मेरी 7 लघुकथाऍं-सत्‍यधर बांधे ‘ईमान’

मेरी 7 लघुकथाऍं

मेरी 7 लघुकथाऍं-सत्‍यधर बांधे 'ईमान'
मेरी 7 लघुकथाऍं-सत्‍यधर बांधे ‘ईमान’

1.मौत का डर

समारु के घर में आज बहुत चहल-पहल थी, उसकी दादी का आज बरसी का कार्यक्रम था। समारु आज सुबह से जमीन पर लेटा पड़ा था, समारु की माँ चिल्ला रही थी ” न जाने कहाँ से रोज सुबह-सुबह ही पी लेता है, आज तो कम से कम नहीं पीना था, घर में इतना बड़ा कार्यक्रम है, सभी मेहमान आएंगे और ये महाशय सुबह से पीकर आ गया है , ये सब इसके नलायक दोस्तों की कारस्तानी है ” समारु की माँ चिल्लाती हुई घर के कामों में व्यस्त हो गई। समारु वैसे ही नशे में धुत्त औंधे मुहँ जमीन पर लेटा रहा, मेहमानों के आने-जाने और घर के कार्यक्रम से उसे कोई सरोकार न था। शाम होते – होते जब समारु का नशा कम हुआ तो घनिष्ठ रिश्तेदारों से ही शराब के लिए पैसे मांगने लगा, समारु शराब का इस तरह आदी हो गया था कि उसे परिवार समाज में लोकलाज का कोई भय नहीं था।

समारु के लिए यह रोजमर्रा की बात थी, घर से लड़ झगड़ कर रूपये लेता और दिनभर नशे में धुत्त रहता। इस दशगात्र कार्यक्रम के लगभग छ: माह बात पता चला की समारु ने शराब पीना पूरी तरह से छोड़ दिया है, यह कोई चमत्कार नहीं अपितु मौत का डर था।

समारु एक दिन अपने दो दोस्तों के साथ शराब पीने गया था, खुब शराब पीने के बाद तीनों एक सुनसान जगह पर गिर गये थे, चोट तो ज्यादा नहीं लगी थी, मगर नशे में होने के कारण वो तीनों उठ नही सके और भरी दोपहरी में ऐसे ही गिरे पडे रहें। शराब के नशे और गर्मी में गला सुखने के कारण समारु के दो दोस्तों की मौत हो गई थी। समारु को जब होश आया तो अपने दोस्तों को मरा देखकर बदहवास हो गया। आज भी उस घटना को याद कर समारु पीला पड़ जाता है।

2.कीमत

सुबह-सुबह ही नौ साल की दीपा माँ से कहने लगी ” माँ भूख लगी है” माँ बोली ”ए लो दस रुपये जाओ दुकान से ब्रेड ले आना, मैं चाय बना रहीं हूँ फिर चाय ब्रेड खा लेना। सुबह का समय था ज्यादा भूख नहीं थी इसलिए दीपा ने सिर्फ दो ब्रेड खाकर शेष बचे ब्रेड को वहीं पर रखे मेज पर रख दिया। चाय ब्रेड खाकर दीपा खेलने चली गई और माँ अपने घरेलु कामों में व्यस्त हो गई। दीपा के पिताजी कारखाने में काम करते है, जो दो साल पहले ही गाँव से काम की तलाश में शहर आकर यहीं एक छोटा स मकान किराये में लेकर रहने लगें थे। दीपा के पिताजी का कारखाने में यह नाइट शिफ्ट वाला सप्ताह था, इसलिये वे सुबह दस बजे घर पहुंचे। घर पहुंचे तो देखा मेज पर रखे ब्रेड पर बहुत सारी छोटी-छोटी चींटियों घुस गई है और ढेर सारी चीटियों का लाईन लगा हुआ है। पिता जी यह देखते ही बहुत क्रोधित हो गए और जोर-जोर से दीपा को पुकारने लगे, आवाज सुनकर दीपा भागी-भागी आई और बोली क्या हुआ? पिताजी गुस्से में बोले ” खाना नहीं था तो ब्रेड को लाकर ईधर-उधर क्यों फेंकती हो? अब तुम ही इस चींटी वाले ब्रेड को खाना।

