नवगीत-एक परिचय-
नवगीत-एक परिचय

नवगीत का बीजारोपण –
नवगीत, भारतीय साहित्य की एक नई विधा है जिसका बीजारोपण भारत के लोकगीतों से हुआ है । ब्रज, अवधी से तुलसीदास, सूरदास तो राजस्थानी से मीराबाई इसके प्रेरणास्रोत रहे हैं। लोकगीत भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग रहा है । जब साहित्य में नई कविताओं का प्रचलन शुरू हुआ तो इसी के साथ एक और नई विधा का जन्म हुआ जिसे नवगीत का नाम दिया गया ।
नवगीत का प्रथम प्रयोग-
हिन्दी गीत के इतिहास में नयी कविता के साथ ही साथ नवगीत विधान का उदय हुआ ! नवगीत भाषा संरचना और नये तेवर के गीत हैं जो पारंपरिक गीतों से भिन्न होते हैं। 1958 में एक संकलन ‘गीतांगिनी’ प्रकाशित हुआ जिसमें भूमिका देते हुये संपादक श्री राजेन्द्रप्रसाद सिंह लिखते हैं-
“‘नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे धातव्य कवियों का अभाव नहीं है, जो मानव जीवन के ऊंचे और गहरे, किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज संवार कर नयी ‘टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं । प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता की प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है । नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा ।”
-श्री राजेन्द्रप्रसाद सिंह
यहीं से इसे बाद में नवगीत का प्रथम संकलन ‘गीतांगिनी’और श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह को नवगीत नामकरण का जन्मदाता माना गया। साठ के दशक में जब नई कविता तुक, छंद बंधन से छटपटा कर आजाद हुआ तो उसी समय गीत तुक और छंद बंधन से नई रूप धारण करके आगे चलकर नवगीत संज्ञा से विभूषित हुआ ।
नवगीत का ‘गीतांगिनी’ से उदाहरण-
मानव जहां बैल घोड़ा है, कैसा तन-मन का जोड़ा है । किस साधन का स्वांग रचा यह, किस बाधा की बनी त्वचा यह । देख रहा है विज्ञ आधुनिक, वन्य भाव का यह कोड़ा है । इस पर से विश्वास उठ गया, विद्या से जब मैल छुट गया पकदृपक कर ऐसा फूटा है, जैसे सावन का फोड़ा है । -‘निराला’ : (गीतांगिनी, पृ॰ 6)
नवगीत के प्रवर्तक-
महाकवि निराला हिन्दी नवगीत के प्रवर्तक माने जाते है। निरालाजी अपनी रचनाओं में नवगीत के संबंध में लिखते हें- ‘‘नव गति, नव लय, ताल, छंद नव।’’ यही आगे चल कर नवगीत का पहिचान बना। नवगीत में कथ्य-कथन, नये ढंग से कहे गये, नई सोच, नया उपमान, प्रतिक, नये बिम्ब के साथ समकालीन समस्या और परिस्थिति से संवारे, सजाये जायें तभी एक गीत नवगीत बनता है । नवगीत में छंद बंधन आवश्यक नहीं है किन्तु लयात्मक, प्रवाह होना जरूरी है।
उदाहरण-
चंद्रदेव सिंह द्वारा संपादित ‘कविताएं-1956’ में संकलित गीत ‘विरजपथ’ नवगीत के सुर सुनाई देते हैं-
