पुरी यात्रा संस्मरण:
पुकार
-तुलसी देवी तिवारी
पुकार : पुरी यात्रा संस्मरण भाग-2
अगले दिन (31.3.2013) प्रातः सात बजे हमारी रेलगाड़ी पुरी के रेलवे स्टेशन पर रुकी। साथी कम ही थे, सामान भी कुछ ज्यादा नहीं था। हमने मिल जुलकर सामान उतारा। पंडित जी को त्रिपाठी जी ने सम्हाला, देवकी दीदी के पीछे पीछे हम लोग प्लेटफार्म के बाहर आये। कुछ समय पहले ही पानी बरस चुका था, प्लेटफार्म गीला था। आकाश पर छाये मेघों ने सूर्य की सुनहरी किरणों को धरती पर आने से रोक रखा था। एक प्यारी सी उजास फैल रही थी। स्टेशन के बाहर टैक्सी वालों ने हमें घेर लिया। ‘‘हम आप को अच्छे होटल ले चलेंगे, आईये बाबू जी ! आईये अम्माँ’’!
त्रिपाठी जी ने एक टैक्सी तय कर उसमें सामान रखा। हम बैठे। नगर की बनावट देखने पर हमें अपने बिलासपुर जैसा ही लगा। पहले शहर का नया बसा भाग मिला, ऊँचे-ऊँचे होटल, लाॅज शोरूम आदि देखने में मेरा ध्यान लगा हुआ था कि टैक्सी एक भव्य होटल के समक्ष जाकर रुकी।
‘‘ये कहाँ ले आये भाई’’ ? हमें समुद्र के किनारे और मंदिर के नजदीक ठहरना है’’। त्रिपाठी जी टैक्सी वाले से बात कर रहे थे।
‘‘अच्छा होटल है बाबू जी समुद्र भी दूर नहीं है’’। वह बोल रहा था।
‘‘मैं पुरी से अनजान नहीं हूँ, बीच के पास ले चलो! हम तुम्हारे मन से चलेंगे या अपने मन से’’? उनकी आवाज तेज होने लगी।
‘‘उधर से दूर पड़ेगा और किराया लगेगा, 250 रू. होगा’।
‘‘अरे ये कैसी लूट है ?सौ रूपये में बात हुई है उतना ही देंगे’’। वे अड़ गये।
टैक्सी ड्राईवर की आँखे भी गुस्से से लाल हो गईं, उसके दिमाग में अस्वाभाविक कँपन परिलक्षित होने लगा।
‘‘हाँ ! ठीक कह रहे हैं, जहाँ बोले थे वहाँ ले चलो! वर्ना हम थाने फोन करते हैं’’। पंडित जी ने भी अपना बल लगाया। चिढ़ते-गुस्साते रोते-गाते जैसे-तैसे उसने हमें बीच के पास पहुँचाया। एक बाउण्ड्री वाल जैसा उठा है, उसके पास बहुत सारे एक ही आकार के लाल पत्थर पड़े थे, कुछ ठेले लगे थे, चाय काॅफी ब्रेड बिस्कुट के। हमनें वहाँ की गंदगी की परवाह न कर सामान वहीं उतारा । अब टेक्सी वाला नरमी से बात कर रहा था। ‘‘50 रू. और दे दो बाबू जी पोसाता नहीं है’’। त्रिपाठी जी ने उसे डेढ़ सौ रूपये देकर पिण्ड छुड़ाया। बुन्दा-बांदी फिर शुरू हो रही थी। सामान भींगने का भय था।
