पुरी यात्रा संस्मरण:
पुकार
-तुलसी देवी तिवारी
पुरी यात्रा संस्मरण: पुकार भाग-1
पुरी यात्रा संस्मरण पुकार भाग-1
सुरम्य दक्षिण भारत के दर्शन कर हमारी टीम 7 नवंबर को वापस लौटी थी। मेरी जनम की साध पूरी हुई, भारत माता के चरणों का चुम्बन करने की। मेरे कुछ दिन तो, घर-परिवार, हित मित्रों में प्रसाद के साथ-साथ देखे गये स्थानों की चर्चा में व्यतीत हो गये। तत्पश्चात् चरण चुम्बन की रचना में लग गई। देखे गये स्थानों की संख्या बहुत थी, हमने एक एक दिन में कई कई मंदिरों के दर्शन किये थे। जैसे जल्दी बाजी में सामान रखते जाने की आदत है वैसी ही स्थिति स्मृति कोष की है। वस्तुयें रखकर भूल जाने की आदत ने जीवन का बहुत सा समय वस्तुओं को खोजन में व्यर्थ किया है। लिखना प्रारंभ किया तो लगा कि लिखने लायक कुछ विशेष जमा नहीं है स्मृति कोश में। जगह-जगह से खरीद कर लाई गई पुस्तकें, साथियों की डायरियों के अंश, मेरी डायरी, इन्टरनेट आदि से प्रचुर जानकारी एकत्र कर मैंने चरण चुम्बन की रचना प्रारंभ की। एक बार पुनः मानसिक यात्रा पर निकल पड़ी। ज्यों-ज्योंति यात्रा आगे बढ़ी, मैं उसमें डुबती चली गई। देखे गये दृश्य, प्राप्त जानकारियाँ, अनुभूतियाँ मानस पटल पर साकार हो उठीं। कुछ देर तत्संबंधी साहित्य का अध्ययन मनन करती, कुछ देर अपने अनुभव से संलग्न करती, कुछ देर छाया चित्र देखती, तब कुछ देर लिख पाती, लेखन का कार्य धीमी गति से आगे बढ़ रहा था। अभी हमें लौटे दो माह ही बीते थे, कि साथियों ने (श्री ठाकुरराम पटेल का परिवार, त्रिपाठी भैया, दीदी सहित कुल 22 लोग हो गये) श्री जगन्नाथ पुरी जाने का कार्यक्रम बना डाला। मुझसे पूछा तो मैंने सहज स्वीकृति दे दी, परन्तु वास्तव में यदि पूछा जाये तो मैं पहले चरण चुम्बन को पूर्ण करना चाहती थी। स्वीकृति का प्रमुख कारण यह था कि पति महोदय (आगे पंडित जी लिखूँगी) का पुरी जाने का कार्यक्रम वर्षों से टलता आया था, उन्हें बड़ी साध थी जगन्नाथ स्वामी के दर्शन की।
चूँकि टिकिट अलग-अलग ली जा रही थी, हमें आरक्षण नहीं मिल सका। वेदमती भाभी बहुत दिनों से अनवरत एकादशी व्रत करतीं आ रहीं थीं, किन्तु अब उनसे सम्हलता नहीं, इसीलिए श्रीपुरी में एकादशी व्रत का उद्यापन करना चाहतीं थीं, श्री पटेल जी की इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य यही था, घूमना फिरना मौज, पुरी जाकर यदि चिल्का झील, कोणार्क मंदिर नहीं देखते तो क्या देखते ? यात्रा मार्ग भी संतोष जनक नहीं, बिलासपुर से झाड़सुगड़ा, लोकल से जाकर झाड़सुगड़ा में ट्रेन बदलकर तपस्विनी एक्सप्रेस से पुरी जाना था।