“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं । खिलते-मुरझाते किन्तु कभी तोड़े जाते ये फूल नहीं । खुलकर भी चुप रह जाते हैं ये अधर जहां, अधखुले नयन भी बोल-बोल उठते जैसे; इस हरियाली की सघन छांह में मन खोया, अब लाख-लाख पल्लव के प्राण छुऊं कैसे ? अपनी बरौनियां चुभ जाएं, पर चुभता कोई शूल नहीं । निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ी; घर्घर-पुकार उस पार रेल की गूंज रही, इस पार जगी है उत्सुकता थोड़ी-थोड़ी । सुषमा में कोलाहल भर कर हँसता-रोता यह कूल नहीं । इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो, मुट्ठी में थामें हो जिस दिल की चिड़िया को उसको छन-भर इस खुली हवा में छोड़ो तो । फिर देखो, कैसे बन जाती है कौन दिशा अनुकूल नहीं ? इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।”
एक और रचना देखे जा सकते हैं-
“मोह-घटा फट गई प्रकृति की, अन्तव्र्योम विमल है, अंध स्वप्न की व्यर्थ बाढ़ का घटता जाता जल है । अमलिन-सलिला हुई सरी, शुभ-स्निग्ध कामनाओं की, छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की । अनुभवमयी मानवी-सी यह लगती प्रकृति-परी । शरद की स्वर्ण किरण बिखरी ।” (रूपाम्बरा: अज्ञेय)
इसी प्रकार एक और रचना-
किसने हमें सँजोया; जिन दीपों की सिहरन लख-लख, लाख-लाख हिय सिहरें, वे दीपक हम नहीं कि जिन पे मृदुल अंगुलियाँ विहरें हम वह ज्योतिर्मुक्ता जिसको जग ने नहीं पिरोया ।” -बालकृष्ण शर्मा “नवीन”
उपसंहार –
इस प्रकार नवगीत का हिन्दी साहित्य में प्रदार्पण हुआ और आज एक प्रचलित, लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित हो चुका है । डाॅ. अजय पाठक, केदारनाथ सिंह, अवध बिहारी श्रीवास्तव, गोपाल सिंह नेपाली, चंद्रसेन विराट, त्रिलोचन, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, आदि कई नाम आज नवगीत के पहचान हैं ।
मेरे कुछ नवगीत-
घुला हुआ है वायु में, मीठा सा विष गंध
घुला हुआ है वायु में, मीठा सा विष गंध जहँं रात दिन धू-धू जलते, राजनीति के चूल्हे बाराती को ढूंढ रहें हैं, घूम-घूम कर दूल्हे बाह पसारे स्वार्थ के करने को अनुबंध भेड़-बकरे करते जिनके, माथ झुका कर पहुँनाई बोटी-बोटी करने वह तो सुना रहा सहनाई मिथ्या मिथ्या प्रेम से बांध रखे इक बंध हिम सम उनके सारे वादे हाथ लगे सब पानी चेरी-चेरी ही रह जाती गढ़कर राजा-रानी हाथ जले है होम से फँसे हुये हम धंध।
कौन कहे कुछ बात है-
सेठों को देखा नहीं, हमने किसी कतार में फुदक-फुदक कर यहां-वहां जब चिड़िया तिनका जोड़े बाज झपट्टा मार-मार कर उनकी आशा तोड़े जीवन जीना है कठिन, दुनिया के दुस्वार में जहां आम जन चप्पल घिसते दफ्तर-दफ्तर मारे । काम एक भी सधा नही है रूके हुयें हैं सारे कौन कहे कुछ बात है, दफ्तर उनके द्वार में
इतिहास में दबे पड़े हैं-
इतिहास में दबे पड़े हैं काले हीरे मोती अखण्ड़ भारत का खण्डित होना किया जिसने स्वीकार महत्वकांक्षा के ढोल पीट कर करते रहे प्रचार आजादी के हम जनक हैं सत्ता हमारी बापोती धर्मनिरपेक्षता को संविधान का जब गढ़ा गया था प्राण बड़े वस्त्र को काट-काट कर क्यों बुना फिर परिधान पैजामा तो हरपल साथ रहा पर उपेक्षित रह गया धोती जात-पात, भाषा मजहब एक कर जब फहराया गया था तिरंगा क्यों कर देश में होता रहा फिर अबतक मजहबी दंगा वोट बैंक के कलम लिये करते रह गये लीपा-पोती आरक्षण अनुदान समता की सीढ़ी बना गया एक हथियार दीन-हीनों के हिस्से के दाने खाते रह गये होशियार भूल सफलता की कुंजी है करें स्वीकार चुनौती
-रमेश चौहान