‘‘चलो भैया ! हम लोग रहने का स्थान देखकर आते है।’’ हमें वहीं बैठाकर त्रिपाठी भैया, वाजपेयी जी के साथ सामने दिखने वाली सड़क पर बढ़ गये। हमारे सामने ही चैराहे पर चैतन्य महाप्रभु की भक्ति भाव में निमग्न तानपुरा बजाती मूर्ति लगी थी, उस तीन फुट ऊँची दीवार पर हम बैठे। सड़क से बीच की रेत को अलग करने के लिए ही वह दीवार उठाई गई है। पंडित जी चाय वाले को चाय बनाने के लिए कहने लगे। मेरी नजर सामने उठ गई, अहा ! क्या मनोरम दृश्य था? सामने ठाठे मारता बंगाल सागर, असीम जल राशि, शनैः-शनैः ऊपर आता सूर्य का सुनहरा गोला और रंग बिरंगे वेशभूषा वाले असंख्य मनुष्यों का हुजूम। हम जहाँ बैठे थे, वही ंसे रेत में उतरने का रास्ता है। लोग चिटिंयों की तरह समुद्र की ओर चले जा रहे थे। मन केे भाव-हिलोरे लेने लगे। सर्वप्रथम जीवन को अपने अंक में पालने वाले, स्वयं रिक्त होकर मेघों को जन्म देने वाले, उपकारी, सकल सम्पदा के स्वामी, जलनिधि के चरणें में लोट-पोट होने की इच्छा जोर मार रही थी। पिछली यात्रा में हम कई बार समुद्र स्नान कर चुके थे, अतः मन में भय नहीं रोमांच था। समुद्र की लहरों से गले मिलकर खेलने की तमन्ना थी। यदि मैं बच्ची होती, दौड़कर नहाने लगती, परन्तु मैं एक उम्रदराज स्त्री हूँ, मन भले ही नन्हीं बालिका का हो, मुझे तो मर्यादा में रहना ही होगा।
पानी तेज हो रहा था, मोटी-मोटी बून्दे गिर रहीं थीं, वैसे हमारे सूटकेश इतनी जल्दी अन्दर का सामान भींगने नहीं देते, फिर भी चिन्ता होने लगी। पंडित जी ने ठेले वाले से कहकर मेरे लिए काॅफी बनवाई। देवकी दीदी, प्रभा दीदी, वेदान्त और हम दोनों चाय काॅफी पीकर तैयार ही हुए थे कि सिर को हाथों से छिपाये जल वृष्टि से बचने का असफल प्रयास करते दोनों भाई आ पहुँचे।
‘‘हो गया रहने का इंतजाम’’ ? इस प्रश्न भरी दृष्टि से मैंने उनकी ओर देखा।
‘‘हाँ…हाँ, चलिए! सामान रखकर आते हैं, वे व्यस्त थे, मेरा बड़ा सूटकेश उसके ऊपर एक और बड़ा बैग, दोनों कंधों पर बड़े-बड़े बैग्स, और हाथ में एक थैला लेकर वे आगे-आगे चल दिये। पंडित जी को वहीं बैठा कर हम लोग भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। पानी तेज हो गया, चेहरे को हथेली से ढके, एक हाथ में कुछ सामान लिए मैं देवकी दीदी के पीछे-पीछे चल रही थी। चैराहे के दोनों ओर कचरे का ढेर पड़ था, गोबर, कीचड़ से रास्ता सराबोर था। सड़क के किनारे-किनारे हलवाईयों की दुकानें थीं, जहाँ खाजों का पहाड़ लगा था। कड़ाही चढ़ी थी, माल तैयार होकर भोग प्रसाद के लिए छोटी छोटी पत्तों की टोकरियों में पैक हो रहा था। कहीं कचरे पर कुत्ते, सुअर मौज कर रहे थे। पानी की बौछार से बचने के लिए मक्खियाँ उड़-उड़कर दरवाजों पर बैठ रहीं थीं, लोग खड़े खड़े समोसे बड़े खा खाकर दोने सड़क पर फेंक रहे थे। मन जुगुप्सा से भर उठा, फिर सोचा -‘‘जहाँ असंख्य लोग प्रतिदिन आ जा रहे हैं, वहाँ कितनी स्वच्छता रह सकती है आखिर’’ ?
