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सांध्यदीप डॉ. अशोक आकाश रचित एक प्रलंब काव्य है, जो वद्धविमर्श पर लिखी गई है । इस कृति के संदर्भ में सुप्रसिद्ध भाषाविद डॉ. विनय पाठक लिखते हैं –
”किन्नर-व्यथा की तरह ‘सांध्यदीप’ भी प्रलंब-काव्य का प्रकर्ष है। डॉ. अशोक आकाश ने एक ओर जहाँ किन्नर अर्थात् लैगिक विकलांग-विमर्श को उत्कर्ष पर उपस्थित किया है, वहीं वृद्ध-विमर्श को भी ‘सांध्यदीप’ के माध्यम से समृद्ध किया है। ‘सांध्यदीप-शीर्षक वृद्धावस्था की सार्थकता को सिद्ध करता है। सूर्योदय यदि जीवनारंभ है तो उसका मध्याहन युवा-काल और सूर्यास्त वृद्धावस्था का सार्थक प्रतीकात्मक स्वरूप भी। इसके बाद तम से संघर्षरत् सांध्य दीपक की सिद्धि-संयोजना। इस शक्ति-साधना से संपूरित मनुज मृत्यु को विस्मृत करके सुव्यवस्थित और सुविचारित जीवन जीता है.
“विस्मृत कर मृत्यु-शैया । खेते सुदिव्य जीवन-नैया । ‘सांध्यदीप जड़ता-रूपी अंधकार को चीरकर भ्रम के भँवर में भटके पथिक को राह दिखाता है.
Description
सांध्यदीप (वृद्ध विमर्श विषयक प्रलंब काव्य)
सांध्यदीप डॉ. अशोक आकाश रचित एक प्रलंब काव्य है, जो वद्धविमर्श पर लिखी गई है । इस कृति के संदर्भ में सुप्रसिद्ध भाषाविद डॉ. विनय पाठक लिखते हैं –
”किन्नर-व्यथा की तरह ‘सांध्यदीप’ भी प्रलंब-काव्य का प्रकर्ष है। डॉ. अशोक आकाश ने एक ओर जहाँ किन्नर अर्थात् लैगिक विकलांग-विमर्श को उत्कर्ष पर उपस्थित किया है, वहीं वृद्ध-विमर्श को भी ‘सांध्यदीप’ के माध्यम से समृद्ध किया है। ‘सांध्यदीप-शीर्षक वृद्धावस्था की सार्थकता को सिद्ध करता है। सूर्योदय यदि जीवनारंभ है तो उसका मध्याहन युवा-काल और सूर्यास्त वृद्धावस्था का सार्थक प्रतीकात्मक स्वरूप भी। इसके बाद तम से संघर्षरत् सांध्य दीपक की सिद्धि-संयोजना। इस शक्ति-साधना से संपूरित मनुज मृत्यु को विस्मृत करके सुव्यवस्थित और सुविचारित जीवन जीता है.
“विस्मृत कर मृत्यु-शैया । खेते सुदिव्य जीवन-नैया । ‘सांध्यदीप जड़ता-रूपी अंधकार को चीरकर भ्रम के भँवर में भटके पथिक को राह दिखाता है.
सांध्यदीप है ज्ञानपुंज, कर उज्ज्वल उनके तम को ।।
बातों से तोड़े बंधन को। अंधकार में भटके हैं जो,
ज्वलित दीप रवि रक्तिम आभा,
दूर करे हर उलझन को । अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को।।
सांध्यदीप सघन-गहन अंधेरों से जूझता नवसृजन की प्रत्याशा तथा दिशा-निर्देशक हैं, इसीलिये इनकी सेवा करना हम सब
नैतिक कर्तव्य है।
ज्ञानी जन की आशीष छाया,
पल में ही दुख हर लेता।
इतने सरल ये महा गरल भी
शुचि जग हित खुद वर लेता।।
यही है जग में जो गैरों का,
खुद चलकर दुख हर लेता,
सदा सुखी रहते हैं वो जो,
इनके चरण रज धर लेता ।।
अप्रतिम होती उनकी ओज,
जो खिल मुरझाती हर रोज
जुगनू अंधेरे में चमक कर और कण-कण को जग-मग करके, झिगुर झीं-झीं की घुंघरू-ध्वनि झंकृत करके, दादुर टर्र-टर्र से कुहक कर गाते और भोर होते ही गुनगुन करके भ्रमरों द्वारा फूलों का रसपान करके मंडराते प्रकारांतर में सांध्यदीप को प्रणोदित ही तो
करते हैं –
अमा-निशा जुगनू की फौजें,
बन ठन गगन दमक जाते।
लोहा लेती गहनतिमिर से,
कण-कण कनक खनक जाते ।।
झिंगुरें बांधे पग घुंघरू,
दादुर मगन कुहक गाते।
कड़क जाय छन बिरहन छाती,
तन-मन अगन दहक जाते।।
भोर हुआ भौंरों की गुनगुन,
फूलों से लेता मधु चुन
यह कृति वस्तुत: एक पठनीयकृति है ।
चौहान जी आत्मीय अभिनंदन आभार
🌹🌹🌹🙏🙏🙏
सांध्यदीप आपकी अमर कृति है भय्या जी ।
आपको बहुत बहुत बधाई हो