लघुकहानी: महेश की जुबान -रमेश चौहान

लघुकहानी -‘महेश की जुबान’

-रमेश चौहान

लघु कहानी -'महेश की जुबान'
लघु कहानी -‘महेश की जुबान’

यह कहानी मेरी पहली कहानी है जिसे में अपने विद्यार्थी जीवन में 1989 में लिखा था । अपनी इस पहली कहानी को संस्‍मरण के रूप में साझा कर रहा हूँ । कहानी की विषय-वस्‍तु तत्‍कालिक ज्‍वलंत समस्‍या ‘दहेज-प्रथा’ पर केन्द्रित है । आशा है मेरे इस प्रथम प्रयास को आपका प्‍यार जरूर मिलेगा ।

‘महेश की जुबान’

जाड़े का दिन और रात का समय । एक सुंदर सा सजा हुआ एक कमरा जहाँ कुमार और सरीता सो रहे थें । टीन ….टीन…. की आवाज सुनकर कुमार बिस्तर छोड़कर उठ खड़ा हुआ । कुमार सरीता को उठाते हुए कहाः ‘क्या तुम्हे याद नहीं जो आराम से सोए जा रही है ? सरीता आँख मलते हुए उठकर बोली- जी याद है- ‘आज कमला को देखने मेहमान आ रहे हैं फिर दोनों तैयारी में जुट गए ।


बैठक कमरें में कुमार और उसका नौकर अजीत सफाई कर रहे हैं । ‘अरे! टजीत अंदर से मेज निकाल ले आ ।’ कुमार ने व्यस्तता के स्वर में कहा । अजीत जी कहता हुआ अंदर प्रविष्ट हुआ । बैठक कमरा ऐसा लग रहा थ मानों स्वर्ग का कोई टुकड़ा हो । इंतिजार की ही बेला में द्वार पर किसी की कार रूकने की आवाज सुनाई दी । कुमार कार से उतरने वालों का स्वागत करके बैठक कमरे में लाया ।

रामस्वरूप अम्बापुरी इलाके के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं जो अपने पुत्र महेश के लिये कमला को देखने के वास्ते यहाँ पधारे हुए हैं ।

अंदर के दरवाजे से कमला चाय की ट्रे लिए हुए बैठक कमरे में दाखिल हुई । ट्रे को मेज पर रखकर सामने चेयर पर बैठ गयी ! बैठते ही कमला आँखे महेश की आँखों से जा टकराई । इधर कुमार और रामस्वरूप के मध्य चर्चा हो रही थी और उधर महेश और कमला एक दूसरे को आँखों ही आँखों स्वीकार रहे थे । कुमार और रामस्वरूप की चर्चा आखिर षादी की मंजूरी पर षर्त के साथ जा टिकी । षर्त था टिके की दस हजार रूपय । निर्णय को जब महेश सुना तो उसे अच्छा नहीं लगा किन्तु वह बड़ों की लिहाज करते हुए चुप्पी साध ली ।

कुमार को अब चैन नहीं था , वह हर पल सोचता आखिर लाऊँ तो लाऊँ कहाँ से दस हजार । आखिर परिवार वालों की सलाह से पैतृक सम्मपत्ती को बेच दिया केवल बारह हजार रूपय में । कुमार टीके की राशि अदा कर शादी को चार माह आगे किया क्योंकि शादी में दहेज की मांग जो किया गया था ।

समय के बितने में देर नहीं लगती आखिर दुख-सुख का मिला-जुला समय आ ही गया । कमला के शादी होने का सुख तो था किन्तु दहेज न जुटा पाने का दुख भी । कुमार सोच रहा कि दहेज के कारण शादी में विध्न तो न आ जाये !

आखिर वही हुआ जिसका डर था । रामस्वरूप बारात वापस ले जाना चाहा किन्तु इस बार महेश की चुप्पी टूट गई और वह अपने पिता से कह बैठे- ‘मैं आपका संपत्ती नहीं पुत्र हूँ पुत्र !’ मैं बिकने की वस्तु नहीं जो मोल किये जा रहे हैं । आप लोगों को जाना है तो जाइये मैं शादी करके ही जाऊँगा ।
कुमार के पैरों तलों से खिसकती हुई जमीन अब रामस्वरूप के पैरों तले खिसकने लगी । रामस्वरूप के मस्तिष्क में कहीं से ज्ञान विस्फोट हुआ तब कही जाके यह विवाह मंजूर हुआ ।

-रमेश चौहान

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