किन्नर व्यथा भाग-1
-डॉ. अशोक आकाश
किन्नर व्यथा (सार छंद), भाग-1
आदिकाल जग अंतहीन दुख , अंतस कटु दुविधाएं |
धिक-धिक जीवन पल पल चुभते, किन्नर व्यथा बतायें ||
तन आधा मन मीरा राधा, मधुरिम स्वप्न अधूरे |
मानव होकर मान्य नहीं जो, क्यों यह न्याय अधूरे ||1।।
शिशु का क्या तृण दोष विधाता, गर्भ गहन त्रुटि कर दी |
जीवन दाता खंडित तन दे , क्लेष-दाह मन भर दी ||
गर्भ पालना करने वाली , ह्रदय-हीन क्षण कैसे |
जो इनके पथ कंटक चुनती, दिया गहन तम कैसे ||2।।
ममता का सागर मां भी जब, मूरत बन रह जाती |
लोक लाज भय नातों की दृढ़, मर्यादा ढह जाती ||
सपन सलोने देख-देख वह, खुशियां वरण किया था |
पल पल जिनकी आहट भाती, दुख सह जन्म दिया था ||3।।
देख लिंग विकृतियां कैसे, सूखा ममता सागर |
शोक समंदर डूबे जीते, सहते सदा अनादर ||
पागल अंधा लूला लंगड़ा, अपराधी स्वीकारें |
दृढ़ समाज ऐसे बच्चे क्यों, त्यागे सदा बिसारे | ।4।।
ये भी तो हैं अपने जाये, क्या अपराध हुआ है |
मरूभूमि भी जिनकी दुँआ से, पल आबाद हुआ है |
किन्नर समाज को झटपट क्यों, यह शिशु दे दी जाती |
जैसे पके अन्न खेतों से , चिड़िया खेदी जाती ||5।।
फट जाता ममता सुचि ऑचल ,चाह छोड़ दी जाती |
तुरत कलेजे के टुकड़े से , नजर फेर ली जाती ||
उनकी पीर और क्या समझे, जिन्हें न अपने भाये |
धिक-धिक जीवन पल पल चुभता, किन्नर व्यथा बतायें || 6।।
-डॉ. अशोक आकाश
बहुत सुंदर रचना आदरणीय…. बहुत बहुत बधाई…
धन्यवाद चुरेन्द्र जी
उत्कृष्ट रचना है भय्या जी बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति किन्नरों की व्यथा को भली भांति उकेरा है ।बहुत-बहुत बधाई