अपना शरीर होता तो कोई बात नहीं थी, तकलीफ आराम सहते चली ही जाती, पंडित जी का स्वास्थ्य इस योग्य न था कि इस तरह की यात्रा पर जाने का खतरा उठाया जा सके। अतः मैंने त्रिपाठी भैया को विनयपूर्वक मना कर दिया था। वे बड़े उदार हैं, हमारा टिकिट वापस कर यह वादा भी किया कि आप सबको लेकर मैं एक बार फिर से पूरी जाऊँगा। यात्रा पर चले गये थे। वहाँ से आकर यात्रा वृतान्त सुनाया था, मेरे मन में श्री पदों के दर्शन की आकुलता बढ़ने लगी थी। ‘‘बने हे, दीदी मोला छोड़ के चल दिये, तैं मोला लेगना नई चाहत रहे।’’ मिलने आई देवकी दीदी को छेड़ने की नियत से चुटकी ली थी मैंने।
‘‘मोला एक बने नी लागिस, कोनो झन रहितिन मोर बहिनी रई जातिस, अब्बड़ सुन्ना लागिस इमान’’। दीदी के स्वर में सच्चाई थी। पंडित जी ने कह दिया, जिस दिन का कन्फर्म रिजर्वेशन मिलेगा उसी दिन चल पड़ेंगे, स्वामी जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए। वे प्रयास में जुट गये। यात्रा के सारे प्रबंध उन्हीं के जिम्में होते हैं यह तो सुख के पल के पाठक अच्छी तरह जानते हैं। हमारे ज्यादातर साथी अभी-अभी पुरी से लौटे थे, अतः साथी जुटाना भी एक काम था। त्रिपाठी जी के बड़े भाई हरिहर प्रसाद बाजपेयी और भाभी प्रभा देवी, हमारी ही तरह यात्रा के इच्छुक थे, उन्हें भी किसी जिम्मेदार व्यक्ति की तलाश थी जो उन्हें स्वामी के दर्शन करा सके। उनका 10 वर्षीय पोता वेदान्त भी यात्रा के लिए तैयार हो गया। हमें तीस मार्च 2013 दिन शनिवार के लिए आरक्षण टिकिट प्राप्त हुआ। हमारे पास यात्रा की तैयारी के लिए पर्याप्त समय था। हमारी यात्रा कुल पाँच दिनोें की थी, पुरी का सुखदायी मौसम अपनी याद से ही मन को तनाव मुक्त बना रहा था। हाँ एक परेशानी अवश्य थी, स्कूल में परीक्षा प्रारम्भ होने वाली थी, प्रधान पाठक ने दबी जबान से मुझे मेरा कत्र्तव्य स्मरण कराया – ‘‘मैडम ! स्कूल पहले है उसके बाद पूजा पाठ है। आप को इस समय नहीं जाना चाहिये’’।
‘‘मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी, यूँ मेरा कोर्स कम्पलीट हो चुका था, छात्रों को महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर दुबारा-तिबारा बता चुकी थी, साधन की दृष्टि से हमारा स्कूल सम्पन्न है। स्टाफ की कोई कमी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा आपस में सामंजस्य भी है। अतः सब ओर से मैं अपराधबोध से मुक्त थी। 