मेरी दृष्टि में भारत-
‘मेरी दृष्टि में भारत’, भारतीय मूल की नाइजिरियन कवियत्री श्रीमती शशि महाजन की कुछ कविताओं का पुष्प गुच्छ है, जिसमें छोटी-छोटी अतुकांत कविताएं संग्रहित है । इन कविताओं अपने वतन से दूर होने अपने वतन की याद किस प्रकार आती है इन्हीं भावनाओं को श्रीमती महाजन ने अपने शब्दों में पिरोया है ।
मेरी दृष्टि में भारत
– शशि महाजन

1.चलो अपने देश को संवारें हम
चलो अपने देश को संवारें हम
सोचें
शिक्षा कैसी हो
स्वास्थ्य क्या है
पति- पत्नी के सम्बन्ध कैसे हों
बच्चे और मां – बाप कैसे हों
हमारा व्यापर कैसा हो
बंधन और नियम क्या हों
कौन हों हमारे नेता
चुनाव कैसे हों
धर्म कैसा हो
भाषा और उसके अर्थ को सँवारे हम
हमारी सुबह कैसी हो
शाम कैसी हो
जमीं कैसी हो
आसमां कैसा हो
नदियां पहाड़ कैसे हों
जंगल और रेगिस्तान कैसे हों
और भी बहुत कुछ है
जो हमें सोचना संवारना है
यह जमीं हमारी है
और हमीं इसके देवता हैं ।
2.हिंदी पिछड़ी
हिंदी पिछड़ी है सबसे
वे कहते हैं हमसे
अंग्रेजी तो छोड़ो
देखो
बांग्ला को
मराठी को
दक्षिण की भाषाओँ को
तो पूछती हूँ मैं
राजधानी की यह भाषा
जो पिछड़ी है
तो क्या
नहीं पिछड़ा है देश इससे
तुम्हारा स्वर
अहंकार बन
छिन्न भिन्न हुआ है कब से
कब लाओगे इसमें
नए विचार
नई उमंग
नया स्वाभिमान
कब जागेगा देश
पाएगा
भाषा अपनी
और मिलेगी
दिशा सबको।
3. भारत का निर्माण
शून्य समाप्ति नहीं
स्थिति है
किसी ओर भी जाने के लिए
स्वतंत्र है
चुनाव हम सबका है
अकेला निर्बल है
पर एक साथ
हम ऊर्जा हैं
दे सकते हैं चुनौती
ईश्वर को भी
समूह में रह कर
अपनी पहचान बन
फिर से
भारत का निर्माण कर।
4. मंदिरों का देश है मेरा
मंदिरों का देश है मेरा
प्रार्थनाओं जिज्ञासाओं से भरा
उम्मीदों से जिया ये देश मेरा
ये आज का नहीं
युग युग जिया ये देश मेरा
राम कृष्ण को संवारता
ये देश मेरा
इसकी मिटी में मिला
सौंदर्य ब्रह्माण्ड का
नदियां , पहाड़ , पेड़ पूजता
ये देश मेरा
नहीं मिलता ये दिल्ली , मुम्बई में
मिलता है अपने धामों में
ढूंढ़ना जिसे है
वो देश है मेरा !
5.तुझे ढूंढ रही थी मैं
भारत
तुझे ढूंढ रही थी मैं
तेरे नदियों, पहाड़ों
मंदिरों , मस्जिदों
झोपड़ों , महलों में
नहीं जानती थी
तूं तो छिपा है मेरे मन में
हम रहें
न रहें
तूं रहेगा अपनी
सहिष्णुता और प्रेम के साथ
सदा सदा ।
6. भारत की बेटी हूँ
ये आँखों की गहराई
लटों की अंगड़ाई
बहुत हो चुका
अब
तुम मेरा सौंदर्य
नापोगे
मेरे शरीर की ऊर्जा से
नहीं चाहियें
तुम्हारे चाँद तारे
चाहियें उनके
होने, न होने के अर्थ
मुझे सिर्फ
फूल का सौंदर्य
ही नहीं भाता
सुहाता है
केंचुए का
जमीन खोदना भी
भारत की बेटी हूँ
मुझे वो भाएगा
जो जोड़ सकेगा
स्वयं को
इसके इतिहास
और जीवन मूल्यों से
देवदास , मजनू
को लेकर
मैं
क्या करूंगी
मुझे चाहिए
गिरकर सम्भलने वाला
तपस्वी इंसान
आज प्यार होगा
और पहले से गहरा होगा
पर , होगा
हमारे तुम्हारे बीच की
उन धड़कनों में
जो बज उठती हों
संगीत सी
मन मस्तिष्क के
विस्तृत होने की
संभावना से।
7. थोड़ा-थोड़ा
कहीं दूर
सत्ता के गलियारों में
घुस बैठे हैं
अपराधी
और
जनता है प्रतीक्षारत
किसी मसीहा के लिये
आज
इस तमाम मीडिया की तामझाम
मानवाधिकारों की चर्चा के बीच
क्या हम
भूल जायेंगे
जब भी अपराधी के हाथ फैलते हैं
तब
हममें से हर कोई होता है अपराधी
थोड़ा – थोड़ा
और जब
उभरता है मसीहा
तो
बनता है हर कोई हममें ही मसीहा
थोड़ा – थोड़ा
तो
समाज के खाली पड़े दानपात्र में
हम नहीं डालेंगे
मसीहत्व
थोड़ा – थोड़ा
और छांट डालेंगे
स्वयं का अपराध
थोड़ा -थोड़ा ?
8. वो राम जो बसा है कण कण में
वो राम जो बसा है कण कण में
और है मेरे मन में
रचा है उसे किस कवि ने
या है वो स्वयंभू ईश्वर
समाये हुए स्वयं में सारे भाव
काव्य में उलझे तर्क
किसने किसको जन्मा
तर्क ने भाव को या भाव ने तर्क को
कौन जाने
पर ये जन्मा मेरी मिटी में
हर जन्म में बुना मर्यादाओं को
समझा स्वतंत्रता को
बार बार उस कथा को जिया
नए शब्दों के सहारे
भारत
तूँ संभाल अपने राम को
बहुत कुछ स्वयं ही संभल जायगा।
9. भीतर की ज्वाला से हारा
जिनको हमने
समझदार समझा
वो चोर निकले
जिनको समझा नेता
अभिनेता निकले
जो थे कलाकार
निकले चाटुकार
भाईजान
कई आएंगे
कई जायेंगे
पर वो आदमी
जो सड़क पर चल
ढूंढ रहा है जीजीवशा
उसे मिटा न पाएंगे
उसकी हाहाकार की ज्वाला में
सब भस्म हो जायेंगे
बड़े बड़ों को वक्त ने मारा है
पर हर बार बस
इस भीतर की ज्वाला से हारा है !
-शशि महाजन
नाइजिरिया
(मूल स्थान-सोनीपत, हरियाणा)