पैरा कला एक परिचय
-रमेश चौहान

धान की पुआल या पराली से कलाकृति का निर्माण, जिसे आमतौर पर पैरा कला के रूप में जाना जाता है, वास्तव मेें इसे पहले धान कला कहा जाता था, जिसमें धान की बालियों से कलाकृति बनाई जाती है इसी कड़ी में इसमें पैरा को शामिल कर लिया गया, पहले पहल पैरा को बुनकर कई प्रकार से कलाकृति बनाई गई । अब पैरा को चिपका कर आर्ट बनाई जाती है । इन सबके मिले जुले रूप को ही आज पैरा आर्ट कहते हैं । इनका प्राचीन प्रारूप एक पारंपरिक कला है जो सदियों से भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में प्रचलित है। इस अनूठी कला में कैनवास पर जटिल और जीवंत पेंटिंग बनाने के लिए सूखे धान के पुआल या “पैरा” का उपयोग किया जाता है।
पैरा कला प्राचीन रूप लोक कला का एक रूप है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है, और छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग बन गई है। पैरा कला में ज्यादातर धार्मिक, पौराणिक, या प्राकृतिक विषयों को चित्रित किया जाता रहा हैं । पैरा आर्ट तकनीकों और कौशल के विशेष संयोजन का उपयोग करके बनाया जाता है जो कि एक अद्वितीय कला है।
पैरा कला क्या है?
पैरा कला एक पारंपरिक कला है, जिसकी उत्पत्ति भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हुई थी ऐसी मान्यता है । प्रारंभिक समय में धान युक्त धान के तने से कलाकृति बनाया जाता था किन्तु समय के अनुसार इसमें सूखे धान के पुराली या “पैरा” का उपयोग करके कैनवास और कागज जैसी विभिन्न सतहों पर आकर्षक चित्रकारी की जाती है । पैरा कला सदियों से चली आ रही है और इसे छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। पहले धान की बालियों से युक्त पराली काे गूँथकर या बुनकर कलाकृतियां बनाई जाती है, जिसमें आमतौर तोरण द्वार , झालर, टोकरी (अन्न रखने का पात्र) बनाया जाता था । फिर इससे धार्मिक, पौराणिक, या प्राकृतिक विषयों को चित्रित किया जाने लगा ।
आजकल एक नई तकनीक विकसित किया गया है जिसमें पैरा जो बेलनाकार होता है को साफ करके ब्लेड की सहायता से इस प्रकार काटा जाता है वह आयताकार में परिवर्तित हो जाए फिर इस पैरे को बटर पेपर पर किसी आकृति का स्वरूप देते हुए गोंद की सहायता से चिपका दी जाती फिर इसे ड्राइंग शीट या कार्डबोर्ड पर काले कपड़े के आवरण लगा कर इस पर चिपका दिया जाता है । वास्तव में पैरा आर्ट पेंटिंग तकनीकों और विशेष कौशल के संयोजन का उपयोग करके बनाई जाती हैं जो कि पैरा कला को अद्वितीय बनाता है।
पैरा कला के लिए आवश्यक सामग्री
पैरा कला एक प्राकृतिक कला है । इसके लिए आवश्यक सामग्री प्रकृति के गोद से प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए न्यूनतम आवश्यक सामग्री और उपकरणों कुछ इस प्रकार हैं:
- धान के पुआल या “पैरा”: यह पैरा कला में प्रयुक्त प्राथमिक सामग्री है। यह धान के पौधे का सूखा तना है जिसे पतले, सपाट टुकड़ों को बनाने के लिए काटा और साफ किया जाता है जिनका उपयोग पैरा आर्ट में पेंटिंग के लिए किया जाता है।
- काटने का उपकरण: पैरा को साफ करने और काटने के लिए ब्लेड या कैंची जैसे उपकरण का उपयोग पैरा को वांछित आकार और अमाप में काटने और आकार देने के लिए किया जाता है।
- बटर पेपर: यह एक पतला और पारदर्शी कागज होता है जिसका उपयोग पैरा कला पेंटिंग के लिए आधार के रूप में किया जाता है। इसमें वांछित कलाकृति सबसे पहले ड्राइंग स्केच किया जाता है ।
- कपड़ा: बटर पेपर को ढकने के लिए एक सूती कपड़े का उपयोग किया जाता है इससे एक डार्क बैकग्राउंड बनाया जाता है ज्यादातर इसके लिए काले रंग के कपड़े का चयन किया जाता किंतु आवश्यकता अनुसार लाल या नीले जैसे गहरे रंग के कपड़ का भी प्रयोग किया जात सकता है । यह पैरा कला पेंटिंग की दृश्यता को बढ़ाता है।
- गोंद: पैरा को बटर पेपर पर चिपकाने के लिए गोंद का प्रयोग किया जाता है.
