प्रो. रवीन्द्र प्रताप सिंह की अतुकांत कवितायें
1.प्रारब्ध यूँ ही यार
जानते हो दोस्त
लोगों ने सुनाये पास आकर
कान में कुछ फुसफुसाकर
कितनी कुटिल फूंके मार ,
अब कहो,
ये न फंसे तो क्या करें ?
हाँ फूल कर कद्दू हुआ है मुंड
क्यूंकि आ गिरा है ताप ,
कुछ अचानक अकस्मात् !
लोग भी सटने लगे हैं
चींटियों की कौम तो , हमने सुनी है ,
जहाँ देखा कुछ लिसलिसा आ लगी !
बुद्धि का कुछ तो करो प्रयोग
वरना सनक जायेगा विवेक ,
और फिर
क्या हाथ होगा यार
कौन जाने प्रारब्ध का प्रहार !
और फिर
फिर बसंती राग छेड़ेगा पवन
प्रकृति से बिंध नयी संस्कृति गीत
नए स्वर में , नए शब्दों को संजोये
निकल कर बहने लगेंगे , जानते हो !
देखना, हम भी चलेंगे ,
तुम भी चलोगे,
फिर कहीं पर बैठ कर
इतिहास की
परिहास की
संत्रास की बातें करेंगे ,
तुम कुछ कहोगे
हम कुछ कहेंगे
फिर फंसेगा पेंच ,
उलझा रहेगा
इसी आईने में
छिपा सन्देश ,
फिर ;
यह भी सही
वह भी सही
फुदक कर जा दूर
छिटकेगा फंसा वह पेंच
और फिर , अंधड़ चलेगा दोस्त !
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह