लघु व्यंग्य आलेख:प्रतिमान के बहाने यथार्थ का चित्रण
-डॉ. अर्जुन दूबे
‘प्रतिमान के बहाने यथार्थ का चित्रण’ में डॉ. अर्जुन दूबे का तीन लघु व्यंग्य आलेख प्रकाशित किए जा रहे हैं । सती रहस्य, बटवारा एवं दोषारोपण तथा सौंदर्य की तलाश में । इन तीनों आलेख में प्रतिमान के बहाने यथार्थ का चित्रण किया गया है ।

सती रहस्य
मैं शिव और सती के परस्पर प्रेम के बारे में मनन करता हूं तो पाता हूं, मैं क्या पाउंगा ? पाने के लिए नहीं वैसा, तो कुछ ही अनुपात मे अपनी जीवन संगिनी के प्रति परालौकिक प्रेम धारण किया हो । यही कि शिव और सती का प्रेम अलौकिक और अवर्णनीय था। यह विशुद्ध नैसर्गिक था, संसारिक आचार संहिताओं ने बहुत कोशिश की प्रेम में बाधा डालने में किंतु उनका आपस में प्रेम इतना स्वाभाविक रूप में सशक्त था कि वे पवित्र संसारिक बंधनों में भी बंधे। दोनो एक दूसरे के प्रति समान रूप में आकर्षित थे। यूरोप से वैलेंटाइन डे आया और उसके सूत्रधार को संत कहा जाने लगा है । किंतु क्या कोई सुर, असुर, देव, दानव, किन्नर और गंदर्व आदि किसी भी रूप में उनके प्रेम के आस पास ठहरते हैं? किसी को भी किसी को प्राप्त करने करने के लिए तपस्या अथवा याचना अथवा प्रेम को व्यक्त करने की जरूरत नहीं पड़ी थी।
ऐसा भी नहीं था कि वे प्रेम में रूठे नहीं हो! रूठी जब सती हो गयी तो शिव जी ने मना करके राय भर दिया था किंतु न जाने के लिए रोका नहीं । आत्म अन्वेषण भी होना चाहिए । अन्वेषण हुआ और प्रेम को ग्लानि भी हुई और अंतत: सती की भौतिक इहलीला समाप्त हो गयी । शिव के प्रेम से नहीं रहा गया, क्रोध की परिणिति ने प्रेम बाधक का वध कर दिया पर पुन: उसे जीवित भी कर दिया । पर उनका हुआ क्या? शिव शव समान हो गये। भौतिक प्रेम के प्रति आशक्ति नहीं कम थी । बहुत समय लगा स़यत होने में।
पुन: प्रेम की प्राप्ति हुई किंतु सरलता से नही। सती जिनका प्रेम निश्चल था, जो अव्यक्त भी था, अब पार्वती रूप में तपस्या के माध्यम से परिपक्व हो चुका था और वैवाहिक संबंध ऐसे बने जिनका विभाजन संभव नही था । महाकवि कालिदास के शब्दों में –
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
पार्वती और शिव के संबंध ऐसे हैं जैसे कि भाव के वाणी में आते ही अर्थ स्पष्ट है; एक शब्द पितरौ से दोनो के संबध अर्थ सहित लिंग भेद के विकार से रहित होकर जग को दीप्तिमान किये हुए हैं, भोले शिव और माता पार्वती जगत कल्याण करें ।
बटवारा एवं दोषारोपण:एक नियति
बटवारा भी बहुत ही विचित्र ढंग से होता है, वह कैसे? दो व्यक्तियों के बीच के बटवारे में परेशानी कम होती है; विवाद होने पर पंच फैसला कर देते है, नहीं आपसी समझ हुई तो कानून का सहारा लेते हैं यद्यपि यह खर्चीला मार्ग है; घरों में बटवारा होने में दिक्कतें कम आती हैं, कोई जबरदस्ती करता है तो कमजोर के पक्ष में कम से भावात्मक समर्थन मिल जाता है; कुछ नहीं हो पाता है तो कमजोर अपना हिस्सा किसी जबरदस्त को औने पौने दाम में दे देता है। ऐसी अनेक घटनाएं अमूमन घटती रहती है । आपसी समझ हो तो कोई परेशानी नहीं, चाहे मामले व्यक्तियों के बीच की हो अथवा राष्ट्रों के।
व्यक्ति से बड़ा व्यक्तियों की पटीदारी जिसमें ऐसे ही मामले सामने आते हैं; थोडा आगे और बढे़ तो गांव जहां मामले दूसरे तरह के हो जाते हैं । वैसे स्वार्थ दोनों मे एक समान होते हैं किंतु विकास मुद्दा जुड़ जाता है जिससे स्वार्थ की पूर्ति स्वत: हो जाती है।
