मेरा दृष्टिकोण:शब्द सौंदर्य, साहित्य के दर्पण में
-प्रो. अर्जुन दूबे
यह चित्र तो अनुपम है, इसकी खूबसूरती इतनी है कि लगता है कि यह अभी बोल पड़ेगी! मन करता है कि इसे मैं अपलक निहारता रहूं! महान कवि कालिदास के मालविकाग्निमित्रम में तभी तो अग्निमित्र मालविका के चित्र से प्रेम कर बैठे थे । चित्र अद्वितीय रहा होगा, किंतु अब कहां है! न तो चित्र है और न ही चित्र के प्रति सम्मोहित समर्पित चरित्र । चरित्र तो नाशवान है और चित्र भी धूमिल होकर, जर्जर होकर पता नहीं कहां नष्ट हो गया होगा! कितना सुरक्षित और संरक्षित करेगा मानव? तकनीकि ने मोनालिसा को तो किया है! पर कितने सहर्स वर्ष तक ?
पत्थर की ही मूर्ति ऐसी बनायेंगें कि यह दीर्घकाल तक तुम्हें, कला कृति के रूप में जैसे अजंता एलोरा की गुफाओं में है, आकर्षित करती रहेगी, इसका सौंदर्य ऐसा होगा कि तुम बरबस खिंचें चले जाओगे क्योंकि ऐसा प्रतीत होगा कि यह तुमसे संवाद करना चाहती है । पर उसका क्या होगा जब इसका ही क्षरण होने लगेगा क्योकि यह तो एक पदार्थ है, जिसका क्षरण होता ही रहेगा, नहीं कुछ तो कोई इसे तोड़ देगा!
हां ,ठीक कह रहे हो.एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सौंदर्य को निहारने के लिये तो आंखे चाहिए;श्रृगांर करने के लिए भी आंखे चाहिए तभी तो मैं भी देख सकूंगी कि मेरा सौंदर्य कैसा है? आंखे नहीं पिया की तो ‘केकरा खातिर करी श्रृंगार जब पिया मोरे आन्हर’! गांधारी की यही पीड़ा रही होगी!
सौंदर्य की चाहत और सौंदर्य वर्णन शाश्वत है । मानव और उसकी बनायी रचना चाहे चित्र हो अथवा मूर्ति नश्वर है किंतु शब्द, भाषा कोई भी हो, जब तक सृष्टि है विभिन्न रूपों में रहेगें ही । शब्द में ही सौंदर्य निहित हो जाते हैं चाहे आंखें हो अथवा नहीं! बस शब्द की ध्वनि सुनाई दे!
कल्पना को शब्द में कैसे रूपांतरित करते है महान कवि कालिदास मेघदूतम में मेघ से कुबेर द्वारा निष्काशित एक यक्ष जो अपनी प्रियतमा के विरह मैं जल रहा था संदेश देने के लिए अलकापुरी जाने को कहता है; उसकी प्रियतमा का रूप कैसा है का सौंदर्य वर्णन अद्वितीय है । उसके रूप को वर्षा की बूंदे, चांदनी रात की छटायें, अरूण की रश्मियां और वायु के झोंके उसके वस्त्र को हिला हिला कर उसके सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं ।
बिना सौंदर्य के भाषा और साहित्य का वजूद कैसा? इसी लिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी मानस के आरंभ में ही वर्ण और वर्ण समूह के द्वारा अर्थ निकलने की बात करते हैं किंतु रस और छंद के बिना साहित्य कैसा? “वर्णानाम् अर्थ संघानाम्,रसानाम् छंद सामपि,मंगलानाम् च कर्तारौ, वंदे वाणी विनायकौ”; शब्द हैं तो चिरकाल तक सौंदर्य वर्णन से कौन रोक पायेगा?
आदि कवि ऋषि वाल्मीकि जी द्वारा किये हुए सौंदर्य वर्णन मे चाहत का भाव ,कामेच्छा ,कहीं कहीं परिलक्षित होता हैँ, रानी कैकेयी अपनी धाय मंथरा से राम के विरूद्ध नहीं होने के लिए उसी के बारे में कहती है- “अधस्ताच्चोदरं शांतं सुनाभमिल लज्जितम, प्रतिपूर्णं च जघनं सुपीनो च पयोधरी”.तेरा जघन विस्तृत है और दोनो स्तन सुंदर और स्थूल है । पुन: कहती हैं कि, जघनं तव निर्मृष्टं रशनादामभूषितम।” तेरी कटि का अग्र भाग बहुत ही स्वच्छ-रोमादि से रहित है । इसी प्रकार रामायण में अनेक स्थानों पर आदिकवि द्वारा स्त्री सौंदर्य वर्णन मे कामेच्छा का भाव बरबस प्रस्फुटित हो जाता है।
गोस्वामी जी ध्वनि के माध्यम से ही सौंदर्य महिमा बखान करते हुए शब्द रुप में व्यक्त करते हैं, “कंकन किंकिन नुपूर धुनि सुनि ,कहत लखन सम राम हृदय गुुनी, मानहु मदन दुंदुभी दीन्ही, मनसा विश्व विजय कर कीन्हि। अभी तक उन्होने देवी सीता के रूप को देखा नही है, मात्र नुपूर की ध्वनि ने उन्हें कल्पना में खींच लिया है ।
स्वयंवर में देवी सीता का रूप ऐसा है,”रंग मंच जब सिय पगु धारी, देखि रूप मोहे नर नारी”. यह शब्द ही हैं जो रूप को तराशते हुए पटल पर प्रस्तुत करते हैं ।
श्रीराम के बारे में वनवास के समय गांव की नारियां देवी सीता से पूछती हैं, वे तुम्हारे कौन है जिनके ललाट चौड़े है, कवितावली में गोस्वामी जी के शब्द
“सीस जटा उर बाहु विशाल विलोचन लाल तिरछि सी मोहे,
पूछति ग्राम वधू सिय सो, कहौ, सांवरे से सखि रावरे को है!”