- ड्राइंग बोर्ड या कार्डबोर्ड: पेंटिंग के लिए एक सतह के रूप में एक ड्राइंग बोर्ड या कार्डबोर्ड का उपयोग किया जाता है।
- वुड आइल: पैरा आर्ट को स्थायित्व देने के लिए अंत में वुड आइल से कोड़ किया जाता है ।
- ब्रश: पैरा को आइल कोंडिंग करने लिए ब्रश की आवश्यकता होती है ।
- फ़्रेम: संपूर्ण पैरा कला पेंटिंग को प्रदर्शित करने के लिए एक फ़्रेम का उपयोग किया जाता है।
पैरा कला बनाने के लिए ये सामग्री और उपकरण आवश्यक हैं। हालांकि, उपयोग किए जाने वाले विशिष्ट उपकरण और सामग्री कलाकार की पसंद और बनाई जा रही पेंटिंग के प्रकार के आधार पर भिन्न हो सकते हैं।
पैरा कला के कुछ शिल्पकार
अपनी अनूठी शैलियों, तकनीकों और प्रेरणाओं के माध्यम से, अनेक कलाकार इस खूबसूरत कला पैरा कला के संरक्षण और विकास में योगदान दिया है। यहां कुछ पैरा आर्टिस्ट के बारे संक्षेप में जानकारी दी जा रही है, साथ में प्रत्येक के एक-एक पैरा आर्ट नमूना भी दह जा रही है-
शिवेन्द्र देवांगन (पैरा कला गुरू)
शिवेन्द्र कुमार देवांगन जी को पेरा कला गुरु होने का गौरव प्राप्त है । छ.ग. के जांजगीर-चांपा जिले के चांपा के निवासी,श्री शिवेन्द्र देवांगन के पिता का नाम श्री डॉ. बद्रीप्रसाद देवांगन एवं माता का नाम सावित्री बाई देवांगन है। आपका जन्म 25 जुलाई 1979 को हुआ । देवांगन जी बी.एस.सी. फर्स्ट ईयर तक पढ़ाई किए हैं । बचपन से ही उन्हें कला एवं कलाकारी के प्रति विशेष रुझान रहा । वे बहुमुखी कला के धनी हैं। इसी गुण के कारण देवांगन जी को लाेंगों का अपार स्नेह प्राप्त हुआ ।
चूड़ामणी सूर्यवंशी
छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के देवरी ग्राम में 1 अक्टूबर 1993 में जन्में श्री चूड़ामणी सूर्यवंशी पैरा आर्ट में एक जाना-पहचाना नाम है । आदित्य निकनेम से जाने जाने वाले सूर्यवंशी के पिता बुधराम सूर्यवंशी और माता का नाम तेरस बाई है । उन्हें बचपन से ही ड्राइंग स्केचिंग पेंटिंग का शौक था । यही कारण था वे हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करते ही छत्तीसगढ़ हस्त शिल्प विकास बोर्ड के माध्यम से पैरा आर्ट का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया और अपने जुनुन को मूर्त रूप देना प्रारंभ कर दिया । यहां श्री शिवेंद्र देवागन ने उन्हें पैरा आर्ट के बारिकियों को अच्छे से समझाया ।
राजकुमार रोहिदास
राजकुमार रोहिदास का नाम उस सूची में सम्मिलित है, जिन्होंने पैरा आर्ट को नवीन रूप प्रदान किया । 2 अप्रैल 1965 को देवरी ग्राम में जन्मे रोहिदास जी पैरा आर्ट में काफी लंबा समय व्यतीत किए हैं । इनके पिता का नाम जेठूराम एवं माता का नाम चंद्रिका बाई है । यद्यपि रोहिदास की स्कूली शिक्षा पूर्ण नहीं हो पाई, किंतु कला क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। आठवीं तक शिक्षित रोहिदास ने अपने अंदर की कला को प्लेटफार्म देने कि लिए आज से लगभग दस वर्ष पूर्व पैरा आर्ट का प्रशिक्षण प्राप्त किया। अपनी कला को निखारने के लिए सतत अभ्यास करते रहे फिर एक सफल पैरा शिल्पी के रूप पैरा आर्ट का प्रशिक्षण देते हुए पैरा आर्ट को बढ़ाने में अपना योगदान दिया। आप अभी तक कोरबा, रायपुर, सुकली, धुरकोट, अफरीद, महंत, रायगढ़ में प्रशिक्षण देने का कार्य कर चुके हैं। आगे की योजना के संबंध आप कहते हैं कि- इस पैरा आर्ट को आगे बढ़ाने के लिए हस्तशिल्प के माध्यम से इस आर्ट को छ.ग. और पूरे भारत में आगे बढ़ाना और जन – जन तक पहुंचाना है।
