मेरे दो नवगीत
-रमेश चौहान

मेरे दो नवगीत
(1)
प्राण प्रिये हे लेखनी,
चलिये कंटक राह
विषय उपेक्षित अरू वंचित जो,
रखिये उनको साथ ।
कोई छोड़े तो छोड़े दे,
तू न छुड़ाना हाथ ।।
मेरी अभिलाषा यही,
मेरे मन की चाह
अधिकारों को लेकर कोई
छाती ठोके तो ठोके
कर्तव्यों पर मौनी बाबा,
कभी तनिक ना वह टोके
कर्तव्यों पर बन मुखर,
लेती रहना थाह ।
परख रहे ओ नेताओं को,
तुम जनता को जाँचो ।
जब ओ नेता को गाली दे,
तुम जनता को बाँचो ।।
जनता की ही देन है,
नेतापन का भार ।
नेता कैसे धनवान हुये,
वह देखे तो देखे ।
मण्डल भी कागज पर निर्धन,
इसको कौन समेखे ।।
कैसे दोनों ओर से,
पलते भ्रष्टाचार ।
फेर छूट फोकट के पड़ कर,
नेता जो हैं चुनते ।
आज नहींं तो निश्चित ही कल,
अपने माथा धुनते ।
लोकतंत्र का देव तुम,
कौन करे उपचार ।
(2)
बासंती बयार
होले होले
बह रही है
तड़प रहा मन
दिल पर
लिये एक गहरा घाव
यादो का झरोखा
खोल रही किवाड़
आवरण से ढकी भाव
इस वक्त पर
उस वक्त को
तौल रही है
नयन तले काजल
लबो पर लाली
हाथ कंगन
कानो पर बाली
तेरी बाँहो पर
मेरी काया
झूल रही है
ईश्वर की क्रूर नियति
सड़क पर बाजार
कराहते रहे तुम
अंतिम मिलन हमारा
हाथ छुड़ा कर
चले गये तुम
तन पर लिपटी
सफेद साड़ी
हिल रही है
-रमेश चौहान
सटीक अभिव्यक्ति
सादर धन्यवाद भाई
वाह वाह! बहुत बेहतरीन, नवगीत, यथार्थ
सादर धन्यवाद बंधु