आगे भुवनेश्वर हेण्डलूम, जनरल स्टोर, भारत सेवाश्रम, उदासीन अखाड़ा आदि मिलते गये। हमारा गेस्ट हाउस ‘आकाश’ बीच से अधिक दूर न था। वहाँ भी दरवाजे के बाईं ओर एक छोटे से कमरे में खाजा बन रहा था। प्रवेश करते ही छोटा सा राधेकृष्ण का मंदिर दिखा, संस्कारवश हाथ जोड़ प्रणाम कर आगे बढ़े। एक पक्का गलियारा पार कर हम वहाँ पहुँचे जहाँ लाइन से कमरे बने हुए थे। भैया ने दो कमरे बुक करवाया था, एक पुरूषों के लिए, एक महिलाओं के लिए। हमारा कमरा हाॅल नुमा बरामदे के सामने ही था। वहाँ एक छोटी सी रसोई थी। मन ही मन सोचा ‘‘चलो भोजन की दिक्कत तो नहीं होगी’’। कमरे में सामान जमाकर हमने स्नान के लिए कपड़े पहने। सूखे कपड़े ले जाने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि समुद्र स्नान के पश्चात् पुनः सादे जल से स्नान अनिवार्य ही होता है। मैंने ढीला ढाला सलवार कुर्ता पहना, ओढ़नी से सिर ढक कर सकुचाते हुए तैयार हो गई। पंडित जी के कपड़ों की खोज की तो उनका जांँघिया घर पर ही छूट गया था। अब तो मंैं बड़ी परेशान हुई। यह गलती क्षम्य नहीं थी। बेचारे नहाकर क्या पहनते ? शायद समुद्र तट पर ही मुझे डाँट पड़ने वाली थी, मैंने हनुमान् जी से प्रार्थना की कि मुझे इस विपत्ति से उबारें।
‘‘क्यों न जांँघिया खरीद लूंँ, कपड़ों की दुकाने तो खुल गईं हैं। वे दर्जी से सिलाकर जाँघिया पहनते हैं, रेडीमेड से काम चलने वाला नहीं है। उधेड़ बुन में ही हम सड़क पर आ गये। मैंने दीदी को अपनी भूल की बात बताई थी, वे भी दोनो ंओर टोह लेती चल रहीं थीं। हमने एक दुकान में पूछा ‘‘जेन्ट्स जांघिया है क्या ? सिलाया हुआ।
उसने नहीं में सिर हिलाया। दूसरी दुकान में घुटनों के नीचे तक लंबा बरमूड़ा टंगा दिखा। नंबर देख कर मैंने खरीद लिया, मेरी जान में जान आ गई, हमारे पुरूष साथी काफी आगे-आगे चल रहे थे। हमने, समुद्र देव को भेंट करने के लिये नारियल फूल आदि खरीदे। पानी अभी भी रुक-रुककर गिर रहा था। स्नान से पूर्व ही हम भींग चुके थे। सड़क पर बहुत भीड़ थी। लोग स्नान के कपड़े पहनें नहाकर चले आ रहे थे, बहुत से समुद्र की ओर जा रहे थे। हम सब उस घेरे के पास पहुँचे जो सड़क और बीच को बाँटता है। पंडित जी को साथ लेकर हम धीरे-धीरे जलनिधि की ओर अग्रसर हो रहे थे। रेत में पाँव धंस रहे थे, अतः हमनें ठेले के पास ही अपने जूते चप्पल रख दिये। हम तट पर पहुँचे। प्रणिपात करते इसके पूर्व ही उदधि की चंचल लहरो ने हमें प्रेम रस में सराबोर कर दिया। उसके मृदुल आघात से हममें से अधिकांश लोग गिर पड़े। रेत का उपहार दे आँख नाक में खारा जल भरते लहरें वापस लौट गईं। त्रिपाठी जी ने पंडित जी को सम्हाल रखा था। वाजपेयी भैया अपने पोते वेदान्त के साथ बच्चे बने मस्ती करने लगे। हमने कुछ स्थानीय लोगों को देखा कि जब लहर आ रही थी। वे यथा शक्य कूद जाते थे, पैरों के नीचे से लहरें वापस चली जाती थीं, मैंने इस तकनीक को अपनाकर खूब स्नान किया। पंडित जी सोच रहे थे, इसे क्या हो गया जो इस उम्र में बच्चों की तरह कूद-कूदकर नहा रही है। देवकी दीदी, प्रभा दीदी मेरे साथ ही थी, मैं थोड़ा अन्दर थी, वे तट के करीब थीं, तट के करीब ज्वार के समय रेत अधिक पड़ती है शरीर पर। थोड़ा आगे ज्वार अपने साथ रेत ले जाता है।