इतना सुनते ही दीपा की माँ भी आ गई और बोलने लगी ” छोड़ों न आप भी क्या? दस रुपये के ब्रेड के लिए बच्ची को इतना डाटते हो” इतना सुनते ही दीपा के पिताजी बोले ” सवाल दस रुपये का नहीं है, इस तरह से खाने-पीने की चीजों का खराब होना मुझे बहुत अखरता है, तुम लोग कभी भूखे नहीं रहे हो न इसलिए इसकी कीमत नहीं जानते हो।

आज सम्पूर्ण ताला बंदी में भूखे पेट पैदल शहर से गाँव जाते हुए दीपा को पिताजी की वो सारी बातें याद आ रही थी, क्या सचमुच उस ब्रेड की कीमत सिर्फ दस रुपये होती है।

3.अनहोनी

श्यामू एक छोटा किसान था, गाँव में उसके पास लगभग पाँच एकड़ जमीन थी जिसमें वह धान की खेती करता था, खेती की सिंचाई का कोई साधन नहीं था, खेती पूर्ण रूप से वर्षा पर आधारित थी, इसलिए फसल उतना अच्छा नहीं हो पाता था। इस वर्ष फसल कटाई के बाद श्यामू ने सोचा की खेत की खुदाई कर खेत को गहरा और समतल बना दूं ताकि खेत में पानी चारों तरफ बराबर फैल सके। खेत की खुदाई से निकली मिट्टी को श्यामू ने मेड़ के चारों तरफ बराबर फैला दिया था, ताकि उसमें भी कुछ बो सके। बरसात का मौसम आया इस बार अच्छी बारिश हुई, खेतों में श्यामू ने धान व मेड़ में तिल बोए। नई मिट्टी होने के कारण तिल बहुत अच्छे से उगा, ऐसा लग रहा था कि इस बार तिल की पैदावार बहुत अच्छी होगी। उम्मीद के मुताबिक ही तिल की फसल पककर तैयार हो गया, जो भी तिल की फसल को देखता, श्यामू से यही कहता “इस बार तो खूब सारी तिल होगी एक-आध बोरी हमें भी देना”, लोगों की बाते सुनकर, श्यामू सभी से यही कहता “भाई फसल तो घर पहुंच जाने दो”।

आखिरकार वो दिन आ गया जब तिल की कटाई कर खलिहान में सुखाकर, तिल को झड़ा-झड़ा कर इकठ्ठा किये जाने लगा। जो भी लोग श्यामू को खलिहान में तिल इकठ्ठा करते देखता, पास आकर यही कहता ” सारा तिल कोचिए को मत बेच देना एक-आध बोरी हमें भी देना”। श्यामू सब से यही कहता “हाँ भाई घर ले जाने दो, फिर ले जाना”। श्यामू सारे तिल को झड़ाकर इकठ्ठा कर लिया, लगभग बीस बोरी जितना तिल रहा होगा। अब तिल को बोरी में भरकर घर ले जाना था, तिल को बोरी में भरने के लिए श्यामू बोरी लाने लगा, तभी देखता है की अचानक मौसम बदला और तेज हवाओं के साथ बवंडर उठने लगा, श्यामू कुछ कर पाता इससे पहले ही तेज बवंडर आया और सारे तिल को उड़ा ले गया, श्यामू बुत बना हाथ में बोरी लिये देखता रहा।

4.पॉकेटमार

श्यामू चार भाईयों में दूसरे नम्बर का था, पढाई में कमजोर व फिल्में देखने का बड़ा शौकीन था, बारहवीं तक पढ़ाई करने के बाद दुध बेचने का काम करने लगा। रोज सुबह दुध लेकर शहर जाता और शाम-रात तक दुध बेचकर वापस आता था। सप्ताह में शुक्रवार का दिन, दुध का हिसाब करने का दिन होता था, वह इस दिन दुध का हिसाब कर होटल वालों से रुपये ले लेता था। आज ही के दिन शहर के सिनेमा घरों में नई फिल्म भी लगती थी। श्यामू रुपये लेकर कोई नई फिल्म देखता और देर रात तक घर पहुंचता था।