27 मार्च को होली थी और 30 मार्च को यात्रा, अर्थात् खुशियाँ हमारे जीवन में प्रकाश भरने को आतुर थीं। अभी होली का ख़ुमार उतरा नहीं था, घर गुझिये, मालपुए, बालूशाही आदि की सुगन्ध से भरा हुआ था, दीवारों पर भाँति-भाँति के रंग चित्र-विचित्र आकृति बना रहे थे, मैंने यात्रा के लिए भरपूर नाश्ता रख लिया, कैमरे को दुरूस्त करवा लिया, इसे किसी बच्चे ने खेल-खेल में पटक दिया था। रास्तें में पढ़ने के लिए किताबें रख लीं। पंडित जी के कपड़े, सुर्ती-सुपाड़ी की थैली (भरी हुई) जमा ली। (क्योंकि इसके बिना हमारी यात्रा के रंग में भंग पड़ सकता था।) हम हरिद्वार पुरी उत्कल एक्सप्रेस से पुरी जा रहे थे। इसमें हमें लम्बा चक्कर लगाकर अपेक्षाकृत अधिक समय एवं किराया खर्च करना पड़ रहा था, परन्तु बार-बार उतरने चढ़ने के झंझट से मुक्ति थी।
हम सात लोग शनिवार दोपहर 12 बजे बिलासपुर रेल्वे स्टेशन पर प्लेटफार्म नं. 4 पर मिले। हमें छोड़ने हमारे बच्चे पहुँचे थे, विवेक (खजाना) दुकान बढ़ाकर कर पहुँच गया, मंझला बेटा, योगेश तिवारी थाने से समय निकालकर आ गया। बेटे बार-बार पापा के विषय में सतर्क रहने की हिदायतें दे रहे थे, देवकी दीदी का मंझला पुत्र हमें विदा करने आया था, इसी प्रकार बाजपेयी जी का कनिष्ठ पुत्र जिसकी बिलासपुर राजीव प्लाजा में मोबाइल शाॅप है वह विदा करने आया था। सभी हमें कुछ समझा रहे थे और हम जो जीवन की लंबी दौड़ जीते हुए लोग हैं मासूम बच्चों की तरह सुन रहे थे। यह भी अच्छा लगता है जब अपने जन्माये बच्चे समझदारी की बातों के साथ माता-पिता को अपने से कम होशियार समझने लगते हैं। उनका प्रेम प्रकट होता है इस प्रकार । मेरे तीनों बेटे, मुझे पहले दर्जे की बेवकूफ, दुर्बल और अनुभवहीन समझते हैं। उनकी बातें सुनकर मैं मन ही मन हँसती हूँ, उनके अपने प्रति लागाव को अनुभव करती हूँ। शेष मनोरंजन की बातें होती हैं मेरे लिए। इसके पीछे भी एक कारण है, मैं जानती हूँ, ऐसा हर माँ-बाप और बच्चों के बीच होता है। एक छोटी सी घटना मेरे स्मृति पटल पर पत्थर के अक्षर की तरह अंकित है। मेरी उम्र उस समय मुश्किल से पाँच वर्ष रही होगी, हम अपने गंगा के किनारे वाले पैतृक गाँव कोट (उत्तरप्रदेश) में रहते थे, एक शाम मैं अपने पिता जी के साथ मुहल्ले के किराने की दुकान से वापस आ रही थी, हमने गुड़ और सरसों तेल खरीदा था, मैं शुरू से ही जिद्द कर रही थी कि दोनों सामान मैं ही घर तक ले चलूँगी, पिता जी ने होशियारी से मुझे गुड़ पकड़ा दिया, उनके पास तेल की बोतल थी। मैंने उनका चलना मुश्किल कर दिया था, ‘‘बाबुजी, गुड़ तूँल, तेलवा हमरा के दे द, तूँ गिरा दे…ऽ….ऽ…ब एक दो बार उन्होंने अनसुनी करने की कोशिश की, मेरा प्रलाप जारी रहा।
‘‘तूँ गिराई के रहब तेलवा, ऐ बाबू जी’’।
‘‘ए…ऽ…ऽ…..ना गिराइब रे ‘‘…..ऽ…..ऽ…..’’! बड़े-बड़े पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ने वाले, गंगा के पाट को आधी रात में भी तैरकर पार करने वाले, रामायण-महाभारत के तत्ववेत्ता पिता के चेहरे पर तब जैसी मुस्कराहट उभरी थी, उसे मैं हर उस मौके पर जीती हूँ जब बच्चे मुझे नासमझ ठहराते हैं।
