पितृ पक्ष में कितनी यादें
-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
पितृ पक्ष में कितनी यादें
1. बिखरे भावों के रूप परिष्कृत
बिखरे भावों के रूप परिष्कृत
बन कर स्वप्न रूप में छाये
बीते दिन कर्तव्य निरत रह
रात्रि पहर मन कहने आये।
बीत पल की एक सुहानी
लड़ी बनाकर घटनाओं की ,
शिक्षण की , अनुशासन की
कर्तव्य बोध अनुशीलन की
फिर अपनेपन की एक कहानी
कितनी स्मृतियाँ आ जातीं ,
कर्म , युद्ध , कुल मर्यादा की
कितनी आकृतियां बन जातीं
बीते दिन के अभियानों की।
यूँ तो अक्सर ही आती हैं
निरत कर्म में , ज्यों चर्चा में
जिसमे जीवन के प्रश्नों की
मिलती कितनी ही व्याख्यायें,
किन्तु विषय पर खुद से चिंतन
वह भी , जब खुद से निसृत हो
पितृ पक्ष से बढ़कर बेहतर
कैसा , किसके अंतर्गत हो।
बाबा आजी से लेकर
दादाओं की स्मृतियों तक
तात खड़े सम्मुख मिलते हैं
हर दिन अपने मूल्य सजाकर।
जीवन चक्र नियत है
स्थिर है , लिपि जो भी हो
कहते हैं एक नियत कर्मरत
सब जाते हैं पितृ लोक में।
एक नयी सत्ता है स्थिर
परमेश्वर की , प्रकृति बनायी
कर्म सृजित परिणामों को ले
जायेंगे करमोपरांत सब ,
कर्म निरत भौतिकता में
हों चाहे कितने दृश्यमान
कल को ये ही कितने
स्थित होंगे पितृ समान।
जीवन चक्र नियत है
स्थिर संघटकों को करके
आज बनेगा कल ,
फिर से वह
नया आज लेकर आयेगा।
सृष्टि यही है , कर्म यही है
जीवन का तो मर्म यही है।
पितृ पक्ष में कितनी यादें
आती निरत निरंतर हरक्षण ।
2. किन्तु उनके गूंजते हैं शब्द (मेरे पिता स्वर्गीय डॉ राजेन्द्र बहादुर सिंह के लिये)
सृष्टि के विस्तार का कुछ मूल्य ले धारित
और संस्कृति की सघन तरु अमृत छाया
मेघ के रूपक सजा फिर कभी ले ,
आत्मशक्ति का विहंगम अन्वेष कर फिर – फिर ,
मन अकेला चल निकलता सोच के पथ पर
और मिलते हैं वहां कुछ बिंदु स्थित ,
परिवार से लेकर महापरिवार तक ,
जो राष्ट्र बन फैला अपरिमित एक सिरजन
बोलते हैं सैकड़ों ही सब , गूंजती ध्वनियाँ निरंतर
जो सहस्त्रों वर्ष से ब्रह्माण्ड में ,
रूप कितने धर , कहाँ तक सोच कर
फ़ैल कर गुंजित हुयी हुआ है रूप बस।
पितृपक्षों में उन्ही के भाव हर दम ,
ले नये सन्देश, आते हैं सुनाते ,
इन्हे में हैं पुंज बन स्थिर
पितृ मेरे जो तिरोहित हो चुके
पुंज बन जो चल अथक ,अब मिल सत्य में
किन्तु उनके गूंजते हैं शब्द
और आते बन महसंबल
उनके बनाये मार्ग , अब हैं शक्त उन्नत।
3. मूल्यनिष्ठ होना आत्मा का
जो स्मृतियों में साधारण थे
अब आये बनकर बिंदु प्रबल ,
साधारण से जो कथन दिखे थे
वे बनकर आये जीवन सम्बल।
मूल्यनिष्ठ होना आत्मा का
स्वयं सिद्ध कर मार्ग बनाना
जीवन का यह मर्म दिख रहा
कालक्रम में इसको जाना।
पितृपक्ष के अंतिम दिन सब
जब पितृों का गमनकाल है
एक एक ध्वनि गुंजित है।
बन सजीव स्मृतियाँ सब।
सब आशीषों से सिंचित कर
जायेंगे अपने नियतलोक में
हमको उनके आदर्शों पर
संयम से चलना मर्त्यलोक में।
चक्र नियत है जीवन का
स्थिर है , पूर्व लिखित है ,
मॉयनिष्ठ हो मानव को
चलते रहना श्रेयस्कर है।
शायद मानव धर्म यही है
“मानवधर्म” दिखा न पाये,
रही पाण्डुलिपि प्रक्रिया में
जीवन के क्षण लुप्त हुए
किन्तु भाव में इसकी शिक्षा
सदा सर्वदा , चित्रित स्थित ,
क्या करना सिद्धांत प्रकाशन ,
कार्यसंस्कृति में यह परिलक्षित।
एक एक सिद्धांत बिंदु को
क्रिया रूप में चित्रित देखा ,
कर्तव्यों को जीकर तुमने
उसे सोच लिपिबद्ध किया।
कर्तव्यों को जीना ,
उसपर सार्थक गति लाना
मर्म यही है जीवन का
शयद मानव धर्म यही है।
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
(प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। वे अंग्रेजी और हिंदी लेखन में समान रूप से सक्रिय हैं । फ़्ली मार्केट एंड अदर प्लेज़ (2014), इकोलॉग(2014) , व्हेन ब्रांचो फ्लाईज़ (2014), शेक्सपियर की सात रातें (2015) , अंतर्द्वंद (2016), चौदह फरवरी (2019),चैन कहाँ अब नैन हमारे (2018)उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। बंजारन द म्यूज(2008) , क्लाउड मून एंड अ लिटल गर्ल (2017),पथिक और प्रवाह (2016) , नीली आँखों वाली लड़की (2017), एडवेंचर्स ऑव फनी एंड बना (2018),द वर्ल्ड ऑव मावी(2020), टू वायलेट फ्लावर्स(2020) प्रोजेक्ट पेनल्टीमेट (2021) उनके काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने विभिन्न मीडिया माध्यमों के लिये सैकड़ों नाटक , कवितायेँ , समीक्षा एवं लेख लिखे हैं। लगभग दो दर्जन संकलनों में भी उनकी कवितायेँ प्रकाशित हुयी हैं। उनके लेखन एवं शिक्षण हेतु उन्हें स्वामी विवेकानंद यूथ अवार्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट , शिक्षक श्री सम्मान ,मोहन राकेश पुरस्कार, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार एस एम सिन्हा स्मृति अवार्ड जैसे सत्रह पुरस्कार प्राप्त हैं ।)