किन्नर व्यथा भाग-7
किन्नर व्यथा भाग-7
हाय विधाता ! क्यों धरती में,तुमने किन्नर जाया ?
ना ही पुरुष नारी का दर्जा, इन्हे कभी मिल पाया ||
जन्म देके मां कोसे कोख, घर में पसरे मातम |
पितृ हिदय में लहर शोक की, दहके अगन घटा सम ||1||
इनके दिल का प्रश्न पिटारा, खोलके देखे कोई |
सबको बॉटे घर घर खुशियां, खुद की खुशियां खोई |
जो ले सबकी बलैया उसकी, कोई बलाएं लेले |
जिनकी खुशियों में शामिल हों, वह उल्टा दिल खेले ||2||
नाच बजाये झॉझ घुंघरू, ढोलक ताली बधाई |
जैसे आते सब दुनिया में, वैसे यह भी आई ||
न ही यह आकाश से टपकी, ना धरती से उपजी |
मानव रक्त कणों का पुतला, उपजन जीवन रज की ||3||
ना बन पाया यह कुलदीपक, नहीं बनी गृहलक्ष्मी |
देख ली कुलीन सुसंस्कारित,जन की कथनी करनी |
चंदन सौपी थी प्रकृति ने, कर डाला जग काजल |
कंचन काया पीतल कर दी,दाग लगा दी ऑचल ||4||
यह समाज कभी जान न पाया, भ्राता भगिनी सत्कार |
मिलती मां से सदा उलाहना, पिता से मिलता नित दुत्कार ||
इनके चंचल कोमल मन में, निश्छलता सूचि भावुकता |
पूर्ण समर्पित प्रेम के आगे, अविचल पर्वत झुकता ||5||
गैर भावना क्या समझे जब, अपना रक्त न पहचाने |
नदिया तट से पलटी चल दी, अविरल धारा पाने ||
थका हारा बेसहारा यह, घर छोड़कर चल देता |
कितना भी बढ़कर उलझन हो, वक्त ही उसका हल देता ||6||
पेट पालने भीख मांगने,पर मजबूर हुआ है यह |
चोरी बेईमानी से डरता,भले मजदूर हुआ है यह ||
स्वाभिमान से जीने मरने,पर मशहूर हुआ है यह |
मेहनत करता दिनभर कस के, थक कर चूर हुआ है यह ||7||
कोई तन से लड़की होती,किंतु स्वभाव लड़का |
ऐसी लड़की का दिल अक्सर, लड़की निरखत धड़का ||
कोई शरीर से लड़का पर,आत्मा लड़की होती |
ऐसे तन में उस लड़की की,आत्मा कैदी होती ||8||
किसी की दाढ़ी मूंछ है पर, निज अंग लड़की जैसी |
किसी में लड़के का रूप रंग, पर ढंग लड़की जैसी ||
कोई अर्द्धपुर्लिंग तो कोई,अर्द्धस्त्रीलिंग गोरी |
छोरों में छोरी के लक्षण, छोरों के गुन छोरी ||9||
इस विकृत में कुदरत की भी,दिखे बड़ी लाचारी |
सृष्टि सिरजन में नर मादा,अलग तभी गुणकारी ||
एक ही तन नारी पौरुष गुण,मोल करें क्या भैया |
अधर में लटक अकटत भटकत, डगमग जीवन नैया ||10||
जीवन में जितनी खुशियां हैं,सब सहेज कर रखलो |
कड़वे मीठे रस भी जरूरी,दृढ़ संयम रख चख लो ||
फूल प्रति शाखों नित खिलते,क्या फल लगता डाली |
फल पकने से पहले झड़ता,क्या कर सकता माली ||11||
पल-पल मृत जीवन धिक्कारा, पाकर किन्नर काया |
अंदर से तो लड़की होती,तन लड़के का पाया ||
छक्का मामू सिक्सर व हिजड़ा, क्या-क्या नहीं कह देते |
अंतरात्मा छलनी होती,कटु बानी सह लेते ||12||
हो अन्न कपड़ा घर परिवार,अरु इज्जत की रोटी |
काश कहीं सुख की छोटी सी, इनकी दुनिया होती ||
शांतिमय अमिय बयार बहे,जले दर्द की होली |
व्यंग्य भरी मुस्कान न फेरे, अंतस्तल में गोली ||13 ||
कहीं भी दिख जाय विनयवत् ,इज्जत प्रेम दो बोलो |
यह तो निपट प्रेम की भूखी,दिल की खिड़की खोलो ||
शुक्र मनाते हम भगवन का,जो इंसान बनाया |
नर नारी स्वस्थ इंद्रियों,से धनवान बनाया ||14 ||
परिजन संग निवसत निज गृह, जीवन दुख सुख भोगे |
दौड़ पड़ोसी पूछने आते, गर घर में हँस रोदे ||
सखा बने अनगिन जीवन पथ, रहे चहेते बनकर |
शादी की परिवार बसाया, शान से चलते तनकर ||15 ||
अगर कहीं हम किन्नर होते, तो सोचो क्या होता ?
हम पर भी जुल्मों की ऑधी, इसी तरह दृढ़ होता ||
दर दर मत भटके इनको अब, सब दिल से अपनायें |
धिकमय जीवन पल छिन चुभता किन्नर व्यथा बतायें ||16 ||
सबकी खामी बहुत देख ली,खुद की कमियॉ खोजो |
तन की कमियॉ सबको खलती,मन में खामी हो तो ||
दर दर मत भटके इनको अब,सब दिल से अपनायें |
धिकमय जीवन पल छिन चुभता,किन्नर व्यथा बतायें ||17 ||
-डॉ. अशोक आकाश
बालोद
हृदय से आभार आदरणी चौहान जी
🌹🌹🌹🌹