रेलवे स्टेशन पर बड़ी भीड़ थी, मैंने देवकी दीदी को पैर पड़ते देख प्रभा दीदी के पैर छुए, बाजपेयी जी 76 वर्षीय लम्बे से दुबले पतले व्यक्ति हैं, वेशभूषा में कुलिनता झलक रही थी, वेदान्त को देखकर मन में आया, बच्चे के साथ हमारी जिम्मेदारी बढ़ जायेगी, यहाँ तो स्वयं को सम्हालना मुश्किल है। सातों में त्रिपाठी जी ही ऐसे व्यक्ति थे, जो सबकी जिम्मेदारी उठा सकते थे। समय पर गाड़ी स्टेशन पर आकर लगी। हमने अपना स्थान ग्रहण किया। इस बार तीनों महिलाओं की लोवर बर्थ एवं पुरूषों की मिडिल बर्थ थी। गाड़ी चलने से पहले ही हमारे बच्चे हमें प्रणाम कर नीचे उतर गये। धीरे-धीरे उत्कल एक्सप्रेस ने पटरी पर सरकते हुए बिलासपुर शहर को विदा कहा। उस समय सीवरेज के कारण शहर की सड़कें खुदी हुईं थीं, कहीं आना जाना हो तो जान हथेली पर लेकर आओ-जाओ, परन्तु जब शहर दूर छूटने लगा तो वे गड्ढ़े भी प्यारे लगने लगे, जिनसे बचने के लिए दूर-दूर से घूमकर गन्तव्य तक पहुँचती थी। पटरी के दोनों ओर की बसाहट, खेतों के मेड़ों पर कुसुमित पलाश, होली के रंग में मताये से लोग, कहीं कुछ कसक रहा था, इन्हें छोड़ते हुए, कुछ भी हो अपना शहर अपना ही होता है।
उस समय दोपहर थी, डिब्बे में कोई विशेष भीड़-भाड़ नहीं थी। हम लोग बैठे- बैठे एक दूसरे से बतियाते रहे। प्रभा दीदी, छोटे कद की गोरी-नारी दुबली-पतली बुजुर्ग महिला हैं, उस समय तक मैं उन्हें अच्छी तरह जानती नहीं थी, धीरे-धीरे राज खुला की देवकी दीदी, क्यों उन्हें इतना आदर देतीं हैं। झाड़सुगड़ा, टाटानगर (झारखंड), खड़गपुर होते हुए हमारी ट्रेन पुनः उड़िसा की ओर मुड़ी। भुवनेश्वर, साक्षीगोपाल होते हुए हमें जगन्नाथपुरी पहुँचना था। घर से लाये हुए गुझिए, मठरी, पूड़ी, सब्जी आदि से हमारा रात्रि भोजन हुआ था। पंडित जी को ऊपर चढ़ने में परेशानी थी, अतः उन्हें लोअर बर्थ पर सुलाया गया। बाकी सभी ने यथा स्थान रात्रि विश्राम किया। मेरी आदत है, पढ़ते हुए सोने की। रेल के डिब्बे में इतना प्रकाश नहीं था कि कुछ पढ़ सकूँ, मैंने ‘‘वागर्थ’’ रेल्वे स्टेशन पर ली थी, उसे निकालकर पढ़ने का प्रयास किया, थोड़ी ही देर में सिर भारी होने लगा। पत्रिका रखने के बाद भी नींद नहीं आई, प्रभु के दर्शन की अभिलाषा, मन को भ्रमर की भाँति चहुँ दिश नचा रही थी, चैतन्य महाप्रभु द्वारा सेवित, शंकराचार्य के मन को बार-बार लुभाने वाली, शास्त्रों में श्रीपुर, नीलांचल, पुरी आदि के नाम से विख्यात वह पावन पुरी कैसी होगी ?
