मानवता धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का अभिन्‍न अंग है

मानवता धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का अभिन्‍न अंग है
मानवता धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का अभिन्‍न अंग है

मानवता धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का अभिन्‍न अंग है

धर्म-

धर्म एक व्‍यापक शब्‍द है जिसके लिये कहा गया है-‘धारयति इति धर्म:’ अर्थात जिसे धारण किया जाये उसे धर्म कहते हैं । अब सवाल उठता है इसे कहां और कैसे धारण किया जाये । धर्म का धारण करने का स्‍‍थान अंत:करण है । इसे अंत:करण में धारण किया जाता है । विचारों को व्‍यवहारिक रूप से जिया जाता है । धर्म कोई पूजा की वस्‍तु न होकर जीवन जीने की शैली का नाम है ।

धर्म, Religion से भिन्‍न है-

समान्‍यत: धर्म के लिये अंग्रेजी में Religion शब्‍द प्रयोग में लाई जाती है किन्‍तु यह धर्म का साधारण अर्थ क्‍या अभिप्राय को भी स्‍पष्‍ट नहीं करता । Religion का अर्थ आस्‍था, विश्‍वास या मत होता है, जिसके लिये हिन्‍दी में मतानुनायी या संप्रदाय है । संप्रदाय किसी पूजा-पद्यति, रीति-रिवाज का पक्षधर हो सकता है धर्म नहीं । संप्रदाय सामूहिक होता है धर्म व्‍यक्तिगत ।

धर्म की परिभाषा-

धर्म का एक विशिष्ठि एवं व्‍यापक अर्थ होता है, इसे कई प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है समान्‍य रूप से धर्म की परिभाषा इस प्रकार दी जाती है –

यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।

अर्थात जिससे लौकिक और पारलौकिक जीवन का उत्‍थान हो, जिससे जीवन की श्रेष्‍ठता सिद्ध हो उस साधन को ही धर्म कहते हैं ।

धर्म के लक्षण-

धर्म के दस लक्षण कहे गये हैं-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥

अर्थात धृति, क्षमा, दम,अस्‍तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्‍य और अक्रोध ये दस लक्षण धर्म के होते हैं ।

धर्म से क्‍या धारण करना चाहिये-

धर्म केे जो लक्षण कहे गयें हैं इन्‍हीं लाक्ष्‍णिक गुणों को धारण करना चाहिये-

  • धृति- धृति का अर्थ धैर्य होता है । हमें धैर्य और धीरज धारण करना चाहिये ।
  • क्षमा-धर्म हमें क्षमाशील होने को कहता है, अस्‍तु हमें क्षमा को धारण करना चाहिये ।
  • दम- दम अर्थात अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिये । वासना का अर्थ इच्‍छा होता है । हमें मानसिक वासनाओं और इन्द्रियगत वासनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिये ।
  • अस्‍तेय- अस्‍तेय अर्थात दूसरों की वस्‍तु पर बुरी नजर न रखना । दूसरों की वस्‍तु पर किसी प्रकार से अधिकार करने की चेष्‍टा न करना । दूसरों की वस्‍तु को बल पूर्वक या छल से ग्रहण करने का प्रयास नहीं करना चाहिये । साधरण भाषा में चोर न करना ।
  • शौच-मन और तन दोनों शुद्धिता बनाये रखना । मानसिक रूप से विचारों में शद्धता, शारीरिक रूप से देह की साफ-सफाई देह में धारण करने वाले वस्‍तुओं की सफाई रखनी चाहिये ।
  • इन्द्रिय निग्रहण- इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना न कि इन्द्रियों का स्‍वयं दास होना । हमें इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिये ।
  • धी- धी का अर्थ बुद्धि होता है अर्थात हमें बुद्धिमत्‍ता को धारण करना चाहिये ।
  • विद्या-अधिक से अधिक जानकारी रखना ज्ञान रखना, जीवनभर सीखते रहना चाहिये ।
  • सत्‍य-सत्‍य को धारण करना । मन, वचन और कर्म से सत्‍य का पालन करना चाहिये ।
  • अक्रोध- क्रोध न करना । हमें क्रोध नहीं करना चाहिये ।

क्‍या करें और क्‍या न करें का निर्धारक है धर्म-

जीवन में हमें क्‍या करना चाहिये और क्‍या नहीं करना चाहिये इस बात का निर्धारण कैसे किया जाये ? इस संकट का निदान केवल और केवल धर्म ही करता है । धर्म, कर्म का निर्धारक है और कर्म जीवन और जीवन के बाद भाग्‍य का निर्धारक है । ‘कर्म प्रधान विश्‍व करि राखा, जो जस करही सो फल चाखा’ और ‘कर्मण्‍ये वाधिकारस्‍ते’ का उद्घोष हमें कर्म करनी की शिक्षा देती है । लेकिन कर्म कैसे हो ? नि:संदेह धर्म के अनुकूल ही हमें कर्म करना चाहिये ।