हर्षा वर्मा
मन्दिर हसौद,रायपुर छत्तीसगढ़ में पिता लक्ष्मण वर्मा और माता सीमा वर्मा के 01 नवंबर 2000 जन्मी कु. हर्षा वर्मा पैरा आर्टिस्ट के रूप में एक स्थापित नाम है । बीएससी कंप्यूटर साइंस तक शिक्षित हर्षा मॉनेट फाउंडेशन, मन्दिर हसौद रायपुर छत्तीसगढ़ से पैरा आर्ट का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त की हैं । पैरा आर्टिस्ट के रूप में उनके नाम पर कई उपलब्धियां दर्ज जिनमें ‘छत्तीसगढ़ महतारी’ पैरा आर्ट जो 4 फीट ऊंची के लिए गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ( 2020) में नाम दर्ज होना है । हर्षा ने पैरा आर्ट के माध्यम से ‘भारत माता’ का 8 फिट चित्र बनाई है । उन्हें छत्तीसगढ़ के राज्यपाल द्वारा प्रशस्ति सहित 20 से अधिक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं ।
उषा बनवा
जांजगीर चाम्पा जिले के अफरीद गांव की रहने वाली उषा बनवा पैरा कला को आगे बढ़ाने का काम कर रही हैं। उनका जन्म 21 जुलाई 1989 को अफरीद नामक ग्राम में हुआ । उनके पिता का नाम हीरासाय बनवा और माता का नाम फोटो बाई बनवा है । हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर उषा बनवा छ.ग.हस्तशिल्प विकास बोर्ड रायगढ़ द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त किया श्री राजकुमार रोहिदास सर, खुटे सर, और चूड़ामणि सर उनके मार्गदर्शक रहे हैं । डॉ. रामगोपाल करियारे, (डी.एस.पी) उषा जी के आर्ट को बढ़ावा देने विशेष रूप से प्रोत्साहित करते रहे ।
नंदनी बघेल
कु.नंदनी बघेल ग्राम पंचायत सुकली जिला जांजगीर-चांपा छत्तीसगढ़ की रहने वालीं है । नंदनी का जन्म 31 दिसम्बर 2002 हो हुआ है । उनके पिता का नाम अनंद राम बघेल माता का नाम सरिता देवी बघेल है । B.A. तक शिक्षित नंदनी ने हस्त शिल्प विकास बोर्ड छत्तीसगढ़ से प्रशिक्षण प्राप्त किया ।
नंदनी बघेल पैरा आर्ट के काम में महारत हासिल कर चुंकी हैं । इनकी कलाकृति स्पष्ट संप्रेषण शक्ति के साथ लोगों को आकर्षित करती हैं । इस छोटी सी आयु में ही नंदनी ने पैरा आर्ट के लिए अदृभूत कार्य कर रहीं हैं । वह आगे हस्त शिल्प पैरा में अपना नाम राष्ट्रीय स्तर तक पहुॅचाना चाहती हैं और इस आर्ट को इंटरनेशनल लेवल तक पहुंचाना चाहती हैं ।
पारंपरिक कला रूपों को संरक्षित करना
पैरा कला जैसे पारंपरिक कला रूपों को संरक्षित करना और बढ़ावा देना कई कारणों से महत्वपूर्ण है। इन कारणों पर चिंतन करना पारंपरिक कला को संरक्षित करने में मदद कर सकता है ।
पारंपरिक कला रूप देश की सांस्कृतिक विरासत का एक अनिवार्य हिस्सा हैं, और वे एक समुदाय के अद्वितीय इतिहास, रीति-रिवाजों और परंपराओं को दर्शाते हैं। वे किसी स्थान और उसके लोगों की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित और प्रसारित करने का एक तरीका हैं। पैरा कला को संरक्षित करके, हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आने वाली पीढ़ियां इस पारंपरिक कला रूप की कलात्मकता और सांस्कृतिक महत्व को सीख सकें और उसकी सराहना कर सकें।
पुस्तक उलब्ध
‘छत्तीसगढ़ की पारंपरिक कला’ शीर्षक से ई-बुक प्रकाशित किया गया है, जहां आप इस कला के बारिकियों को अच्छे से जान सकते हैं । शिल्पकारों के परिचय, शिल्प को विस्तार से जान सकते है। इच्छु व्यक्ति इसे खरीद सकता है । यह हिन्दी और अंग्रेजी दोनों माध्यम में उपलब्ध है –
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