प्रभु जगन्नाथ के दारुकलेवर धारण की कथा मस्तिष्क में गूँजने लगी, द्वारिका में त्रैलोक्य सुन्दरी वधुओं के मध्य बैठी माता रोहिणी, गोकुल में बहने वाली प्रेम गंगा में डुबकी लगा रहीं थीं, गोपियों के अनन्य प्रेम की कथा अपनी बहुओं को सुनाने में मग्न थीं, उसी समय कृष्ण, बलराम बहन सुभद्रा के साथ वहाँ आ पहुँचे, कथा सुन वे भी भाव विह्वल हो गये। इससे माता को अपार प्रसन्नता हुई और उन्होंने उन्हें उसी रूप में रहने का आशीर्वाद दे दिया। यह मंदिर अपने आप में एक ही है जहाँ भाई-बहन की एक साथ प्रतिष्ठा पूजा होती है।
जरा नामक ब्याध के तीर का बहाना लेकर जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस धरा धाम से अपनी लीला का संवरण किया, तब उनका अग्नि संस्कार किया गया। शरीर के सारे अंग तो भस्मीभूत हो गये, परन्तु नाभि वाला भाग अग्नि न जला सकी। उसे समुद्र में ठण्डा कर दिया गया। कालान्तर में वह भाग, नीले पत्थर के रूप में परिवर्तित हो गया।
भगवान् की कृपा से समुद्र तट पर समुद्री उत्पाद एकत्रित करते समय विश्वावसु नामक शबर को वह नीलमणि प्राप्त हो गई। उसके दिव्य स्वरूप को भगवान् श्रीकृष्ण के मेधवर्ण से मेल खाता देख वह उसे नीलमाधव के रूप में नीलांचल पर्वत के घने वन में स्थातिप कर उनका पूजन करने लगा। प्रति रात्रि वह केसर कस्तुरी कपूर से भगवान् की पूजा करता, उसकी भक्ति से भगवान् प्रसन्न थे। कुछ समय पश्चात् मालव देशीय पाण्डुवंशी राजा इन्द्रद्युम्न, जो वंश परंपरा से परम विष्णु भक्त थे, उन्होंने इतिहास में सुना था कि किस प्रकार कृष्णावतार में श्रीकृष्ण ने पाण्डवों की रक्षा की, सख्य निभाया। भगवान् से मिलने की व्याकुलता में उन्होंने चारों दिशाओं में दूत भेजे, विष्णु भगवान् की खोज करने के लिए।
उत्तर, दक्षिण तथा पश्चिम के दूत निराश हो लौट आये। पूर्व दिशा की ओर गया दूत जिसका नाम विद्यापति था, खोजते-खोजते एक शबर बस्ती में जा पहुँचा। युवा विद्यापति शबर कन्या ललिता के प्रेम पाश में बद्ध शबर राजा विश्वावसु की आज्ञा ले ललिता से विवाह कर कुछ समय तक वहीं रहा। उसने देखा कि शबर राज नित्य रात्रि के प्रथम प्रहर कहीं जाते हैं। वापसी में उनके शरीर से सुगन्ध आती रहती है। ललिता से पूछने पर ज्ञात हुआ कि वे नीलमाधव भगवान् की पूजा करने जाते हैं। विद्यापति के उत्कट आग्रह को देखकर आँखों मंें पट्टी बांधकर विश्वावसु उन्हें नील माधव के दर्शन कराने के लिये तैयार हो गये। बुद्धि मति ललिता ने पति को कुछ सरसों के दाने दे दिये, जिन्हें बिखेरते हुए विद्यापति भगवान् के दर्शन कर आये। कुछ दिन में सरसों के पौधे बड़े हो गये, उनके सहारे वे प्रभुदर्शन के लिए जाने लगे। राज्य कार्य स्मरण कर उन्होंने वहाँ से विदा ली। महाराज इन्द्रद्युम्न को प्रभु के मिलने की सूचना दी। वे दल बल सहित प्रभु को अपनी राजधानी में लाने चल पड़े।
विश्वावसु रोज की भाँति, वट वृक्ष के नीचे वन में प्राप्त कंद मूल, फल फूल लेकर पूजा करने लगे। प्रभु ने भोग स्वीकार नहीं किया। विश्वावसु की व्याकुलता देख उन्होंने बताया कि राजा इन्द्रद्युम्न भी मेरा परम् भक्त है, अब मैं नीलमाधव विग्रह छोड़कर दारूब्रम्ह के रूप में उसके मंदिर में निवास करूँगा। राजा इन्द्रद्युम्न नील माधव को लेकर मालवा जा रहे थे, कि मन में अभिमान ने जन्म लिया, ‘‘मुझ सा प्रतापी कौन ? मैंने श्रीहरि को खोज लिया, ये अब मेरे मंदिर में रहेंगे।’’ मैं जैसे चाहूँगा पूजा पाठ करूँगा नहीं तो बैठे रहेंगे बिना नहाये खाये’’। उनके मन की बात समझते ही प्रभु अन्र्तध्यान हो गये, ‘‘ओह ! इसके मन में तो अभिमान अंकुरित हो रहा है’’। प्रभु हँसे।
राजा इन्द्रद्युम्न ने सोचा यह शबरों की माया होगी, वैसे भी भगवान् नील माधव को पाने के लिए उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। उन्होंने विश्वावसु को बन्दी बना लिया। तब आकाशवाणी हुई – ‘‘हे राजा ! विश्वावसु को मुक्त कर दो और निलांचल पर्वत पर एक सुन्दर मंदिर का निर्माण करवाओ!’’