समय और व्‍यक्ति के अनुरूप धर्म भिन्‍न-भिन्‍न हो सकता है-

धर्म अटल होते हुये भी लचिला है । प्रत्‍येक प्राणी का धर्म समय विशेष पर भिन्‍न-भिन्‍न होता है । यही कारण है कि जब कोई व्‍यक्ति किसी समय क्‍या करें या क्‍या न करें इसका फैसला नहीं कर पाता तो कहता है – ‘धर्म संकट है।’ यहां धर्म संकट है, इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि धर्म को कोई संकट है । इसका अभिप्राय तो यह होता है कि उस व्‍यक्ति को संकट है । उसको संकट है कि किस धर्म का पालन करें और किस धर्म का पालन न करे । अर्थात एक से अधिक करने योग्‍य कर्म में से किस कर्म का चयन करे । समय विशेष पर जिस कर्म को करना चाहिये उस समय उस व्‍यक्ति के लिये वही धर्म होगा । करने योग्‍य कर्म को धर्म ने पुण्‍य की संज्ञा दी गई है और न करने योग्‍य कर्म को पाप कहा गया है ।

धर्म, कर्म करने की वरियता निर्धारित करता है-

किसी की हत्‍या करना धर्म के अनुसार पाप है और किसी की प्राण रक्षा करना पुण्‍य । किसी समय किसी व्‍यक्ति के प्राण रक्षा करने के लिये किसी की हत्‍या करना पड़े तो वह क्‍या करें ? यही धर्म संकट है । धर्म, कर्म करने की वरियता निर्धारित करता है । इसलिये समय विशेष पर व्‍यक्ति विशेष का धर्म अलग-अलग होता है ।

धर्म पूजा पद्यति न होकर कर्म करने का उद्घोषक है-

समाज में यह भ्रांति देखने को मिलता है कि पूजा पद्यति का नाम ही धर्म है । यह कतई सत्‍य नहीं है । धर्म की सही व्‍याख्‍या समझनी है तो हमें गीता का अध्‍ययन करना चाहिये । गीता पूजा करने की नहींं कर्म करने की शिक्षा देेेेेती है । हमें धार्मिक ग्रंथोंं का अध्‍ययन इसिलये करना चाहिये ताकि हम धर्म को अच्‍छे से समझ सकें । यहां धर्म को समझने से तात्‍पर्य केवल इतना है कि हमें उस कर्म का ज्ञान होना चाहिये जिसे परिस्थिति और समय के अनुरूप करना चाहिये । क्‍योंकि धर्म कर्म करने का उद्घोषक है ।

मानवता-

विश्‍व में प्रेम शांति, सौहार्द के लिये मनुष्‍यों में मानवीय गुणों का होना ही मानवता कहलाती है । मानवीय गुण इस प्रकार स्‍वीकार किये गये हैं-

  • प्रेम– मनुष्‍यों को एक-दूसरों से प्रेम करना चाहिये ।
  • दया– एक मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य के प्रति दया भाव रखे ।
  • सहनि‍शीलता– मनुष्‍यों को सहनशिल होना चाहिये ।
  • सौहार्द– मनुष्‍य एक-दूसरों के प्रति सम्‍मान का भाव रखें ।
  • सत्‍य– मनुष्‍य सत्‍यग्राही एवं सत्‍यवादी हो ।
  • विवेकशील-मनुष्‍य को विवेकशील होना चाहिये । किसी के बहकावें न आकर सही-गलत का स्‍वयं निर्णय करना चाहिये ।

मानवता को धर्म से भिन्‍न दिखाने की कुचेष्‍टा-

मानवता शब्‍द आज कल ट्रेण्‍ड कर रहा है । अपने आप को बुद्धिजीवी समझने वाले लोग अपने आप को को धर्म रहित मानवतावादी घोषित करते हुये मानवता को धर्म से भिन्‍न दिखाने की कुचेष्‍टा करते हैं जिस प्रकार हमारे देश की राजनीति में राजनेता अपने आप को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की कुचेष्‍टा करते हैं । मानवता शब्‍द का व्‍यापक से व्‍यापक अर्थ केवल इतना ही है कि ‘ मनुष्‍य का जीवन मनुष्‍य के लिये हो ।’ जबकि धर्म केवल मानव ही नहीं प्राणीमात्र की सेवा का संदेश देती है ।

