बहुआयामी गीत यात्रा के लोकप्रिय कवि-‘मुकुंद कौशल’
-डुमन लाल ध्रुव
मुकुंद कौशल
मुकुंद कौशल ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी युग दृष्टि बहुत पैनी और पारदर्शी है-
संस्कार हे छत्तीसगढ़ के, ये बिन बोले बानी हे।
गोदना के टिपकी-बुंदिया मा कतको अकन कहानी हे।।
किसिम-किसिम के चित्रकला अऊ बुंदियन के फुलवारी हे।
गोदना हावय तन के गहना, जिनगी के संगवारी हे।।
स्वातंन्न्यवीर सोनी जेठालाल जी के सुपुत्र के रूप में 07 नवम्बर 1947 को दुर्ग में जन्में छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि, गीतकार श्री मुकुंद कौशल जी हमारे समय के साहित्यिक जगत के एक ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी युग दृष्टि बहुत पैनी और पारदर्शी है। इसके साथ ही वे साहित्य के उस केन्द्र बिंदु पर अधिष्ठित हैं, जहां कविता के नाम पर उसके अनेक मुक्त छंदरस रूप, आधुनिक और अत्याधुनिक, वैचारिक, आख्यान और ओढ़े हुए अनेक चोले अपनी चकाचैंध में सहज, सहृदय और संवेदनशील पाठक को लुभाते से प्रतीत होते हैं।
मुकुंद कौशल जी का रचना संसार-
मुकुंद कौशल जी का रचना संसार बहुत वृहद है। उनके स्वयं के हिन्दी काव्य संग्रह ’’लालटेन जलने दो, शब्द क्रांति, चिराग गजलों के, गीतों का चंदनवन, देश हमारा भारत’’ और छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह ’’भिनसार, छत्तीसगढ़ी गजल, हमर मया हमर अगास, मया के मुंदरी’’ प्रकाशित और राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई है।
तैं हा आ जाबे मैना,
उड़त-उड़त तैं हा आ जाबे।
एक सार्थक रचना अपने समय से साक्षात्कार करती हुई उससे टकराने और मुठभेड़ करने का माद्दा भी रखती है। वह जमीनी हकीकत का सामना करते हुए परिवेशगत सच्चाइयों का समूचा परिदृश्य प्रस्तुत करती हुई और बेहतर जीवन जीने की तलाश का उपक्रम बन जाती है।
साहित्य की कोई भी विधा सामाजिक दायित्व से किनाराकशी नहीं कर सकती और न बदलते युग के तेवरों को अनदेखा कर सकती है। वह बदलते समय की नई प्रचलित शब्दावली को भी अनसुना नहीं कर सकती। हमें इस सत्य को स्वीकारना होगा कि कला जीवन के लिए है। जीवन की विकासशील धारा में मनुष्य के आत्यांतिक कल्याण को ओझल नहीं किया जा सकता।
मुकुंद कौशल जी की बहुआयामी गीत-यात्रा-
मुकुंद कौशल जी अपनी बहुआयामी गीत-यात्रा में मानव हित, नैतिक मूल्य, अन्वेषण तथा ज्ञात से अज्ञात को जानने की कोशिश को सर्वोपरि मानते हैं रचनाकार का निर्विकार मन स्वतः ही संवेदनाओं की गहराई के साथ मानवता से जुड़ जाती है। मुकुंद कौशल के गीतों का भाव यही है-
बांसुरी के तान सहीं, मने मन मा घुमरत रथे।
सबो कती दसमत के, फूल साहीं लहकत रथे।
झन कहा कुछू, ओंठ ले भलुन
आंखी सबो कहि देथे
तोर आंखी हा मोर जिया के
काबर आरो लेथे
चारों कति बरत-जरत घाम रे
ये निरमोही तोला देखि जीउ हर जुड़ाए।
मुकुंद कौशल जी के गीतोंं में छत्तीसगढि़या स्वाभिमान-
मुकुंद कौशल के गीतों में हमेशा छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान के प्रति एक ही विचार, भाव या घटनाक्रम की अन्विति का शुरू से अंत तक निर्वाह किया जाता है। मुकुंद कौशल अपनी अनुभूति जन्य वैचारिकता या विचारजन्य अनुभूति से यहां वहां नहीं भटक पाये। बल्कि अपनी गीतों की लोकप्रियता से समग्रता में प्रभावहीन बन जाते हैं। मशीनीकरण की युग में भी वे अपनी प्रकृतिजन्य संवेदना और विचारजन्य संवेदना को छोड़कर व्यवसायी संवेदना के शिकार नहीं हुए।
