख़्त नहीं जाना चाहता है यदि थोड़ी भी महात्वाकांक्षा बची है!
परीणाम आने के ठीक पहले संवाद की क्रिया, मन की बात जानकर एक नयी सटीक भाख शाखा (एक्जिट पोल) के जादुई छड़ी से एक पार्टी की सरकार, कभी कभी त्रिशंकु की भी, और कभी कभी सहयोग लेकर परिणाम सुनिश्चित कर दिया जाता हैं, हालांकि संशय वैधानिक चेतावनी/डिस्क्लेमर के साथ बना रहता है, जैसे राहु की महादशा चलने पर होती है, शनि देव को प्रसन्न करें, अन्य ग्रहों की शांति के उपाय भी है; भाख के सही होने पर, होते भी रहते हैं क्योंकि यही तो भाख का गुण है, भक्त बन कर जिनके सौजन्य से समस्त इच्छाओं की पूर्ति करना शामिल हो जाता है, फिर बल्ले-बल्ले! किसके? दोनों के। यही नहीं चुनाव बाद भी, यहां तक कि सरकार गठन के बाद भी, ये भाख शास्त्र के विद्वतगण अपने अपने भाख शास्त्र और भाख कौशल को प्रमुख स्थान देते रहते हैं और आगे भी होने वाले चुनावों में इसकी महत्ता बता कर महात्वाकांक्षी नर नारियों को आकर्षित करने का काम करते हुए कुछ काल तक योग निद्रा में भी चले जाते हैं।
3.फेसबुक को कमतर मत आंकिए
फेसबुक से फायदे कितने हैं? फायदे ही फायदे हैं। कितना गिनाऊं! एक दो हो तो न गिनाऊं! यहां तो अनगिनत हैं। फेसबुक खोला नहीं कि ज्ञान की गंगा बहने लगती है; लिखने वाले, जिसमें मैं भी सम्मिलित हूं, अपना संपूर्ण ज्ञान और अनुभव इसमें प्रवाहित करते रहते हैं; ज्ञान का कौन ऐसा क्षेत्र है जो फेसबुक से अछूता है? राजनीति और अर्थव्यवस्था तो मानो इसके रोम-रोम में बसे हुए हैं; कुछ कर गुजरने की इनकी इतनी प्रबल इच्छा रहती है कि भूत को नकारते हुए भविष्य संवारने की अनमोल सलाह देते रहते हैं; देश की खातिर तो ये बलिदानी पुरुष हैं, दुर्भाग्य है कि इन्हें अवसर नहीं दिया जा रहा है।
लेकिन घबराने की बात नहीं है, समय आयेगा, अवश्य आयेगा जब देश मांगेगा खून, देश मांगेगा शौर्य, देश मांगेगा ऐसा परिवर्तन जो सबके लिए हो, जिसे ये ही कर सकते हैं। फेसबुक से भी क्रांति आयेगी? क्यों नहीं आयेगी? वास्तविकता से परे काल्पनिक चित्रण, कभी कभी लगता है ये सत्य हैं, विचारों का खंडन, विचारों की सहमति, आरोप प्रत्यारोप, प्रेम, घृणा, भौतिकता से आध्यात्मिकता सहित न जाने कितने आयाम हैं फेसबुक के। फेसबुक, तेरी महिमा अपरम्पार है, तुझे शत् शत् नमन।
4.ताकत ललकार में
हम लोग गांवों में देखते सुनते रहे हैं कि दो व्यक्तियों, दो पक्षों में, दो गांवों में प्रायः किसी ने किसी मामले को लेकर कहासुनी से प्रारंभ होकर मारपीट हो जाती है; स्थिति गंभीर होने पर किसी न किसी व्यक्ति का इह लोक से भी जाने का समाचार प्राप्त होता रहा है। कौन रोकेगा? ललकार में स्थित भयावह हो ही जाती है।
थोड़ा राजनीति की तरफ भी ललकार का प्रभाव देखें। राजनीतिक दलों के समर्थक इतना भिड़ जाते हैं मानों युद्ध क्षेत्र से परिणाम लेकर ही मानेंगे। कमजोर यहां से या तो भाग जाते हैं अथवा सुरक्षा की गुहार करते गिरते पड़ते मिलते हैं।
थोड़ा और जरा विभिन्न देशों की तरफ देखें। पुराने समय में भी युद्ध होते थे–युद्ध करने से कहां तक बचोगे? लेकिन युद्ध में राजा/शासक खुद ललकारते थे और स्वयं युद्ध में भाग लेकर, नहीं नहीं, आगे बढ़कर नेतृत्व करते हुए और अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए या तो प्रतिद्वंद्वी को मार देते/पराजित कर देते थे अथवा मरकर इह लोक से विदा हो जाते थे।
किंतु अब क्या हो गया है? युद्ध तो होना ही है परन्तु कौन मर रहा है अथवा मार रहा है? मात्र सैनिक और नागरिक, पक्ष किसी के भी हों। बिना खरोंच आए बहुत बाद में शासक टेबल टाक करते हुए कभी कभी दिखते हैं। लगता है कि युद्ध की यही नियति है।
-डा. अर्जुन दूबे
सेवा निवृत्त आचार्य, अंग्रेजी
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर (उ.प्र.)