‘मैं’ व्यवहार से अध्यात्म तक-
‘मैं’ एक सर्वाधिक प्रचलित शब्द है, जो संस्कृत शब्द ‘अहम्’ का पर्यावाची है, जिसका अर्थ स्वयं या खुद होता है, जिसे अंग्रेजी में आई (I) कहते हैं । इस शब्द का प्रयोग जगत का हर मनुष्य करता ही करता है । ‘मैं’ का अर्थ उसी प्रकार सहज, सरल होते हुये भी व्यापक है, जिस प्रकार ईश्वर या ब्रह्म । जिस प्रकार प्राणदायनी वायु की सहज उपलब्धता का व्यापीकरण हैं, ठीक उसी प्रकार ‘मैं’ सहज प्रचलन में होते हुये भी व्यापक है ।
प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को विभिन्न रूपों में मानता है, जानता है, और अपनी मान्यता के आधार पर अपने आप का प्रस्तुत करता है । यह मान्यता ठीक उसी प्रकार है जिसके लिये रामचरित मनास में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी
व्यक्ति अपनी मान्यता, अपनी वैचारिक स्थिति के अनुरूप ही अपने आपको को मानता और जानता है । जहॉं अपने आप को मानना व्यवहार कहलाता है तो वहीं अपने आप को जानना अध्यात्म ।
‘मैं’ की विभिन्न मान्यता-
‘मैं’ के संबंध में लोगों की विभिन्न मान्यताओं का अनुभव होता है । इन मान्यताओं का सारांश लेने पर मुख्य रूप से तीन मान्यताऍं स्पष्ट होती है-
- ‘मैं’ -देहवाची
- ‘मैं’ जीववाची
- ‘मैं’ आत्मावाची
‘मैं-देहवाची’-
‘मैं-देहवाची’ मान्यता के अनुसार लोग अपने आप काे देह मानता है और अपना परिचय एक देह के रूप में ही देता है । जब कोई कहता है-‘मैं फला हूँ ।’ तो वह अपने देह का ही परिचय दे रहा होता है । आखिर व्यक्ति का नामकरण, एक देह का ही नामकरण तो है । उस देह का परिचय ही एक नाम के रूप में होता है । इसी के आधार पर लोग एक-दूसरे का परिचय पाते हैं । लोग अपना परिचय एक देह के रूप देते हुये कहते हैं मैं फलां हूँ, मेरे पिता अमूख है, मैं फलां गांव, मोहल्ला, शहर में रहता हूॅ । वह ऐसा भी कहता है यह मेरी देह है । और फिर अपने देह के विभिन्न अंगों को अपना कहता है जैसे- मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरी ऑंखें आदि ।
इसके पश्चात इन अंगों से ग्राह्य वस्तु को अपना कहता है मेरा घर, मेरा परिवार, आदि । इससे उसमें अभिमान जागृत हाेने लगता है और वह कहने लगता है- ‘मैं’ फला हूँ ।’ ‘मैं कौन हूँ तू जानता नहीं है ?’ मैं धनवान हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं पहुँच वाला हूँ आदि-आदि । ‘मैं’ -देहवाची ही अहम, गुमान अभिमान का परिचायक है । इसी कारण इस मत के समर्थक नास्तिक भी होते हैं ।
‘मैं’ -देहवाची- भौतिकवादी-
‘मैं-देहवाची’ मान्यता वाले लोगों का जीवन केवल और केवल देह के लिये होता । अपनी देह की तृष्णापूर्ति करना ही इनका मुख्य उद्देश्य होता है । अपनी उदरपूर्ति, वासनापूर्ति, इच्छापूर्ति के लिये देह को समर्पित कर देता है । इन सबकी पूर्ति केवल भौतिक संसाधनों से ही संभव है इसलिये भौतिक वस्तुओं का संचय करना इनकी प्रमुख प्रवृत्ति होती है इसलिये इन्हें भौतिकवादी भी कहते हैं । भौतिक को ही जगत, प्रपंच, संसार आदि कहते हैं इसलिये इन्हें सांसारिक भी कहा जाता है । यह प्रवृत्ति आमतौर पर अधिकांश लोगों में पाया जाता है, इसलिये यह ‘मैं’ का व्यवहारिक निरूपण है ।
