कवि भरत ‘बुलंदी’ के छत्‍तीसगढ़ी कविता

कवि भरत ‘बुलंदी’ के छत्‍तीसगढ़ी कविता

कवि भरत ‘बुलंदी’ पारम्‍परिक छत्‍तीसगढ़ी गीत गणेश वंदना गीत गनपति के ले शुरु करत नंदावत हमर संस्‍कृति अउ संस्‍कार ल सुरता करत हे अउ टूरा मन के टूरी मन कम पढ़े लिखे होय म चिंता व्‍यक्‍त करत हे ।

kavi Bharat Bulandi
kavi Bharat Bulandi

गीत गनपति के

कइसे गुजर करथो हे, गणपति गजानन 2
एक दुसर के बइरी हवय, तुंहर घर के वाहन।।

ददा के डुड़वां हे, बइला सवारी।
दाई के बघवा, बांधे हे दुवारी।।
बघवा संग बइला, लगय लजलजावन।
कइसे गुजर करथो हे, गनपति गजानन।

एक मुड़ी तोर हवय,छै मुड़ी तोर भाई।
पांच मुड़ी बाप के हे,नौ मुड़ी तोर दाई।।
एक्काइस ठन मुड़ी हवय,मनखे हवव चार झन।
कइसे गुजर करथो हे गनपति गजानन।

शंकर के देह भर ,बड़े-बड़े सांप हे।
कहां रथे मुसवा तोर ,ओखर बर पाप हे।
नानकून मुसवा अऊ, सांप डेरडेरावन।
कइसे गुजर करथो हे ,गनपति गजानन।

सांप शिव गहना म, बिच्छू के लूर हे।
भाई तीरथाखन के, बइठे मंजूर हे।
अचरज हे तुंहरो,सवारी के साधन।
कइसे गुजर करथो हे, गनपति गजानन।

घर नइहे गांव म, खेत नइहे खार म।
दुंगदुंगा बइठे हव,मई पील्ला पहार म।
कोनू मेरन दिखे नही,ए जिनगी के धारन।
कइसे गुजर करथो हे, गनपति गजानन।।

लगथे अब नंदा जाही

लगथे अब नंदा जाही ,मोर सुम्मत के गांव हा।
सिख देवैया सियान अऊ,बर पीपर के छांव हा।

हंथलमरा मीठलबरा मनके,अब इंहा सियानी हे।
अपढ़ दूबर मनखे,मन बर मरे बिहानी हे।।
अंधेरी के आगू हांथ लमा ,खड़े हे नियाव हा।
लगथे अब नंदा जाही ………………….

झन बांटव मोर गांव ला,ए पारा ओ पारा मा।
मया के सुवना बइठे हे,ए डारा वो डारा मा।।
इरखा द्वेष के कांटा मा, गड़य झनि कखरो पांव हां।
लगथे अब नंदा जाही…………………………

जइसे जनमो नई मिलही,अइसन वो रार ठाने हे।
नइहन कोनू ले कम हम, खुदे ल सार माने हे।।
मुड़ी नवय नहीं जेखर,कछेरी मा थके पांव हां।
लगथे अब नंदा जाही ……………………..

नीत नियाव गोठ छोंड़,आने बात मां उलझाथे।
सियानन के गोठ छोंड़,बदरा असन ओसाथे।।
लगथे अब बूड़ जाही,पंच परमेश्वर के नाव हां।
लगथे अब नंदा जाही………………………

टूरा अंगूठा छाप

टूरा अंगूठा छाप, बहुरिया हवय एम ए पास।
ससुर होगे गोबराहा ,नौकरानी होगे सास रे।।
यहु का दिन आगे…………

आंखी के तारा राज दुलारा,आंखी लाल देखाथे।
रानी बनाके बहु लानेन,वो रोजे झगरा मताथे।।
मया के घर बुंदिया उजरगे,करथे बेंदरा बिनास रे
यहु का दिन आगे…………..

गोबर कचरा चुल्हा चौंकी,सासे ह बरतन मांजे।
होंठ म लाली पांव म माहुर,बहु ह काजर आंजे।।
करे नहीं कुछु आड़ी के काड़ी,दिखय सबो ले खास रे
यहु का दिन आगे…………..

सांघर मोंगर देहें हवय,काम बूता बर ओतहा।
पहिरे ओढ़े बर टीपटाप,गोठियाये बर सोजहा।।
कुछु कबे त भुजा अटियाथे,खेलथे गली म ताश रे
यहु का दिन आगे……………

कवि भरत बुलंदी
8964956038

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One thought on “कवि भरत ‘बुलंदी’ के छत्‍तीसगढ़ी कविता

  1. बहुत बढ़िया रचना है आदरणीय बुलंदी जी…

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