राजा ने नील पर्वत पर एक सुन्दर मंदिर बनवाया, उसमें देव की प्राण प्रतिष्ठा हेतु ब्रम्हा जी को लाने गये। ब्रम्हा जी उस समय तर्पण कर रहे थे, अतः राजा को प्रतीक्षा करनी पड़ी, तब तक धरती के नौ युग बीत चुके थे, वापस आने पर मंदिर का अधिकांश भाग समुद्र की बालुका से ढँक चुका था।
गालु माधव नामक राजा के घोड़े का पैर मंदिर के नील चक्र से टकराया, जब राजा ने रेत हटवाई तब मंदिर के दर्शन हुए। उन्होंने मंदिर में भगवान् की स्थापना की। राजा इन्द्रद्युम्न ने ब्रम्हा जी के साथ आकर जब यह मंजर देखा तब उन्हें समय का एहसास हुआ। ब्रम्हा जी किस देव की प्रतिष्ठा करते ? अतः मंदिर के शीर्ष चक्र पर झण्डा बाँध कर चले गये। राजा गालू माधव अपने देश चले गये। राजा इन्द्रद्युम्न चिन्तित हुए, किस प्रकार देव की प्राण प्रतिष्ठा की जाये। तब भगवान् ने शून्य वाणी द्वारा बताया कि समुद्र के बाँकी मुँहाने पर जो लकड़ी है उसी से मूर्ति बनवाओ!’’
राजा ने लकड़ी लाने के लिए अपनी सेना भेजी, किन्तु कोई उसे ला न सका। तब राजा ने विष्णु भक्त विश्वावसु एवं विद्यापति को भेजा, वे सहज ही लकड़ी लेकर चले आये। अब राजा ने राज्य भर के बढ़ई बुलवाये, किन्तु कोई लकड़ी नहीं तराश सका। तब स्वयं जगन्नाथ भगवान् बूढ़े बढ़ई का रूप लेकर आये, और मूर्ति निर्माण की बात कही। बस अंधे को क्या चाहिए? दो आँखें, परन्तु वृद्ध बढ़ई ने शर्त लगाई कि वह 21 दिन में चार मूर्तियाँ बनायेगा, इस बीच कोई कक्ष का द्वार न खोले। राजा ने सहर्ष शर्त मान ली। परन्तु चैदह दिन बाद ही रानी के बार-बार कहने पर राजा ने दरवाजा खोल दिया। बढ़ई तो अदृश्य हो चुका था। वहाँ चार अर्द्धनिर्मित मूर्तियाँ पड़ीं थीं। राजा व्याकुल हो पछताने लगे, तब आकाशवाणी हुई ‘‘राजन्! मैं कलयुग में इसी रूप में पूजा जाऊँगा’’। राजा ने उसी विग्रह की प्राण प्रतिष्ठ कराई। वही परंपरा आज भी चली आ रही है। जगन्नाथ एवं बलभ्रद जी के हाथ कोहनी के पहले तक हैं। आँखे गोल हैं, सिर के केश नहीं हैं। देवी सुभद्रा की बाँहे नहीं हैं। ऐसा विश्व में कहीं भी देखने को नही मिलता, जहाँ अपूर्ण विग्रह प्रतिष्ठित हों। दिन भर की थकी-हारी काया प्रभु चरणों में विश्राम पा गई मुझे न जाने कब नींद आ गई।
-तुलसी देवी तिवारी