सुरता-लक्ष्मण मस्तुरिया के मन के पीरा के

सुरता-लक्ष्मण मस्तुरिया के मन के पीरा के
सुरता-लक्ष्मण मस्तुरिया के मन के पीरा के

लक्ष्मण मस्तुरियाजी मोर मन म नान्‍हेंपन ले बसे रहिन-

लइकापन के सुरता मन के कोनो कोंटा म अइसे माढ़े रहिथे जइसे रात के अंधियारी मा जुगनु चमकत होय । मोर नान्हेपन मा हमर गाँव मा बहुत कवि सम्मेलन होवय, बहुतझन कवि आवय । ओ नान्हेपन के कविसम्मेलन के सुरता ल टमरे मा मोला एके नाम मिलथे -लक्ष्मण मस्तुरिया । ओ जमाना रेडियों के रहिस रेडियों मा दिन-रात लक्ष्मण मस्तुरिया के गाना बाजत रहय ये पायके ओखर नाम दिल-दिमाग मा बस गे रहय । ओ बखत गीत के मीठास मा मन झूमय अर्थ-वर्थ कोती तो ध्याने नई जात रहिस न समझ आत रहिस, समझे के जरूरते का रहिस जब मन गदगद हो जत रहिस ।

सुरता ओ शरद पूर्णिमा के-

मोर जीवन मा ओ शरद पूर्णिमा के रात के चंदा के अंजोर कस आज ले बगरत हे जब 26 अक्टूबर 2015 के शरद पूर्णिमा के दिन जनकवि श्री कोदूराम दलित के पैतृक गाँव अर्जुनी टिकरी मा ‘‘पुन्नी तिहार, विमोचन अउ कवि सम्मेलन’ होहस जेमा दलितजी के बेटा श्री अरूण निमग के पुस्तक ‘छंद के छ’ के विमोचन होइस । अइसे विमोचन मंत्री के हाथ ले हो रहिस लेकिन मोर बर पुन्नी के चंदा लक्ष्मण मस्तुरियाजी ही रहिस जेला मैं नानपन ले देखत-सुनत आय रहेंव ,फेर दूरहिया ले । आल अतका लकठा रहेंव । ओखर संग यात्रा करना, ओखर आघु मा अपन कविता पढ़ना कोनो सरग के सपना के साकार होवब ले कम नई रहिस ।

लक्ष्मण मस्तुरिया जी के मन के पीरा के एहसास-

लक्ष्मण मस्तुरियाजी के संग दुर्ग ले टिकरी तक आवत-जावत संघरा करे गे यात्रा मा करे गे गोठ-बात, गाँव मा एके जगह बइठ के करे गे गोठ-बात हा नानपन ले अबतक ओखर गीत सुनइया मोर मन ला अलगे सुख पहुँचाइस । उन्खर संग ये मोर पहिली अउ आखरी संगत रहिस जेमा मोला उन्खर व्यक्तितत्व के दर्शन करे के सौभाग्य मिले रहिस । ये बखत उन्खर मन के पीरा ला महसूस करे ला मिलीस जेन अपन बर नहीं ये छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़ के संस्कृति बर छलकत रहिस । मैं उन्खर गीत के संदेश ला उन्खर जीवन मा उतरत महसूस करत रहेंव ।