बरबस पाठक के हृदय में सुंदर भाव उत्पन्न करते हैं जिसमें सौंदर्य है कामेच्छा नहीं।
तब देवी सीता बिना कहे ,तिरछे करि नैन दे सैन तिन्हें ,समुझाई कछु मुसुकाई चली । शब्द ने ही सौंदर्य भाव व्यक्त कर दिया !
पश्चिम में शेक्सपियर का सौंदर्य वर्णन अद्भुत है । प्रेम करने की चाहत उस काल अर्थात मध्य युग का ज्वलंत विषय और समस्या रही होगी तभी तो युवा यहां वहां भागते फिरते हैं,ए मिड समर नाइट ड्रीम में प्रेमी को frantic उन्मत शब्द दिया जिसमें सुध-बुध खो देते हैं । शेक्सपियर की एंटनी एंड क्लियोपेट्रा में तो क्लियोपेट्रा का सौंदर्य वर्णन ऐसी शारीरिक चाहत के साथ प्रस्तुत है जो संभवत:किसी साहित्य में नही मिलेगा ।
“Age cannot wither her, nor custom stale
Her infinite variety. Other women cloy
The appetites they feed, but she makes hungry.”
Where most she satisfies”
क्लियोपेट्रा का रूप विलक्षण है जो काल चक्र से भी परे है जिसे परंपरायें और रीतियां भी धूमिल नहीं कर सकती ,इसी लिए उसके प्रति पुरूषों की चाहत/कामेच्छा lust कम न होकर बढती जाती है, किंतु यह व्यवहारिक रूप में कैसे संभव है कि क्लियोपेट्रा के प्रति किसी पुरूष की शारीरिक चाहत कभी कम ही न हो, बल्कि बढती ही रहे? यह शब्द की कल्पना में ही संभव है.।
सौंदर्य तो वह है जो निश्छल रूप में मन को भाये जिसे शब्द सहजता के साथ व्यक्त कर दे । शब्द द्वारा ऐसे प्रस्तुत भाव हृदय में बस जाते हैं । ऐसी ही प्रस्तुति शेक्सपियर ने अपनी कृति The Tempest में राज कुमारी मिरिंडा जो अपने पिता के साथ जंगल में एकाकी जीवन जीते हुए सयानी होकर जब प्रथम बार एक अन्य पुरूष राजकुमार फर्डिनेंड को देखती है तो बरबस कह देती है, How beauteous mankind is! इस आकर्षण में अल्हड़पन के साथ निश्छलता का भाव लिए सौंदर्य प्रस्फुटित हो जाता है ।
कौन किसका दर्पण, साहित्य समाज का अथवा समाज साहित्य का?
हम पढते रहे हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है अर्थात जो समाज में व्याप्त है साहित्य उसे पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है । तकनीक के जमाने में उसे दर्शक के समक्ष दिखा देता है जिससे उसका अर्थात विषय वस्तु का प्रभाव शीघ्रता से पड़ता है.पाठक मिलते ही कितने हैं! पढना सरल नहीं है. कम्युनिकेशन आयाम में पढने का मात्र 16% रूचि पाठकों की पायी जाती है क्योंकि पढना विशेषरूप से गंभीर विषय कठिन है ।
देखने में आनंद ही आनंद है, उसमें भी दिखाई -सुनाई दोनों पाये जाते हों तो क्या पूछना! सोने में सुहागा हो जाये! संभवत:रंगमंच की सफलता के पीछे यही कारण रहा है, किंतु रंगमंच की स्थनीय सीमा सार्वभौम प्रभाव में बाधा बनी रही; फिल्मों ने जबसे रंगमंच का स्थान ले लिया तबसे साहित्य का परिदृश्य और प्रभाव भी बदल गये हैं ।
साहित्य समाज का दर्पण है जिसमें अच्छी बुरी सब प्रकार की बातें दिखाई देती हैं । लेकिन साहित्य को ही समाज के लिए, पता नहीं समाज में उसकी जरूरत है कि नहीं अथवा समाज में घटित भी हो रहा है कि नहीं ,कल्पना में साहित्यिक उद्देश्य के के लिए नहीं वरन अपने भौतिक लक्ष्य के निमित्त साहित्य को परोसा जा रहा है । मार्केटिंग के जमाने में मांग उत्पन्न की जाती है, भले ही मांग न हो!
साहित्य तो Aesthetics के लिए होता है, वह सौंदर्य जो शास्वत है। प्रोपेगंडा आधारित साहित्य दीर्घकाल तक प्रभावी नहीं होता है। साहित्य तो वही चिरकाल तक प्रभाव डालता है जिसमें मानवीय संवेदनाएं प्रेम, घृणा भी जो प्रेम में परिवर्तन हो जाये, त्याग आदि नैसर्गिक रूप में मानव को नैसर्गिक आनंद देते हुए नैसर्गिक सौंदर्य प्रस्तुत करे!
प्रोफेसर अर्जुन दूबे