एक बूढ़ी औरत जिसके शरीर पर हड्डियाँ उभरी हुई थीं अपने पुत्र अथवा परिजन के साथ हमारे निकट ही नहा रही थी। फोटोग्राफर ग्राहक पटा रहे थे। ‘‘पाँच मिनट में फोटो बाबू जी। बस पाँच मिनट में’’। सबसे ज्यादा बच्चे आगे दिख रहे थे, जैसे ही ज्वार हमें प्यार भरी चपत लगाता, हम डगमगाते, भाटा के समय ठहाके लगाते, सम्हलने के पहले ही फिर लो, खारा अमृत! पंडित जी के स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें जल्दी ही रेत में वहाँ पहुंचा दिया गया, जहाँ हमारा सामान रखा हुआ था। अब हम लोेग और निश्चिंत होकर उछलने लगे। अच्छी प्रकार थक जाने पर ही तट पर आये। पूरा बीच जन सैलाब से भरा हुआ था। हमने नारियल फूल से पयोधि का पूजन अर्चन किया। फोटोग्राफर ने एक फोटो की बात कह अनेक फोटो उतार कर अपनी व्यावसायिक चतुराई का प्रमाण दिया। हम लोग गीले वस्त्रों में ही होटल आये। बारी बारी से स्नान कर कपड़े आदि धोये। पुरुष साथी अपने कमरे में तैयार हो रहे थे। कपड़े सूखाने की एक रस्सी मेरे बैग में थी, सोचा था जब दीदी कहेंगी ‘‘कहाँ सुखाये जाय ओन्हा मन ला’’? मैं तुरन्त रस्सी निकाल कर दे दूँगी। बात हुई भी यही, परन्तु वह रस्सी बहुत छोटी निकली, इधर-उधर पता लागने पर पता चला कि छत पर तार बंधा है कपड़ा सुखाने के लिए। मेरी दोनों दीदियों ने यह जिम्मेदारी मुझे दे दी। तीनों के गीले कपड़े लेकर मैंने सीढ़ियाँ चढ़ना प्रारंभ किया। पहली, दूसरी, तीसरी मंजिल ! कहाँ है भाई छत ? मैंने सीढ़ी के पास खड़े एक कर्मचारी से पूछा।
बस इसके ऊपर दो माले और हैं’’ उसने सहजता से कहा।
‘‘बाप रे, बाप ! अभी दो मंजिल और है ? मैंने अपनी उखड़ी साँसों को काबू में करने के प्रयास में प्लेटफार्म पर जरा विराम लिया। मेरे पैर थरथरा रहे थै, ‘‘नीचे ही सुखा लेते बेकार ही होशियारी दिखाई,’’ मैंने स्वयं को धिक्कारा। नीचे जाना मेरी शान के खिलाफ था, ऊपर चढ़ना दुश्कर। मैंने किसी प्रकार ऊपर ही पहुँचने का फैसला किया। चैथी मंजिल पर अभी-अभी एक बंगाली परिवार रुका था, वे अभी बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर बैठे थे। शायद आगे के कार्यक्रम पर विचार विमर्श कर रहे थे। मैं किसी प्रकार ऊपर पहुँची, वहाँ तार बंधा था, टीन शैड भी था, हवा तेज चल रही थी। वहाँ से समुद्र दृष्टिगोचर हो रहा था। ज्वार और भाटे का अनवरत स्वर गूँज रहा था। थोड़ी देर मनमोहक दृश्य देखने के बहाने मैं आराम करती रही, फिर आराम से कपड़े डालने लगी। सभी कपड़ों को बाँध दिया, अन्यथा पल भर में न जाने कहाँ उड़ जाते। इस समय पानी बन्द हो गया था, धूप निकल आई थी, छत पर बहुत गंदगी थी, बीड़ी सिगरेट माचिस के खोखे, शराब की हर आकार की बोतलें पड़ी हुईं थीं, दो नौजवान दो तीन बार ऊपर आये, वे कूड़े में न जाने क्या खोज रहे थे। जब नहीं रहा गया, तब मैंने पूछ लिया – ‘‘क्या खोज रहे हो’’ ?
