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पेंग बाल नाटक संकलन नाटक-3: आज सुबह कितनी प्यारी सी-रवीन्द्र प्रताप सिंह

पेंग बाल नाटक संकलन नाटक-3: आज सुबह कितनी प्यारी सी-रवीन्द्र प्रताप सिंह

पेंग बाल नाटक संकलन-

पेंग बाल नाटक संकलन पांच नाटकों का संग्रह जिसे हम धारावाहिक क्रम में पेंग के पांच नाटकों का प्रकाशन कर रहे हैं । इसके तीसरे भाग में प्रस्‍तुत है बाल नाटक ‘आज सुबह कितनी प्यारी सी’ ।

नाटक-3: आज सुबह कितनी प्यारी सी

-रवीन्द्र प्रताप सिंह

पेंग बाल नाटक संकलन नाटक-3: आज सुबह कितनी प्यारी सी-रवीन्द्र प्रताप सिंह
पेंग बाल नाटक संकलन नाटक-3: आज सुबह कितनी प्यारी सी-रवीन्द्र प्रताप सिंह

पात्र

घूरू : किसान
मुरली : मेढक
प्रेम : कुत्ता

समय : सुबह
स्थान : तालाब का किनारा

(सुबह सुबह तालाब से निकल कर मुरली मेढक बाहर आ गया है। वह एक गीत गा रहा है। )
मुरली : (गीत गाते हुये )

आज सुबह कितनी प्यारी सी
हल्की -हल्की रंग बिरंगी धूप।
हरियाली है चमक रही ,
और ख़ुशी से चमक रहा है
यह शांत सरोवर अपना।
कितनी सुन्दर सुबह दिख रही
कितना सुन्दर रूप।

(अचानक घूरू किसान सिर पर डलिया में कूड़ा रखकर आता है। )
घूरू : (डलिया का कूड़ा पानी में डालते हुये। ) हाय ! हाय ! …कमर टेढ़ी हो गयी ! …बड़ी उमस है रे भैया। चलो एक डलिया और पट गया कूड़ा , लेकिन ये क्या ये तो पटता ही नहीं है गड्ढा- ताल। कोई बात नहीं कभी न कभी तो पाट ही दूंगा ! मेरा भी नाम घुरू है , न लगा दिया घूरा तो…
(घूरू बैठ जाता है। पानी में से एक कमल निकालते हुये ) अरे वाह भैया ! क्या कमल है भाई !
(मुरली के गीत में व्यवधान होता है , वह पलट कर देखता है। )
मुरली : (बुदबुदाता है ) अच्छा तो ये हैं , आ गये फिर आज… इस घूरू को मैं क्या करूँ !
घूरू : गढ्ढा पट ही नहीं रहा है… कितना कूड़ा लाऊँ , कहाँ से लाऊँ भाई …अरे थोड़ा और पड़ता तो यहाँ कुछ जमीन मिलती !
मुरली : घूरू , कितने बदमाश हो तुम !
घूरू : (चौंकते हुये ) : अरे वाह , ये तो वाह मेघा- मेढकी ! काहे रे जंगली मेढक ! काहे को हमारे रास्ते में रोज़ खड़ा हो जाता है।
मुरली : अरे मूर्ख ! मैं तेरे रास्ते में खड़ा हूँ , या तू मेरे रास्ते में…
घूरू : बड़ी बड़ी बातें करता है भाई मेढक तू , हमको मूर्ख बोला !
(अचानक दौड़ते हुये प्रेम आ जाता है। पास में बैठकर सुस्ताता है। )

