व्यंग्य: परिधान की भाषा
-डॉ. अर्जुन दुबे
:क्या कहते हो, परिधान की भी भाषा होती है? किसकी भाषा नहीं होती है! भाषा ही तो प्रेम कराती है और भाषा ही इतनी शत्रुता कराती है कि लोग एक-दूसरे के सात पुस्त तक देखने चले जाते हैं। हां रही बात परिधान की भाषा अथवा परिधान में भाषा,वह क्या?
परिधान की भाषा में एक रूपता नहीं होती है; मशलन ,देखो, मुझे याद है कि जब मैं १०-१५ साल का था तो घर आए अतिथियों को घर के अंदर चौका में भोजन कराने के शरीर के ऊपर का परिधान अर्थात गांव में ,नरखा (शर्ट/कमीज) निकाल कर भोजन परोसा जाता था और भोजन करने वाले पहले से अपने कुर्ते निकाल कर हाथ पैर धोकर ही बैठते थे। यह सुने होंगे कि रसोईघर में महिलाएं भी सामान्य परिधान में भोजन नहीं बनाती थी। ऐसा ब्राह्मण परिवारों में पहले देखने सुनने को मिलता था। किंतु समाज में अब देखो, परिधान और भोजन बनाने वाले और करने वालों का कुक्कुर भोज तरीका। तो क्या यह ग़लत है? गलत कहां कह रहा हूं! आज के स्थान और माहौल में इसका यही विकल्प है। मतलब,कम जगह में उचित प्रबंधन।
बिना भेषे भीख नहीं मिलती है। क्या मतलब? वही, परिधान! इसमें भाषा कहां है? देखो, परिधान में भाषा बिना बोले ही समाहित रहती है।वह कैसे? भाषा तभी अपना अस्तित्व बना पाती है जब उसका कोई अर्थ निकलता है। मतलब, देखा परिधान तो समझ गया कि गृहस्थ है कि संन्यासी है अथवा भिखारी है। जब वह बोलता/बोलती है तब? तब भी एक नजर परिधान पर जाती है। राजकुमारी विद्योतमा एक विदुषी थी और वह शास्त्रार्थ में सबको हरा देती थी। उसको पराजित करने के लिए अनपढ मैले कुचैले कालिदास को पंडित के परिधान में सुसज्जित किया गया जिससे विद्योतमा समझे कि विद्वान से मुकाबला है। अगर मैले कुचैले फटे परिधान में कालिदास जाते तो संभव था कि महल के बाहर से ही भिक्षा देकर उन्हें भगा दिया जाता। सही बात है। खेल देखने में अथवा खेलने में तुम्हारी रूचि है? खेलना तो संभव नहीं है, देखता रहता हूं। क्या? अलग-अलग खेलों के लिए खेलने वाले अलग परिधान में दिखाई देते हैं। कुश्ती जैसे खेल के लिए अति न्यून परिधान में प्रतियोगिता होती है। ऐसा क्यों? एक न्यून परिधान में शरीर की भाषा बहुत कुछ बयां कर देती है और दूसरा कि अधिक परिधान में पराजित होने के खतरे बने रहते हैं। सही कहा आपने। ऐसा तो अनेक क्षेत्रों में, यथा फिल्म और मनोरंजन।
शिक्षा का परिधान अथवा परिधान में शिक्षा के बारे में बताओ। देखो, मैं भाषा पर ही केन्द्रित हूं; इसी में शिक्षा भी आती है। कोस-कोस पर पानी, चार कोस पर बानी। सुना है?
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-डॉ. अर्जुन दुबे
सेवानिवृत्त प्रोफेसर