आज फिर शुक्रवार का दिन था, श्यामू होटल से दुध के चार हजार रुपये लेकर सिनेमा देखने चले गया। सिनेमाघर में सलमान खान की नई फिल्म लगी थी इसलिए बहुत भीड़ था। श्यामू भीड़ में धक्का-मुक्की लगाते हुए टिकट के लिए लाईन में लग गया, इस समय उसे जरा भी ध्यान नहीं रहा की उसके पॉकेट में चार हजार रुपये भी है, वह टिकट लिया और मजे से फिल्म देखता रहा। जैसे ही फिल्म खत्म हुई और सिनेमाघर से बाहर निकला तो उसका ध्यान पाॅकेट पर गया, पाॅकेट में हाथ फेरकर देखता है तो पाॅकेट कट चुकी है और रुपये गायब है। श्यामू की हालत ऐसी की काटो तो खून नहीं, वह सर पकड़ कर अपने दुध डब्बे बंधे सायकल के पास बैठ गया, रात बहुत हो चुकी थी और खाली हाथ घर जाने का हिम्मत नहीं हो रहा था, बडे़ भैया पूछेंगे रुपये कहाँ है तो क्या जवाब देगा? यही सोचते – सोचते कब रात से सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

श्यामू के दिमाग में अजीब – अजीब ख्याल आने लगे, वह सोचने लगा मैं भी किसी का पाॅकेट मार कर रुपये लेकर ही घर जाऊँगा। यही सोच कर वह एक निजी अस्पताल के सामने जाकर खड़ा हो गया, तभी देखता है की एक बुजुर्ग दम्पति छोटी सी थैली में रुपये लेकर अस्पताल की आ रहे थे, श्यामू को यह मौका अच्छा लगा, वह इधर-उधर देखते हुए बुजुर्ग दम्पति से जा टकराया और मौका पाकर रुपये उठाकर गायब हो गया। रुपये लिए हुए श्यामू के हाथ पाँव काँपने लगे, उसे लगने लगा की उसने किसी की पाॅकेट नहीं अपितु जान मार दिया हो। वह कुछ दूर जाकर रूक गया और सोचने लगा ” मेरे तो सिर्फ चार हजार रुपये चोरी हुए हैं, उस बुजुर्ग दम्पति के न जाने कौन अपना बिमार है”। श्यामू की अन्तरात्मा उसे धिक्कारने लगी, यह पाॅकेटमारी तेरे बस की बात नहीं है, जा उसे रुपये लौटा आ। आखिरकार श्यामू ने अपने अन्तरात्मा की बात सुनी और बुजुर्ग दम्पति से क्षमा मांगते हुए उसके रुपये लौटा दिये।

5. नमक

आजकल टीवी चैनल वाले शहरों से निकलकर समाचार की तलाश में दूर जंगलों में पहुंचने लगें हैं। आज टीवी चालू किया तो देखा, एक चैनल में बस्तर के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की जीवन दशा दिखाया जा रहा था, वहाँ एक परिवार के लोग सिर्फ नमक चाट कर चावल खा रहे थे। समाचार देखकर मन पसीज कर रह गया, क्या आज भी हमारे देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो सिर्फ नमक के साथ चावल खा कर अपने दिन गुजार रहें हैं। यह समाचार खत्म हुआ ही था कि एक नया समाचार आने लगा “कुछ जमाखोरों ने यह अफवाह फैला दिया था कि शहर में नमक की भारी किल्लत हो गई है”। इस अफवाह का लोगों पर ऐसा असर हुआ की लोग अधिक से अधिक नमक लेकर घर पर जमा करने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ कि सभी किराना दुकानों से नमक खत्म हो गई और वास्तविक जरूरतमंदों को कहीं भी नमक नहीं मिल रहा था।
मन यह मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था कि जहाँ कई लोग सिर्फ नमक के सहारे चावल खा कर जिन्दगी बिता रहें हो, वहाँ नमक का भी जमाखोरी व कालाबाजारी हो सकता है।

प्रशासन का शुक्र है कि समय रहते हुए जमाखोरों पर कड़ी कार्यवाही कर, अफवाह को दूर किया। आज नमक के थोड़े से दाम भले ही बढ़ गये हैं मगर सभी जगह असानी से उपलब्ध हो रहे हैं।