मुरली : तो क्या है घुरू , तू खुद ही बता , बहुत होशियार है तो, चल ,कहा तुझे।
घुरू : वो तो हूँ ही , तुझे कितनी बार बताया है , रोज़ मिलता है तू मुझे यहाँ रोज़ बात होती है तेरी मेरी , अब तक नहीं समझा !
मुरली : वही बात अपने ऊपर ले तू, घुरू !
घुरू : क्या ?
मुरली : यही कि रोज़ बात होती है लेकिन आज तक समझ न पाया !
घुरू : मैंने बहुत समझा है। सात- सात बच्चे हैं हमारे , उनके लिए जमीन तो चाहिये। अपना काम कर रहा हूँ मैं , तुझे क्या !
मुरली : (हँसते हुये ) अपना काम कर रहा है या उनका भविष्य अन्धकार में कर रहा है !
घुरू : क्या ?
(अचानक प्रेम अकड़कर खड़ा हो जाता है। )
प्रेम : भौं -भौं – भौं….सब बातें सुन ली हैं ,मैंने ! घुरू जी आप समझ नहीं रहे !
घुरू : लो भैया , अब तो प्रेम भी आ गया ! अच्छा प्रेम ये बता इस मुरली को कि कितनी जगह चाहिये रहने को इसे…भाई हम उतनी नहीं पाटेंगे ! हम तो इसे पाट रहे हैं , जमीन निकलने के लिए थोड़ी।
प्रेम: अच्छा ! (हँसता है ) क्या सोचते है , प्रकृति से छेड़छाड़ कर आप अपने बच्चों का भविष्य बना रहे हैं ,ख़राब कर रहे हैं भाई , ख़राब कर रहे हैं , घुरू!
मुरली : आप अपनी जमीन बना नहीं रहे हो , जमीन खराब कर रहे हो ।
घुरू : (खिसियाते हुये ) हम धरती बढ़ा रहे हैं।
(प्रेम और मुरली दोनों हँसते हैं। )
प्रेम और मुरली : (साथ -साथ ): घुरू भैया , धरती क्या है , बताओ तो सही !
घुरू : हमारी जमीन , और क्या ?
प्रेम : नदियां नाले , जल के स्रोत , वन , सागर, सभी तो सामूहिक रूप से धरती हैं।
घुरू : भाई तुम दोनों लोग दिमाग में छेद कर डाले हो , अब साफ़ साफ कहो न , क्या कहना चाहते हो !
मुरली : यही कि आप इस तालाब में कूड़ा न डालें।
प्रेम : यह धरती हम सबकी है।
मुरली : सभी जीव जंतुओं का बराबर का अधिकार है इसपर।
प्रेम : इस पर जो प्राकृतिक रचना जिस रूप में है , उसी रूप में रहे।
मुरली : प्रकृति से छेड़छाड़ हम सभी के लिए घातक है।
घूरू : सही कह रहे हो… थोड़ी थोड़ी बात समझ में आ रही है हमारे ,लेकिन हमारे बच्चे सात- सात ! कहाँ जायेंगे , जमीन तो कम है हमारे पास !
प्रेम : भाई एक तो आपने जनसँख्या इतनी बढ़ाई…
घूरू : अरे ये तो भगवान कि देन है।
मुरली : तो उन्हें पढ़ा लिखा कर अच्छा बनाइये , वो अपना भविष्य स्वयं बनायेंगे।
घूरू : हाँ , बात तो सही है।
(सोच में पड़ जाता है। )
(धीरे धीरे पर्दा गिरता है। पीछे गीत सुनाई देता है।)
अपनी धरती अपना पानी ,
हवा हमारी जीवन अपना ,
जलवायु अच्छी तभी सुहानी।
आओ मिलकर हाथ बढ़ायें
धरती हरियाली, स्वच्छ बनायें
अपनी धरती , अपना पानी।
(समाप्त )

प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह

(प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। वे अंग्रेजी और हिंदी लेखन में समान रूप से सक्रिय हैं । फ़्ली मार्केट एंड अदर प्लेज़ (2014), इकोलॉग(2014) , व्हेन ब्रांचो फ्लाईज़ (2014), शेक्सपियर की सात रातें (2015) , अंतर्द्वंद (2016), चौदह फरवरी (2019),चैन कहाँ अब नैन हमारे (2018)उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। बंजारन द म्यूज(2008) , क्लाउड मून एंड अ लिटल गर्ल (2017),पथिक और प्रवाह (2016) , नीली आँखों वाली लड़की (2017), एडवेंचर्स ऑव फनी एंड बना (2018),द वर्ल्ड ऑव मावी(2020), टू वायलेट फ्लावर्स (2020) प्रोजेक्ट पेनल्टीमेट (2021) उनके काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने विभिन्न मीडिया माध्यमों के लिये सैकड़ों नाटक , कवितायेँ , समीक्षा एवं लेख लिखे हैं। लगभग दो दर्जन संकलनों में भी उनकी कवितायेँ प्रकाशित हुयी हैं। उनके लेखन एवं शिक्षण हेतु उन्हें स्वामी विवेकानंद यूथ अवार्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट , शिक्षक श्री सम्मान ,मोहन राकेश पुरस्कार, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार एस एम सिन्हा स्मृति अवार्ड जैसे सत्रह पुरस्कार प्राप्त हैं ।)

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