गावं से बढें तो ब्लाक, फिर तहसील, फिर जिला ,फिर मंडल, फिर प्रदेश। व्यक्ति से उतरोत्तर आगे बढ़ने पर बटवारा दुरूह होता जाता है। सबसे कठिन प्रदेश बटवारे का हो जाता है। कारण स्पषट है, वही भेदभाव और शासन करने की मनोवृति; माध्यम विकास, क्षेत्रीय संतुलन-असंतुल आदि होते हैं।
देश का बटवारा सबसे कठिन होता है। कारण बडे़ रूप में शासन करने की इच्छा जो प्राय: जीवों मे पायी जाती है, विशेषकर मानवों मे। विभाजन को रोकने का भरपूर प्रयास होता है; सुरक्षा बढा दी जाती है; देश के बटवारे की मांग करने वाले देशद्रोही भी करार कर दिये जाते हैं।
शासक साम, दाम, दंड भेद के द्वारा विभाजन रोकता है; यही नहीं अपनी सीमा को वृहत्तर अभिभाज्य बनाने के लिए युद्ध भी करता है जिसे कुछ लोग विस्तारवाद कहते हैं।
विडंबना है कि व्यक्ति व्यक्ति से बटवारे मे कोई अड़चन नहीं होती है और न ही बटवारा करने में कोई बहुत हीलाहवाली करता है, कारण स्वार्थ के साथ-साथ और पचड़ों से दूर होना आदि संभवत: रहता है किंतु इन सबके रहते हुए भी राष्ट्र का बटवारा नहीं चाहता है और यदि हो भी गया तो दोषारोपण करते रहता है, दोषारोपण तो व्यक्ति व्यक्ति के बटवारे मे भी होता है बस्तुत: बटवारा दोषारोपण से ही प्रारंभ होता है ।
सौंदर्य की तलाश में
वह तोड़ती पत्थर और दो बैलो की जोड़ी पर चिंतन करता हूं तो सोचता हूं कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी और मुंशी प्रेमचंद ने ऐसे विषय लेकर रचनाएं की जो साहित्य जगत में मील के पत्थर हैं। इन रचनाओं में संघर्षं और सौंदर्य दोनो हैं।
समय बदल गया है। पत्थर तोड़ने वाली मशीनें हैं, कहां सौंदर्य तलाश करें! बैल कहां हैं, मुहावरे के रुप मे ही प्रयोग कर लें! तो क्या सौंदर्य समस्याओं तक सीमित है? समस्या समाप्त, सौंदर्य भी लुप्त। देखो, समस्या कभी समाप्त नहीं होती है और सौंदर्य भी शास्वत है; समस्या का रुप बदल जाता है और सौंदर्य के प्रति देखने का नजरिया भी, किंतु बने रहेंगे दोनो ही।
देखो समस्या जनित क्रांति ऐंग्री यंग मैन के द्वारा हुई जिसे साहित्य में नाटककार जान ओसबोर्न ने अपनी कृति लुक बैक इन ऐंगर में लिया । पढा लिखा विश्वविद्यालय स्नातक जिमी पोर्टर चाय स्टाल चलाता है। विषय वस्तु साठ के दशक के हिसाब से आंदोलनात्मक रही है जिससे ऐंग्री यंग मैन का जन्म हुआ जो परिवर्तन करने के लिए क्रोध तो करता है किंतु नहीं कर पाने में विवश हो जाता है। यही विवशता साहित्य का सौंदर्य है।
विवशता शास्वत है; आज कल हमारे देश मे आई आई टी चाय स्टाल, एम..बी.ए. फूड प्लाजा बहुतायत दिख रहे हैं । आने वाले समय में अथवा अभी से ही डाक्टर्स किराना स्टोर्स जिसमें दवायें भी उपलब्ध हैं लोगों को आकर्षित करेंगी । यह आकर्षण ही तो सौंदर्य का प्रकार है।
वह तोड़ती पत्थर और घासवाली में महिला चरित्र हैं जिसमें विवशता और सौंदर्य दोनो परिलक्षित होता है। श्रम की अधिकता और वस्त्र की अपर्याप्तता सौंदर्य के कारक बने।
आज भी नारी चरित्र माध्यम तो है ,विवशता भी है वस्त्र के साथ होने में नहीं, न्यून वस्त्र के साथ दिखने की; कारण वही अर्थ प्राप्ति–कम या अधिक.क्या इसे सौंदर्य की श्रेणी में रखें!
-डॉ. अर्जुन दूबे