किन्नर व्यथा भाग-17 -डॉ. अशोक आकाश


गतांक से आगे

किन्नर व्यथा भाग-17
किन्नर व्यथा भाग-17

किन्नर व्यथा भाग-17

किन्नर व्यथा भाग-17

संविधान सम्यक विधान दी, तृतीय लिंग का दरजा |
राजनीति नौकरी उद्योग, व्यापार बैंक से करजा ||
मात-पिता संपत्ति पुत्रवत्, सम अधिकार मिला है |
मतदाता पहचान पत्र से, तन-मन सुमन खिला है || 1 ||

तुम भी मानव यह भी मानव, मानवता मत भूलो |
पूर्ण मनुज हो लांघ मनुजता, गर्व भरे मत फूलो ||
तज निज स्वारथ कर परमारथ, प्रभु कारज पथ छूलें |
मान विधाता खुद को जग का, स्वकर्तव्य न भूलें || 2 ||

किसी के मौलिक अधिकारों का,मत अब हनन करो जी |
करके निरादर विचलित मानव, मन मत अगन भरो जी |
बंजर धरती फूटे कोंपल, अब ऐसा कुछ कर दो |
युग युग दहक रहे किन्नर मन, सुचि शीतलता भर दो || 3 ||

शिव पुराण वर्णित जब ब्रह्मा, सृष्टि आरंभ किया था |
योग से पुरुष छाया किन्नर, जीव उत्पन्न किया था ||
नवसिरजन सृष्टि वर्धन में, कालचक्र अति बीता |
तब ब्रह्मा शंकर सहयोग का, बोले बचन बिनीता || 4 ||

शिवजी ने निज बाम अंग से, स्त्री सृजन किया था |
स्वयं अधनारीश्वर बनकर, जन मन मगन किया था ||
तब से किन्नर की उत्पत्ति का, जग को भान हुआ है |
महादेव के इस स्वरूप का, गौरव गान हुआ है || 5 ||

आद्यावधि शिव निज स्वरूप का, जन जन पूजन करते |
मान अर्धनारीश्वर भगवन, चंदन वंदन करते ||
भगवन के ऐसे स्वरूप का, जब पूजन करते हो |
किन्नर सम्मुख आ जाये तब, मन क्यों अगन भरते हो || 6 ||

मथनी बना था मंदराचल, समुद्र मथनी वेला |
अमृत पीने की चाहत में, देव दानवी खेला ||
सागर मथकर देव दनुज ने, रत्न चतुर्दश पाया |
अंतिम रत्न लिए धनवंतरी, अमृत घट ले आया || 7 ||

जिसे बांटने भगवन श्री हरि, मोहिनी रूप बनाया |
अमिय पान हेतु राहु केतु, अपना शीश कटाया ||
रूप मोहनी भगवंत इतने, सुंदर सम मोहक थे |
दृढ़ वैराग्यवान शंकर, दिल इन पर धक धक थे || 8 ||

उनसे पुत्र भगवान अयप्पा, नाम का डंका बाजे |
जो केरल में सबरीमाला, मंदिर साक्ष विराजे ||
जहां युवा नारी प्रवेश नित, आदिकाल वर्जित है |
मकर संक्रांति गहन निशा में, अतुल तेज परसिध है || 9 ||

वेद पुराण शास्त्र में देवी, गायक कहा गया है |
ऋषि कश्यप सुत किन्नर, जगहित लायक कहा गया है ||
वायु पुराण भी अश्वमुखी के, इनको पुत्र कहे हैं |
गायन नर्तन वादन कौशल, साझा रुद्र कहे हैं || 10 ||

ज्योतिष शास्त्र दिव प्रभामय, महिमा पुंजमय गाया |
इनको मिले सम्मान बराबर, किन्नर ईश्वर माया ||
जिनके जन्म तिथि अष्टम गृह, सम शुक्र शनि विराजे |
गुरू चंद्र नहि निरखे जिन्हें, वही किन्नर जनम अभागे || 11 ||

मन अथाह सागर मंथन कर, नित नवरत्न निकालो |
मन ही देव असुर किन्नर है, मन मथ सदा संभालो ||
भगवन की खूबसूरत धरती, तुमने नरक बनाया |
उसने इंसान तुमने ईसाई, या मुसलमान बनाया || 12 ||

चांद पर कब्जा कर लोगे, या सूरज जेब भरोगे |
मंगल में जीवन पाकर भी, तुम प्यासे से ही मरोगे ||
जिसने भी अपने भाई का, दिल जो कभी दुखाया |
जीते जी सब कुछ पाया पर, क्या मौत प्रेम से आया || 13 ||

किन्नर जन्म हेतू है क्या, यह परम रहस्यमयी है |
युग युग भारत भूमि सुसंस्कृत, सरसिज शस्यमयी है ||
दुनिया भर में एक ही इनकी जीवन द्वंद व्यथाएं |
धिकमय जीवन पलछिन चुभता किन्नर व्यथा बताएं || 14 ||

-डॉ. अशोक आकाश
बालोद

शेष अगले भाग में

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4 thoughts on “किन्नर व्यथा भाग-17 -डॉ. अशोक आकाश

  1. अद्भुत सृजन है गुरुदेव अशोक आकाश जी
    आपके लेखनी को पढ़कर हृदय आनंदित हो गया

  2. अद्भुत सृजन है गुरुदेव अशोक आकाश जी
    आपके लेखनी किन्नर व्यथा को पढ़कर हृदय भर गया

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