लोक बोलियों, प्रतीकों और कविता की आत्मा काव्य संग्रह – फिर उगना- डुमन लाल ध्रुव

सुश्री पार्वती तिर्की समकालीन हिन्दी कविता की एक सशक्त आवाज हैं जिनकी जड़ें झारखंड की आदिवासी संस्कृति, प्रकृति और स्त्री जीवन में गहराई से जुड़ी हुई हैं। गुमला जैसे जनजातीय क्षेत्र में जन्मीं पार्वती की कविताएं अपने स्वर, बिंब और कथ्य में लोक के गहन अनुभवों की साक्षी हैं। उनका काव्य संग्रह “
फिर उगना ” न केवल एक काव्यात्मक दस्तावेज है बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, प्रकृति, स्त्री चेतना और सांस्कृतिक प्रतिरोध की बहुपरतीय अभिव्यक्ति भी है।
लोक जीवन और परंपरा की आत्मा- “करम चन्दो”, “धानो नानी के गीत”, “माखा”, “खेखेल”, “तिरियो”, “सखुवा जंगल” इन कविताओं में आदिवासी पर्व, रिश्ते, लोक रीति-रिवाजों और गांव की आत्मा को चित्रित किया गया है। “करम चन्दो” में करम पर्व की छवि है – जहां प्रकृति पूजनीय है और ‘पेड़’ जीवन का हिस्सा। “धानो नानी के गीत” एक पारिवारिक स्मृति है, जो विरासत में मिले गीतों और किस्सों की वंश परंपरा को सहेजती है।
“हमारे गांव की स्त्री”, “बात करना”, “सहिया”, “स्त्रियों का शिकार पर्व”, “वे पुरुष”, “तुम्हें कौन बचाएगा”
पार्वती तिर्की की स्त्रियां केवल पीड़ा की प्रतीक नहीं हैं, वे संघर्षशील, विचारशील और अपने अस्तित्व के प्रति सजग हैं। “हमारे गांव की स्त्री” कविता में गांव की स्त्रियों के श्रम, त्याग और मूक प्रतिरोध का वर्णन है। “स्त्रियों का शिकार पर्व” पुरुषवादी परंपरा का मखौल उड़ाते हुए स्त्री के हिस्से आए ‘शिकार’ का तीखा विवरण देती है।
“नकदौना चिड़िया”, “तेलिया नदी से संवाद”, “धनुक बांध”, “घने पन का मौसम”, “पृथ्वी की दिशा में”, “बसहा बरन्द” पार्वती की कविता में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, वह एक जीवित पात्र है। “तेलिया नदी से संवाद” में नदी एक बहन, एक सखी बनकर संवाद करती है। “नकदौना चिड़िया” में पक्षी के माध्यम से स्त्री स्वतंत्रता और सहजता की लालसा झलकती है। “पृथ्वी की दिशा में” कविता, भूमि के साथ मनुष्य के रिश्ते को दार्शनिक दृष्टि से देखती है।
सुश्री पार्वती तिर्की अपनी कविताओं में संस्कृति, स्मृति और मिट्टी की पुकार को रचती है। जिसमें “खद्दी चांद”, “खोरेन”, “मांदरईकार बाबा और गीतारु आयो टईयां”, “रिची पीड़ी”, “धूमकुड़िया”, “गोदना” की कविताओं में आदिवासी परंपरा, गीत-संगीत, रीति-रिवाज, वाद्य और प्रतीक रूपों की स्मृतियां संजोई गई हैं। “धूमकुड़िया” में आदिवासी युवतियों की स्वतंत्र जीवनशैली, सामाजिक बदलाव और आधुनिकता के साथ टकराव को रेखांकित किया गया है। “गोदना” में शरीर पर उकेरी गई स्मृतियों की प्रतीकात्मक भाषा है।
“पलायन”, “लौटना”, “सभ्यता”, “डंडी दिम कत्था सुनो तो”, “भागजोगनी”, “बसहा बरन्द”, “कोई नहीं देखता”
कवयित्री सुश्री पार्वती तिर्की अपनी कविताओं में उस दर्द की साक्षी हैं जो विकास और शहरीकरण के नाम पर आदिवासी जनजीवन को उजाड़ रहा है। “पलायन” और “लौटना” में विस्थापितों की पीड़ा और घर लौटने की आस स्पष्ट दिखती है। “सभ्यता” में तथाकथित आधुनिकता और मूल संस्कृति के बीच के टकराव को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा गया है।
“उनके विद्रोह की भाषा”, “बंडा जेठ की बारिश”, “महंगा”, “चालाटोंका”, “समय बीत रहा”, “आसरा”, “चल साथी” इन कविताओं में आदिवासी समाज का वह विद्रोही स्वर है, जो अपने अस्तित्व और अधिकार के लिए उठता है। “उनके विद्रोह की भाषा” में शोषण के विरुद्ध मौन आक्रोश है। “बंडा जेठ की बारिश” में समाज में झुलसती उम्मीदें झलकती हैं। “महंगा” में संसाधनों की लूट और “आसरा” में भविष्य की टोह है।
कवयित्री पार्वती तिर्की की कविता की भाषा हृदय की भाषा है। उसमें नगाड़ों की थाप, मांदर की गूंज, और धान की खुशबू है। उनकी शैली में मिथकीयता, प्रतीकवाद, और कथात्मकता का अद्भुत संतुलन है। वे लोक बोलियों, आदिवासी शब्दों और प्रतीकों को बड़ी सहजता से कविता की आत्मा में पिरोती हैं।
“फिर उगना” केवल एक काव्य संग्रह नहीं, यह एक सांस्कृतिक दस्तावेज है जो आदिवासी जीवन, स्त्री चेतना, प्रकृति की पुकार और प्रतिरोध की आवाज को सम्मिलित करता है। पार्वती तिर्की की कविताएं न केवल हिन्दी कविता की दुनिया को समृद्ध करती हैं बल्कि एक नई भाषिक-सांस्कृतिक चेतना की ओर भी संकेत करती हैं। वे हमें सिखाती हैं कि मिट्टी से जुड़े रहकर भी आसमान छूया जा सकता है।
– डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी ( छ.ग. )
पिन – 493773
मो.- 9424210208







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