‘मैं-देहवाची’ मान्यता वालों का प्रमुख लक्ष्ण-
- ‘मैं-देहवाची’ के लिये सर्वस्व देह ही है । इसलिये ऐसे लोग सबसे पहले अपनी देह और देह जनित वस्तुओं को ही महत्व देते हैं । इसके बाद ही अपनी देह की संतुष्टि के सापेक्ष ही दूसरे लोगों से संबंध, रिश्ता, नातेदारी स्थापित करते हैं, परिश्रम करते हैं, व्यसाय करते हैं, उद्यम करते हैं ।
- ‘मैं-देहवाची’ मेरा से प्रेम करता है । वह उसे मेरा मानता है जिससे उसका देहाभिमान की पुष्टि हो । इसलिये ऐसे लोग पहले ‘मैं’ खुद फिर मेरा देह का सौंदर्य, फिर मेरा परिवार और अंत में मेरा समाज कहते हैं ।
- ”मैं-देहवाची’ मान्यता वालों में अधिकांश लोग किसी और सत्ता को स्वीकार नहीं करते अर्थात ऐसे लोग ईश्वर की सत्ता, धार्मिक मान्यताओं एवं सांस्कृतिक मूल्यों को चुनौती देते रहते हैं ।
- ऐसे लोगों के लिये जीवन का अर्थ केवल भौतिक संसाधनों के उपभोग से दैहिक सुख प्राप्त करना होता है ।
- ऐसे लोगों के लिये कर्म का अर्थ केवल धनार्जन के लिये किया गया एक उद्यम मात्र होता है ।
‘मैं’ जीववाची-
‘मैं’ जीववाची का प्रयोग तब होता है जब व्यक्ति अपने आप को केवल एक देह न मानकर अपने आप को जीव मानता है । जहॉ मनुष्य का देह स्थूल शरीर होता हैं वहीं जीव मनुष्य का सूक्ष्म शरीर । मनुष्य का देह तबतक जीवित रहता है जब तक स्थूल शरीर देह में सूक्ष्म शरीर जीव का अस्तित्व होता है । जीव के न रहने पर स्थूल शरीर का अस्तित्व नष्ट हो जाता है किन्तु सूक्ष्म शरीर जीव का अस्तित्व नष्ट नहीं होता । इसलिये इस मान्यता के लोग पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं । इनकी यह मान्यता होती है लोग मृत्यु के बाद भी कर्म भोग प्राप्त करते हैं इसी के सापेक्ष स्वर्ग और नर्क की मान्यता अवलंबित है । ऐसे लोग देह को नश्वर और जीव को शाश्वत स्वीकार करते हैं ।
‘मैं’ -जीववाची-आस्थावादी-
‘मैं-जीववाची’ मान्यता वाले यह स्वीकार करते हैं कि-‘क्षिति जल पावक गंगन समीरा । पंच रचित यह अधम शरीरा’ अर्थात हमारा शरीर मिट्टी, जल, अग्नि, आकाश और वायु पॉंच तत्व से तत्वों से मिलकर बना है जो नश्वर है । रक्त-मज्जा, त्वचा-हड्डी का ढांचा है जिसमें मल-मूत्र पड़ा रहता है, इस कारण यह अधम है । फिर ये लोग स्वीकार करते हैं कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सुख राशी।’ यह जीव उस ईश्वर का अंश है, जो अविनाशी, चेतन और सहज ही सुख देने वाला है । इस मान्यता पर ऐसे लोगों की गहरी आस्था भी होती है । इसलिये ये लोग आस्थावादी होते हैं । यह आस्था ईश्वर के साकरा स्वरूप पर भी हो सकता है और निराकर पर भी किन्तु नास्तिक कदापि नहीं होते ।
‘मैं-जीववाची’ मान्यता वालों का प्रमुख लक्षण –
- मैं-जीववाची’ वालों को उनका देह सर्वस्व न होकर कर्म सर्वस्व होता है । इस मान्यता के बल पर ही ‘कर्म प्रधान विश्व कर राखा ।’ कहा जाता है । कर्म को पाप कर्म और पुण्य कर्म में बांट कर पुण्य की अपेक्षा से कर्म किया जाता है ।