लक्ष्मण मस्तुरियाजी के छत्‍तीसगढ़ी बर सर्मपण के सुरता-

सुने रहेंव उन्खर जन्म बिलासपुर के मस्तुरी नाम के गाँव मा (7 जून 1949 के) होय रहिस ये पायके ओ अपन नाम के संग ‘मस्तुरिया’ लिखथे। ये कोनो नानमुन बात नो हय 1960 के दशक मा जब ओ लेखन अउ गायन के क्षेत्र मा कदम रखिन होही तब तो समय जाति नाम खतम नई हो रहिस होही अइसन समय मा अपन जाति पहिचान ला अपन माटी के पहिचान बनाना, उन्खर ये माटी के प्रति लगाव अउ समर्पण ला देखाथे । धीरे-धीरे जब उन पूरा छत्तीसगढ़ के अउ छत्तीसगढ़ी के पहिचान बनगे त उनमन केवल छत्तीसगढ़ के संस्कृति ला जीये हे, येही संस्कृति के उपेक्षा मा उन्खर मन के अंदर बहुते पीरा रहिस, जेला मैं महसूस करेंव । जेन आदमी अपन सर्वस्व जेखर बर निछावर कर दे होय अउ उन्खर उपेक्षा होय त मन मा पीरा होना सहज हे ।

एकठन साक्षात्‍कार के सुरता-

मोला सुरता आथे ओखर एक साक्षात्कार जेमा उन्खर ले पूछे गे रहय- ‘गीत लिखइ अउ गवइ काम म कब ले भीड़े हव ?’ जेखर उत्तर मा मस्तुरियाजी कहे रहिन-‘‘वइसे तो 1960 ले गीत अउ कबिता लिखे के शुरू कर दे रहेंव। एकर बाद 1971 म इही बुता म पूरा रम गेंव। ओ समय कृष्ण रंजन, पवन दीवान अउ मैं ह शिक्षक रहेन। फेर मैं गुरुजी के नौकरी ल छोड़के ‘चंदैनी गोंदा’ मंच ले जुड़ेंव। एकर बाद मैं ह देवार डेरा के गीत ल सुधारे के काम करेंव। एकर अलावा कारी लोकनाट्य म घलो बहुत अकन गीत के सिरजन करेंव। ओ समय सबझन छत्तीसगढ़ी के सेवा निसुवारथ ढंग ले करय।’’

येही कड़ी के एक सवाल- पहली अउ अब के गाना म का बदलाव देखथव ? के जवाब मा मस्तुरियाजी के जवाब-‘बदलाव होय हे। पहली के गीत म संदेस रहय, लेकिन आजकल के गीत म संदेस तो छोड़ कुछ समझ घलो नई आय। आजकल धंधा जियादा होगे हे। गीत के नाम म काही ल पोरसत हे।’

लक्ष्मण मस्तुरियाजी के मन के पीरा के सवाल-

येही ओ सवाल हे जेन मस्तुरियाजी के मन मा पीरा भरत रहिस के ओ जमाना के आदमी अपन नौकरी-चाकरी छोड़ के छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़ी संस्कृति के रद्दा ला गढिन अउ आज केवल स्वार्थ मा छत्तीसगढ़ी संस्कृति संग खिलवाड़ करत हे । येही पीरा मोर दिल-दिमाग मा हे जेन ला मस्तुरियाजी कहत रहिन । उन्खर मन, उन आदमी के प्रति उदास रहिबे करिस जेन छत्तीसगढ़ी के नाम मा आँय-बाँय परोस के अपन पेट भरत हे, उन्खर मन शासन-सरकार ले घला खिन्न रहिस जेन छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़ी बर जीवन खपईया के उपेक्षा करत हें । छत्तीसगढ़ी संस्कृति ला बिगाड़ब मा ओमन सरकार ला बरोबर के दोषी मानत रहिन ।

लक्ष्मण मस्तुरियाजी ला सही मायने मा श्रद्धांजली तभे होही जब-

उन्खर रचना के यशगान तो सबो करत हे फेर उन्खर मन के पीरा ला कोन महसूस करत हे ? आज उन्खर ये दुनिया मा नई रहे के बादत उन्खर प्रति हमर सही मायने मा श्रद्धांजली तभे होही जब हम उन्खर मन के पीरा ला महसूस करी अउ निस्वार्थ भाव ले छत्तीसगढ़ी संस्कृति के विकास बर अपन रद्दा गढ़ी ।

-रमेश चौहान

येहू ल देख सकत हव-जनकवि कोदूराम ‘दलित’

श्रीमती शकुंतला तरार के दू-चारठन छत्‍तीसगढ़ी गीत

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