6.हैसियत

यह बात लगभग पचास साल पुरानी है, मेरे दादा जी को किसी काम से पडोस के गाँव के मुखिया जी के यहाँ जाना था, उस जमाने में मेरे दादा जी भी अपने गाँव के मुखिया थे। आने-जाने का कुछ साधन नहीं होने के कारण उस समय सभी लोग पैदल ही आस-पास के गाँव में आया-जाया करते थे। पडोस के गाँव जाते वक्त दादा जी ने अपने साथ गाँव के ही लखन दाउ को भी ले गए। पडोस के गाँव पहुंचे के बाद थोड़ी देर तक मुखिया जी के साथ इधर-उधर की बातें होती रही, इतने देर में खाने का भी समय हो गया था। पैदल चलने के कारण लखन दाउ के कपड़े थोड़े गंदे हो गये थे और मुखिया जी लखन दाउ को पूर्व से पहचानते भी नहीं थे। दादा जी लखन दाउ और मुखिया जी खाना खाने के लिए बैठे, दादा जी और मुखिया को गर्म खाना परोसा गया तथा लखन दाउ को कोई मजदूर समझकर रात का बचा हुआ चावल की बासी को परोसा गया। लखन दाउ बिना कुछ बोले बासी को खाने लगे यह देखकर दादा जी भी कुछ नहीं बोल पाये। थोड़ी देर बाद दादा जी और लखन दाउ वापस अपने गाँव आ गये।

कुछ दिनों बाद एक बार फिर दादा जी को उसी मुखिया जी के पास जाना था, साथ चलने के लिए दादा जी ने लखन दाउ को बुलावा भेजा। इस बार लखन दाउ रेशमी धोती कुर्ता, अपने सोने के कड़े व चैन को पहन कर आया।

मुखिया जी से थोड़ी देर बात करने के बाद तीनों खाना खाने के लिए बैठे, इस बार लखन दाउ के लिए भी गर्म खाना परोसा गया, गर्म खाने को देखकर लखन दाउ ने अपने सारे आभूषण उतार कर खाने में रख दिया और गहनों से कहने लगा ” लो खाओ यह गर्म खाना तुम्हारे लिए आया है।

7.कोरोना

सोहन खिड़की से झांक रहा था कि उसे बाहर एक मोर दिखाई दिया, पास से देखने के लिए घर से बाहर निकला तो देखता है इकबाल पहले से वहाँ खड़ा मोर को देख रहा है। इकबाल को देखकर सोहन बोला ”कितना अच्छा मौसम हो गया है न, अब तो मोर भी आने लगे हैं”। इतना सुन इकबाल बोला ”हाँ यार मौसम तो अच्छा हो गया है, लेकिन बाकी चीजें खराब हो रही है, परसो हमारे पडोसी भाईजान की शादी थी और मुझे शादी में जाने नहीं दिया गया , कल रहीम चाचा गुजर गये उनके भी जनाजे में नहीं जाने दिया गया, कल ही हमारे मुहल्ले वालों ने डाक्टरों की टीम पर पत्थर बरसा दिये। मुझे जो नर्स दीदी पढा़ती थी, उसे भी मकान मालिक ने अस्पताल में काम करते हो करके घर से बाहर निकाल दिया। अब तो मैं अब्बू के साथ सब्जी बेचने जाता हूँ तो लोग तरह-तरह की बातें करते हैं और सब्जी भी नहीं खरीदते। मेरे दोस्त रामू और श्यामू के घर में दो दिनों से कुछ भी खाने को नहीं था, तो उनके पिताजी किराया कहाँ से देते, वे लोग दो दिन तक भूखे रहने के बाद पैदल ही अपने गाँव जा रहे थे, अभी रेलगाड़ी नहीं चल रही है यही सोच के रेल की पटरी में पैदल चल रहें थे, रात में थककर रेल की ही पटरी में आराम कर रहे थे कि रेलगाड़ी सोलह लोगों को काटते हुए गुजर गई। अब्बू बता रहें थे कि पूरे देश में ऐसे ही लाखों लोग बिना खाए-पीये ही पैदल अपने गाँव जा रहें हैं, वहाँ भी उन्हें बिना सुविधा के चौदह दिनो तक एक सेन्टर में रखा जाता है, जहाँ लोगों की मौत भी हो रही है। इस कोरोना ने तो जीना ही मुहाल कर दिया है ।

इकबाल और सोहन बातें कर ही रहे थे की सोहन के पिताजी ने आवाज लगाई ”सोहन इधर आओ” सोहन दौड़कर आया तो पिताजी उसे डांटते हुए बोले ”तुझे कितनी बार समझाया हूँ इकबाल से मत मिलाकर करके, तुझे मालूम है न इकबाल के अब्बू दो साल पहले मरकज़ में चौकीदारी किया करते थे।

लघुकथा–सत्‍यधर बांधे ‘ईमान’

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