मन मा चिरइया बोले, आंखी सुगना अस डोले।
जिउ मोर होवत हे उछाह
कब तैंह आबे राजा, अंगना मा बाजही बाजा
नैना मा लगे हे तोरे चाह
तोला आंखाी मा बसायेंव मैं ह जे दिन ले-
लागत हवै मोला सरी दिन ह तिहार।
x x x
तोर सपना ला जोही आंखी मा लुकावौं
मन होथे मैना साही उड़ि के मैं आवौं
झरि-झरि आंसू मोरे चरन पखारे।
मोरे पतरेंगा मोला, काबर बिसारे।।
मुकुंद कौशल जी की पैनी अभिव्यक्ति-
मुकुंद कौशल के पास पैनी अभिव्यक्ति है। शब्द और अर्थ सहचर है। अबूझ को सहज बनाते हैं। पैनी अभिव्यिक्ति के लिए छत्तीसगढ़ी के सार्थक शब्दों का प्रयोग मितव्ययता से प्रयोग किये हैं। भारी भरकम शरीर और मधुर कंठ के धनि मुकुंद कौशल के पास अनुभवजन्य ईमानदारी है। संभवतः इसीलिए वह जीवन और स्थितियों की लय तोड़ने में विश्वास नहीं रखते हैं। अनचाही स्थितियों को आत्मसात करने के बावजूद उसका फूल सा मन त्रासदी के संस्मरण ढोता रहता है। संध्या से प्रातः पाने को गीतों पर प्राण चढ़ाता है। कुल मिलाकर बौद्धिकता और आक्रमकता से दूर पिराई जाती ईख का गुनगुना मीठा रस मुकुंद कौशल के गीतों की शक्ति है –
तोर रूप जस चंदा, सुग्घर दरपन मोर
मोर जिया मा तोर दिया के हवै अंजोर
हमर जलइया कतको अपन लगावैं जोर
ये परेम के डोरी ला झन देबे टोर
तोर मया ला, बांधेंव मैं अंचरा के छोर
मुकुंद कौशल जी छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का समर्थक-
लोक -लय मन को संस्कारित कर मनोभावों को पवित्र करती है। इसलिए कवि मुकुंद कौशल छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का समर्थक है। उनका विचार है कि ’’ आंचलिक भाषा शैली में छत्तीसगढ़ के लोकगीत अधिक संप्रेषणीय और अधिक स्पष्ट हुआ है। लोकगीत सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराओं के विशेष स्थलों पर गाये जाते रहे हैं। किंतु मानव सभ्यता के विकास के साथ -साथ इसके रूप भी बदले हैं। तब आज की तरह सामाजिक-राजनीतिक मूल्यांकन की बात न थी। और न ही आवश्यकता, आज प्रकारांतर से छत्तीसगढ़ के लोकगीत में सामयिक संदर्भ जुड़ने लगे हैं। छत्तीसगढ़ की लोकगीतों की परम्परा को जीवित रखने के लिए लोकगीत लिखे जाने चाहिए लेकिन रचनाकार को साहित्यिक मूल्यांकन की अपेक्षाओं के व्यामोह से दूर ही रहना चाहिए।
मुकुंद कौशल ने अपनी बात को अभिव्यक्ति देने के लिए जनजीवन से पात्रों का चयन करते हैं और अपने पात्र भी गढ़ते हैं।
बिन सुरूज के जग अंधियारी, बिन परेम के दुनिया।
बिना बजाए मया-पिरित के, नई बाजय हरमुनिया।।
आज संग नइ गा पाएन तौ अउ कब गाबोन वो।
छिन भर कहुंचो बइठ के सुख-दुख ला गोठियाबोन वो।।
छत्तीसगढ़ के सच्चे एवं निष्ठावान गीतधर्मी कवि मुकुंद कौशल जी को जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ कोटिशः नमन।
-डुमन लाल ध्रुव
प्रचार-प्रसार अधिकारी
जिला पंचायत-धमतरी
मो. नं. 9424210208
इसे भी देखें-
’चंदैनी गोंदा’ के अप्रतिम कला साधक: रामचन्द्र देशमुख
अब्बड़ सुग्घर आलेख मुकुंद भईया ल जन्मदिवस के बधाई अउ शुभकामनाएं