- कर्म केवल शारीरिक परिश्रम न होकर मानसिक, चारित्रिक उद्यम से लिया जाता है । जिस कर्म के करने प्राणीमात्र सुख, संतोष प्राप्त हो पुण्य कर्म, जिस कर्म से प्राणी मात्र को दुख और क्लेष हो पाप कर्म कहलाता है ।
- पुण्य द्योतक कर्म को ही सतकर्म कहते हैं । कर्म निर्धारक घटक को ही धर्म की संज्ञा दी जाती है और धर्म अनुरूप कर्म करने की अपेक्षा की जाती है ।
- कुछ लोग जहॉं पूजा-पाठ की पद्यति को धर्म समझते हैं वहीं अधिकांश लोग कर्म निर्धारक तत्व को धर्म मानते हैं ।
- ऐसे लोगों में धार्मिक मूल्यों पर गहर आस्था होती है ।
- इस मान्यता में एक वर्ग ऐसा भी है जो जीववाची ‘मैं’ को अध्यात्म कहते हैं ।
‘मैं’ आत्मावाची –
आत्मावाची ‘मैं’ का प्रयोग तब होता जब मनुष्य अपने आप को देह, जीव से परे आत्मा के रूप में स्वीकार करता है । कुछ महापुरूष ‘मैं’ को आत्मा से भिन्न स्वतंत्र सत्ता के रूप में भी स्वीकार करते हैं । ऐसे महापुरूष ‘मैं’ को ब्रह्म निरूपित करते जिसके लिये कहा गया है-
व्यापक व्याप्य अखंड अनंता । अनुभवगम्य भजहिं जेहि संता
अर्थात ‘मैं’ आत्मा भगवान व्यापक, व्याप्य, अखंड और अनंत है इस अनुभव से जाना जा सकता है । संतजन इसी उद्यम में लगे रहते जो ‘मैं’ जो ब्रहम अखंड, अनंत, व्यापक होकर, देह और जीव में व्याप्य है । देह जीव में व्याप्त उस ‘मैं’ को स्वतंत्र सत्ता के रूप में किस प्रकार अनुभव करें ।
‘मैं’ आत्मावाची -अध्यात्मवादी-
खुद को जानना, खुद को पहचानना ही अध्यात्म है । वास्तव में ‘मैं’ कौन हूँ ? क्या ‘मैं’ देह हूँ ?, ‘मैं’ जीव हूँ ? या और कुछ । अपने आप को कुछ मानना अलग बात है और अपने आप को कुछ जानना अलग । अपने आप को किसी कहने पर कुछ माना जा सकता है किन्तु अपने आप को किसी के कहने पर नहीं अपितु स्वयं के उद्यम से जाना जा सकता है । भारतीय चिंतन के इतिहास असंख्य महापुरूष हुये जो अपने आप को जाने और स्वयं को स्वयं जानकर औरों को जानने में सहयोगी हुये । आत्म अवलोकन करना, निज पहचान करना, मैं को जानना ही अध्यात्म है ।
‘मैं’ आत्मावाची के प्रमुख लक्षण-
- इस मान्यता के संत स्वयं संसार में रहते हुये अपने आप को संसार उसी प्रकार दूर रखते हैं जिसप्रकार कमल पत्र जल में तो रहता है किन्तु जल लोटता नहीं । अर्थात ऐसे लोगों में निर्लिप्ता का भाव प्रमख होता है ।
- ऐसे लोगों के लिये सुख-दुख, पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म, द्वेश-राग आदि एक समान होते हैं ।
- ऐसे लोग ईश्वरी सत्ता को न ही चुनौती देते न ही स्वीकार करते अपितु ब्रह्म -मैं’ को ईश्वरी सत्ता से पृथ्क सत्ता मानते हैं ।
- ऐसे लोग आत्मनिष्ठ होकर आत्मबोध का या तो अनुभव करते हैं अथवा अनुभव करने का सतत् प्रयास करते हैं ।
- ऐसे लोग स्वयं ‘मैं’ को ब्रह्म मानते ही मानते हैं साथ देहवाची ‘मैं’ और जीववाची ‘मैं’ कहने वाले ‘मैं’ को ब्रह्म मानते हैं ।
-रमेश चौहान