लघु व्‍यंग्‍य: मर्म के बहाने-प्रोफेसर अर्जुन दूबे

लघु व्‍यंग्‍य: मर्म के बहाने

-प्रोफेसर अर्जुन दूबे

marm ke bahane
marm ke bahane

बोली बड़ी या पंथ?

क्या बोल रहे हो भईया ? मुझे रास्ता बता देने की कृपा करें

अच्छा, यह परदेशी लगता है. वह कैसे? इसकी बोली अलग है, यह भावपूर्वक विनीत होकर हाव भाव व्यक्त करते हुए कुछ पूछ रहा है। हां,लगता तो यही है.चलो अच्छा हैं कि प्रकृति अथवा भगवान कहे, ने बिना बोली के भी हावभाव (Non-verbal) द्वारा मन के भाव, इच्छा भाव, शरीर के भाव को व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति एवं क्षमता प्रदान की है.शत शत नमन!

वह कुछ कह रहा/रही है, सुन रहे हो न! ध्वनि सुन रहा हूं, कान सक्षम है ध्वनि को चेतन मन तक पहुंचाने में,लेकिन ध्वनि को अर्थयुक्त वाणी में रूपांतरित करने में सक्षम नहीं हूं.सक्षम होने पर क्या करते!उसी अनुसार उत्तर दे देता.वाणी का उत्तर वाणी से!अद्भुत!

फिर वाणी को शब्द रुप में पिरोकर रस और सौंदर्य से परिपूर्ण कर देता.वाह क्या बात है!

एक बात अब मेरे समझ में आ रही कि वाणी जो भाषा का रूप लेती है वही तो प्रमुख है,चाहे ज्ञान चर्चा करनी हो,कहीं भी काम करना हो, मतभेद होने पर मसले को सुलझाना हो,अथवा बटवारा करना हो!हां भाई,शत प्रतिशत सही बोल रहे हैं. तो फिर पंथ कहां से प्रकट होकर भाषा को ही निगल गया, निगल रहा है और निगलता रहेगा!

तुम्हारा मतलब क्या है कहने का? अखंड भारत का बटवारा पंथ के आधार पर क्यों हुआ,जबकि बोली/भाषा में अनेकों पंथ समाये हुए है! आगे भी लगता है भाषा संक्रमण काल से गुजरते हुए पंथ को समर्पित करते हुए उसी में विलीन हो जायेगी! भाषा तो रहेगी, रूप मे भले ही परिवर्तन होता रहे.पंथ क्या है, आज है कल बदल जायेगा अथवा नहीं भी रहेगा।
सर्व कल्याण हो!

कर्म-धर्म का मर्म:

गीता ज्ञान तो यही है कि कर्म करो फल की आशा मत करो.बहुत मुश्किल है फल की आशा नहीं करना. मानव है तो माया है, माया में ही आशा-निराशा है।

आशा नही तो जीवन के पथ पर आशा से निरपेक्ष होकर चलना कठिन है । विद्यार्थी परीक्षा देने के बाद परिणाम की आशा करता है, कर्मचारी काम के बदले परिश्रमिक /वेतन की आशा करता है, सन्यासी भी मोक्ष की आशा लिए रमा रहता है, किसान खेती से फसल की आशा करता है; कौन है जो आशा नहीं करता है? फिर भी श्रीकृष्ण ने कहा है तो कुछ तो है.आशा निराशा हमारे ही भाव है, एक में अतिउत्साह में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना किंतु दूसरे में जगत ही मिथ्या है । जगत में रहते हुए जगत को ही मिथ्या समझना!

धर्म की हानि होगी तो मैं जन्म लूंगा ही! कौन से धर्म की हानि ? वही धर्म जो तुम्हारा कर्म है । शासक का धर्म प्रजा हित में कर्म करना है और उदाहरण प्रस्तुत करना है.नौकरशाही का धर्म प्रजा के लिए कर्म करना है अर्थात दायित्वों का धर्म पूर्वक निर्वहन करना है.नेकी कर दरिया में डाल, यह धर्म है । दूसरे का कर्म मत देखो अपना ही करो, नहीं तो निष्काम नहीं रह पाओगे!

उपरोक्त मेरे निजी विचार हैं, टिप्पणियां आमंत्रित हैं.
सर्व कल्याण हो!

-प्रोफेसर अर्जुन दूबे

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