काव्य गुच्छ:एहसास
-डॉ. रवीन्द्र प्रताप सिंह
1.और वो वही सतर
और वो वही सतर इस बार भी तो कह गयी ,
आह रही पड़ी हुयी फ़ुरसतें चली गयीं।
हज़ार खतों की लाश पर फफूंद बन के कुछ उगा ,
और वह जहर भरा , क्या करें वही दिखा।
ढला हुआ चाँद क्यूँ फिर से कुछ पलट रहा ,
मन ग़ुबार को बिठा , गिर रहा ,संभल रहा।
पर वही वह जर्द सा अजीब मसखरा दिखा ,
न कहीं कुछ लिखा , न मिला कोई खड़ा।
2.वो कहते भी नहीं
उलझे हुए पलों को संजोया था रात भर ,
तस्दीक के लिए बस वह काली रात थी।
वो लम्हे मुस्कराये, वह सब भी खिलखिलाई ,
वो कहते भी नहीं मग़र अख़लाकियत की बात थी।
उन ज़र्द से सफों पर सब कुछ तो दिख रहा ,
शायद कुछ अलग ही नज़रों की बात थी।
3.कभी सुबह के इंतज़ार में रात ऊँघती रहती थी
अब तो उनको लगता है ख़ैर ए मक़दम में भी ख़ामी
कैसे कोई समझायेगा जब नहीं समझने की है ठानी।
कभी सुबह के इंतज़ार में रात ऊँघती रहती थी ,
रात कहीं यूँ सो न जाए लाख जतन सी करती थी।
उन शामों के भी किस्से हैं , जो बोझिल राहों से गुजरी हैं ,
उन बाँहों के भी किस्से हैं ,जो किसी तसव्वुर में सोयीं हैं।
आज उन्ही ने क्या लिख छोड़ा एक इबारत दूर ‘उफ़ुक़ पर,
बादल सेरे दाल रहे हैं , देखो यह क्या करते हैं।
4.आयेगा भी तो न जाने इस बार आस या आहें देगा
किसे कहेगा , खुद सह लेगा, किससे कहना सुनना क्या ,
चाँद नासमझ बहका -बहका , खुद को ही कर देगा घायल।
किसी किसी दिन एक घड़ी फिर अरसे बाद दिखाई देगा
आयेगा भी तो न जाने इस बार आस या आहें देगा।
मनमाना अपनी मरजी का , शायद यह उसकी मजबूरी ,
बता रहा था एक शाम यूँ ,मिलता हर कोई खुदगरजी से।
इन बातों का ,इस दूरी का, वैसे क्या किसको समझाना ,
लगा नहीं बस कभी देखकर इसका तो बस आना जाना।
यूँ ही ख्वाब दिखाता है ये , जाने कितने अफ़साने हैं ,
यूँ ही यह कुछ कहता रहता , इसके लाख बहाने हैं।
5.वह तो मौसम की बारिश थी
वह तो मौसम की बारिश थी , पत्थर थे हरियाली थी ,
पत्थर को हम समझ न पाए , हरियाली तो हरियाली थी।
वही रास्ते बाग़ बग़ीचे जो थे किस्सों के भीतर ,
आज अचानक सब के सब उजड़े उजड़े क्यों लगते हैं।
शायद उनको नहीं पता था यह तो उनकी ही धड़कन थी ,
नहीं उधर से थीं कुछ गूंजे बस उनकी आवाजें थीं।
इतनी दूरी तय कर बैठा , अब तो बस कुछ कथा कहानी ,
यही बचेगा उधर दिख रहा सूना सा कुछ ,बची कहानी।
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह के विषय में
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। वे अंग्रेजी और हिंदी लेखन में समान रूप से सक्रिय हैं । फ़्ली मार्केट एंड अदर प्लेज़ (2014), इकोलॉग(2014) , व्हेन ब्रांचो फ्लाईज़ (2014), शेक्सपियर की सात रातें (2015) , अंतर्द्वंद (2016), चौदह फरवरी (2019),चैन कहाँ अब नैन हमारे (2018)उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। बंजारन द म्यूज(2008) , क्लाउड मून एंड अ लिटल गर्ल (2017),पथिक और प्रवाह (2016) , नीली आँखों वाली लड़की (2017), एडवेंचर्स ऑव फनी एंड बना (2018),द वर्ल्ड ऑव मावी(2020), टू वायलेट फ्लावर्स(2020) प्रोजेक्ट पेनल्टीमेट (2021) उनके काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने विभिन्न मीडिया माध्यमों के लिये सैकड़ों नाटक , कवितायेँ , समीक्षा एवं लेख लिखे हैं। लगभग दो दर्जन संकलनों में भी उनकी कवितायेँ प्रकाशित हुयी हैं। उनके लेखन एवं शिक्षण हेतु उन्हें स्वामी विवेकानंद यूथ अवार्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट , शिक्षक श्री सम्मान ,मोहन राकेश पुरस्कार, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, डॉ राम कुमार वर्मा बाल नाटक सम्मान 2020 ,एस एम सिन्हा स्मृति अवार्ड जैसे सत्रह पुरस्कार प्राप्त हैं ।