किन्नर व्यथा भाग-10
किन्नर व्यथा भाग-10
शिशु पावन श्री भगवान मूरत, किन्नर या नर मादा |
हो सबके सम्मान बराबर,सबकी सम मर्यादा ||
फिर समाज किन्नर बच्चे क्यों,निशदिन अपमान करे |
शिक्षा सम्मान तरसता बचपन, जोबन बलिदान करे || 1 ||
झेला झमेला जग अकेला,बर्बरता क्या भूले |
मार सलाख दागना भागना,ऑख-ऑख में झूले ||
दूर क्षितिज असहाय चीखें,गूंज के वापस आती |
निशि दिवस तम क्रूर प्रताड़ना,आत्मबल खा जाती || 2 ||
जिसका कोई संग न साथी,फुटपाथ पर सोया |
अधनंगे भूखे हताश मन,मार दहाड़ें रोया ||
जीने का संबल ना कोई,मुख मंडल कांति नहीं |
भाग्य कोसते बोझ समझते,मिली इन्हें ना शांति कहीं || 3 ||
जो अपनाते भारी मन से,नफरत भरकर सागर |
खट नफरतमय रोटी खाते,नफरत ओढ़े चादर ||
खुद परिवार न अपना माने,क्या जग जीने दी थी |
जो अपमान का जहर पिये नित, हो उसकी वाणी मीठी || 4 ||
जिसका हो परिवार संगठित,दूजे वार नहीं करते |
स्वजन पर अमर्यादित आचरण,स्वीकार नहीं करते ||
नित्य दहक अंगारे खप तप, बचपन संयम तोड़ा |
फुटपाथ पर नरपिशाच ने,कब इनका तन छोड़ा || 5 ||
होटल बर्तन धो तन पोसे,कभी हमाली कर ले |
छोटी गलती भारी गाली,रोज सहे मन भर ले ||
कहीं किया कुछ काम दिवस में,रात वहीं पर सोये |
जिसने कर दी प्रेम से बातें,बस उसका ही होये || 6 ||
मालिक का दिल जीतने करता,हाड़ तोड़ मेहनत ये |
गलती डरता सचेत रहता,निशदिन सहे तुहमत ये ||
मजबूरी में फंसकर इंसां,सोचो क्या नहीं करता |
पेट की आग बुझाने इनको,जिस्म बेचना पड़ता || 7 ||
चटख वसन पहने नारी के,या पुरुष परिधान धरे |
चुभते नयन तीर से इनकी,होती पहचान परे ||
हो जाती तब लाल सिंदूरी,लाज वधूवत मुख-मंडल |
निज पहचान उजागर करने,मचता रहे मन दंगल || 8 ||
मन आहत होता मर्यादा,तार-तार हो जाती |
जीत न होती बस जीवन में,हार-हार हो जाती ||
किसे सुनायें व्यथा कथाएं,यह है नर ना नारी |
जीवन के कंटक पथ में चल,घुट जीना लाचारी || 9 ||
अच्छी हो या बुरी बात कोई,बहुत प्यार से कह दे |
मीठी वाणी सुनकर सारे,दुख का सागर सहले ||
कभी किसी की जज्बातों पर,यूं ना ठेस लगायें |
धिकमय जीवन पलछिन चुभता किन्नर कथा बतायें || 10 ||
-डॉ. अशोक आकाश
बालोद
अद्भुत लेखनी हे गुरुदेव आपके
सादर प्रणाम
लेखनी के जवाब नंइहे
बधाई डॉ.साहब
अऊ सुरता वेबसाइट ल
लाजवाब रचना डॉ साहब
आदरणीय दावना जी दिनकर जी उमरे जी चौहान जी आप सबका अनंत आभार