समसमायिक कविता: मुखौटा

mukhauta
mukhauta

उनके चेहरे पर
महीन मुख श्रृंगारक लेप सा,
भावों और विचार का
है अदृश्‍य मुखौटा

मानवतावादी और सेक्‍युलर
कहलाने वाले चेहरों को
मैं जब गौर से देखा,
उनके चेहरे पर
पानी उलेड़ा
तो मैंने पाया
न मानवतावादी मानवतावादी है
न ही सेक्‍युलर, सेक्‍युलर

अपने विचारों के
स्वजाति बंधुओं को ही
वे समझते हैं मानव
सेक्‍युलर भी
विचार और आस्था से भिन्‍न
प्राणियों को मानव
कहां समझते हैं ?

अपने विचारों को
जहां,जिस पर पल्‍लवित पाया
वहां की घटनाएं
बलत्‍कार, अत्‍चार पर
शोर करते
चिखते चिल्‍लाते हैं,
बाकी पर
गूंगे, बहरे और अंधे का
किरदार निभाते हैं
एक सफल
अभिनेता की भांति

लकड़ी के खंभे
पत्थर के चबूतरे पर
वस्त्रों की बर्बादी
देख न पाने वाले
मूर्ति और दूध पर
सवाल उठाते हैं

जन्‍म से बनी जाति को
समूल नष्ट करने जो
मुखर दिखते हैं
अपनी ही जाति को
जीवित रखने
अनेक संगठन
खड़े कर रखे हैं
चौपाल लगाकर
सरकार को डरा कर
मांग रहे हैं
केवल और केवल
अपने लिए
सुविधाएं
आरक्षण की बैसाखी

सेक्‍युलर को
देखना क्यों पड़ता है ?
पूछना क्यों पड़ता है ?
मानना क्यों पड़ता है ?
किसी का धर्म और पंथ

सेक्युलर देश में
सरकारी पर्चो पर
क्यों जीवित है ?
धर्म और जाति का
वह कॉलम

केवल राजनेताओं के नहीं,
न ही अभिनेताओं के
बुद्धिजीवियों के
चेहरों पर भी
मुझे दिखते हैं मुखौटे ।

-रमेश चौहान

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