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नौकरी, एक लघु व्यंग्य आलेख-डॉं. अर्जुन दूबे

नौकरी, एक लघु व्यंग्य आलेख-डॉं. अर्जुन दूबे

कौन है? सामने आओ। 

कौन है जो आ नहीं रहा है, रघु ने कड़क आवाज में बोला। अरे, बहरे हो क्या? कम से बोल तो सकते हो, रघु ने फिर पूछा! 

थोड़ी देर बाद एक छाया प्रकट हुई। यह किसकी छाया है, रघु ने जोर देकर पुछा! यह मैं हूँ और यह मेरी छाया है। रघु को थोड़ा दिखने लगा था। उसने फिर कहा, अपना परिचय दो। छाया नजदीक आने लगी थी और साथ में छोटी छोटी और भी छाया थी, पता नहीं उसी छाया की छाया थी अथवा कहने वाली की ही छाया थी! 

रघु उत्सुकतावश उससे फिर परिचय पूछा। तब उसने कहा कि मैं “नौकरी “हूँ। तुम बहुत भाग्यशाली हो कि मैं सज सवंरकर तुमसे ही मिलने आयी हूँ! किस लिए आयी हो? तुमसे विवाह करने! लेकिन तुम तो छाया हो, तुम्हारा रुप तो दिख रहा नहीं है। कोई तुम सूर्य देव थोड़े हो जो इतनी सरलता से संध्या और छाया में भेद कर पाओगे। सूर्य देव भी जब तक शनिदेव नहीं हुए थे तब तक छाया को ही संध्या समझते रहे। 

खैर छोड़ो इस प्रसंग को। जब मेरा विवाह तुमसे होगा तभी तुम्हे रूप युक्त संध्या मिलेगी। तुम चयन कर सकते हो कि कैसी संध्या चाहिए! ऐसी बात है? हाँ मैं साधारण नहींं हूँ, मैं तो क्लास वन की सरकारी नौकरी हूँ। तभी तो तुम भाग्यशाली  हो। 

क्या नौकरी भी अनेक तरह की होती है? बहुत बूद्धू हो, इतनी जी तोड़ तपस्या किये मुझे पाने के लिए, फिर भी पूछ रहे हो मैं औरों से अलग हूँ क्या? 

अरे मूरख! बहुत नौकरियां हैं जिसके द्वारा लक्ष्मी प्राप्ति खूब होती है लेकिन सरकारी क्लास वन का क्या पूछना। Power  जो इसके साथ कंधे पर कंधा मिलाकर चलता है। तुमको भी पता होना चाहिए, “Power is more sexy than Money. ” दूसरी बात ,पावर है तो लक्ष्मी भी खिंची चली आती है।सृष्टि के पालन कर्ता कौन हैं? भगवान विष्णु जी हैं।तो लक्ष्मी जी उन्हीं की भार्या हैं न! 

खैर छोड़ो, मैं तो दुर्लभ हूँ ही, और भी हैं मेरे सहचर, लेकिन वो भी सरलता से नहीं सटते हैं। मतलब बताओ। देखो, प्रायः अखबार में नौकरी के लिए विज्ञापन निकलता है। शुल्क लगता है उन्हें भरने के लिए। परीक्षा करायी जाती है। पेपर आउट, भर्ती रद्द अथवा स्थगित। अगर भर्ती हुई भी तो तिकड़म शुरू! पता नहीं सही क्या है लक्ष्मी दो तो लक्ष्मी पाओ, ऐसा अफवाह बाजार में गर्म रहता है। 

अब बचा प्राइवेट। प्राइवेट नौकरी नहीं होती है क्या? क्यों नहीं होती है। प्रतिभा है, लगन है और इमानदारी है तो नौकरी मिल जाती है लेकिन खटाते बहुत है। मतलब? शोषण द्वारा निर्धारित आयु के पहले ही बूढा बना देते, तनख्वाह भी उतनी ही मिलती है कि तुम चल फिर सको। ऐसा उसमें काम करने वाले कहते हैं। लेकिन नहीं से तो कुछ तो ठीक है। अब तो इसमें भी ठीका चल गया है, 20 आदमी के स्थान पर 10 आदमी ही काम पर लगाते हैं। उनका भी दोष नहीं है, समाज सेवा के लिए ठीका तो लेते नहीं है! 

अब समझ में बात आयी है, लोगों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी बढ रही है और नौकरी रूपी मरीचिका मड़ंराकर गायब हो जाती है।   “Survival of the Fittest”कितना प्रासंगिक था और भविष्य में भी रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है। 

प्रोफेसर अर्जुन दूबे, सेवा निवृत्त 

मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर, उ. प्र.

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