मानवता, धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का अभिन्‍न अंग-

मानवता कहता है मनुष्‍यों की सेवा करो, ऊॅँच-नीच, भेद-भाव रहित, मनुष्‍यों का सहयोग करो । धर्म का कथन है ऊॅँच-नीच के भेद-भाव रहित प्राणी-मात्र की रक्षा और सेवा करो । तो क्‍या मनुष्‍य प्राणी नहीं है । मानवता के बिना धर्म और धर्म के बिना मानवता अपने-अपने अर्थ ही खो देंगे । मानवता धर्मरूपी तरूवर की शाखायें मात्र हैं । मानवता के लक्षण को ध्‍यान से देखें और समझें तो आप पायेंगे कि धर्म के लक्षणों को ही मानवता का लक्षण मान लिया गया है । जब दोनों के लक्षण एक समान है तो दोनों में भिन्‍नता कैसे ? वस्‍तुत: मानवता, धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का ही अभिन्‍न अंग है ।

मानवता को धर्म से भिन्‍न दिखाने का प्रयास क्‍यों ?

मानवता को धर्म से भिन्‍न दिखाने के केवल और केवल एक ही कारण है मानसिक दासता । मुगल शासन से लेकर अंग्रेज शासन तक सभी ने हमारे संस्‍कार और शिक्षानीति को नष्‍ट करने का भरपूर प्रयास किया इसी प्रयास की परिणिति आज तक हमें मानसिक रूप से दास बनाये हुयें हैं । आजादी के पश्‍चात छद्म धर्मनिरपेक्षता इन मानसिक दासों को जंजीर में कैद कर लिये हैं । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किसी संप्रदाय विशेष की बुराई को ताकते रहते हैं और ऑंख दिखाते रहते है, वहींं यही लोग दूसरें संप्रदाय की बुराई न दिखें इसलिये ऑंख मूंद लेते हैं । केवल ऐसे लोग मानवता को धर्म से भिन्‍न दिखाने की कुचेष्‍टा कर रहे हैं जिसे अपने संप्रदाय, अपनी संस्‍कृति और अपने संस्‍कार को दूसरों की तुलना में दोयम दर्जे का समझने का भूल कर रहे हैं ।

धर्म नहीं धर्म के अनुपालक बुरा हो सकता है-

धर्म केवल मानव ही नहीं प्राणीमात्र की सेवा का संदेश देती है, ये अलग बात है कि अनुपालक कितना अनुपालन करते हैं, इसमें अनुपालक दोषी हो सकता है, धर्म कदापि नहीं । मानवतावादी का व्यवहारिक पक्ष भी कोई दोष रहित है ऐसा भी नहीं है इसका अर्थ मानवतावाद बुरा है?? नहीं, कदापि नहीं । तो धर्म बुरा कैसे? धर्म में बुराई कैसी ? सारी बुराई तो अनुनायी, अनुपालकों की है । यदि कोई पूजा पद्यती को धर्म समझता है तो उसे धर्म को और समझने की जरुरत है ।

धर्म तो व्‍यापक है साधारण कथायें ही हमें समता का संदेश देती हैं-

हमारे अराध्य राम द्वारा शवरी का जुठन खाना, कृष्ण का ग्वालों का जूठन खाना, कृष्ण का दमयंती से विवाह करना आदि हमें छुवाछूत, ऊंच नीच का संदेश तो कदापि नहीं देती । धर्म अमर है धर्म न कभी नष्ट हुआ है और न ही होगा । उतार-चढ़ाव अवश्य संभावी है ।

हमारा प्रयास प्रतिशोधात्मक न होकर संशोधनात्मक और समानता परक होना चाहिए-

हमें धर्म के बजाये उन अनुपालकों को लक्ष्य करना चाहिए जिसके कारण धर्म में दोष का भ्रम होता है । ऐसा करते समय यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि दलित, पिछड़ा, उच्च वर्ग सभी एक समान मानव और मानवता के अधिकारी हैं, ये शब्द ही विभाजक हैं । धर्म न सही मानवता की स्थापना के लिए भी इन शब्दों के साथ जातिसूचक शब्दों का भी विलोप होना चाहिए । हमारा प्रयास प्रतिशोधात्मक न होकर संशोधनात्मक और समानता परक होना चाहिए । यदि हम सचमुच में यथार्थ मानवता लाने में सफल होते हैं तो यथार्थ धर्म भी स्थापित कर लेंगे क्योंकि मानवता धर्म का अभिन्न अंग है ।

-रमेश चौहान


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