‘‘माचिस की तीली’’। एक ने कहा
‘‘सिगरेट पीना है’’। दूसरा बोला। मेरी आँखें चैड़ी हो र्गइं। स्कूल में गलती करने वाले बच्चों को देखती हूँ उसी प्रकार। ‘‘हाँ’’ अठारह वर्ष पूरे हो चुके हैं’’। पहले ने बड़ी बेहआई से कहा। मैं अचंभित रह गई।
‘‘अभी तो आप बहुत छोटे हैं’’, मैंने दबी जबान से कहा, वह देखने में दुबला पतला था, दाढ़ी अभी ठीक से आई नहीं थी। उसने भूरे रंग की टी शर्ट और घुटनों के नीचे तक बरमूड़ा पहन रखा था। उसका साथी भी उसी तरह की वेशभूषा में था।
‘‘बालिग हैं हम’’, दूसरे ने भी कह दिया।
‘‘तब तो आप सिगरेट की बुराईयों से परिचित होंगे’’।
‘‘शराब, सिगरेट मर्द के लिए बहोत जरूरी है, बहोत जरूरी है। वे दोनों सीढ़ियों की ओर मुड़े।
‘‘आपकी बात सुनकर तो कोई भी माँ बेटा जन्म नहीं, देगी, देश की रक्षा अब बेटे नहीं शराब करने लगी हैं’’, मैं तिलमिला उठी, समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कह रही हूँ, और क्यों कह रही हूँ।
वे अपनी बात दोहराते नीचे चले गये। शायद घर परिवार के साथ घूमने आये थे, आनंद की सीमा पर पहुँचने के लिए या मर्द बनने के लिए, शराब, सिगरेट का सहारा ले रहे थे। वे बंगाली युवक थे। माता-पिता के लिऐ थोड़ी शर्म बची होगी इसीलिए छत पर आ जा रहे थे। मैं कपड़ों को उलट-पलटकर सुखाती रही, थक कर एक कुर्सी पर बैठ गई। मन खिन्न था नई पीढ़ी के प्रति चिन्ता व्याप्त थी मन में। उनकी निर्लज्जता देखकर स्वयं लज्जित थी। ‘‘ये सब सुनना था तभी तो अनजान लोगों से बात करने लगी’’ तुम्हारे लिए तो सभी अपने ही बच्चे हो जाते हैं। जिन्हें नैतिकता की तुला पर बराबर तौलती रहती हो’’। मेरे मन ने मुझे धिक्कारा।
पहले मैंने सोचा कपड़े सुखाकर साथ ले जाऊँगी, दुबारा आने की हिम्मत नहीं थी। धूप तेज थी, हवा भी झंकोरे ले रही थी, कपड़ों के जल्दी ही सूख जाने की संभावना थी।
‘‘अरे ‘उन्हें’ भी तो देखना है, जब तक कपड़े सुखेंगे और कुछ काम निबट जायेगा।’’ मैं धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरने लगी।
मेरी दोनों बहने जलपान की तैयारी में थीं। भैया लोगों के कमरे में जाकर मैंने पंडित जी की खबर ली, नहाकर कपड़े पहन रहे थे, बदन से चिपके कपड़े उतारने में परेशानी हो रही थी, सो उन्हें थोड़ी मदद की। उसी कक्ष में हमनें पास रखा नाश्ता किया। सभी के पास गुझिए, मठरी, सलोनी, मिक्चर की भरमार थी। नाश्ता करके किंचित विश्राम कर तीन बजेे यहाँ से मंदिर के लिए निकलने का निश्चय किया गया। अब तक बारह बज चुके थे, हमारे कमरे के सामने वाले किचन से लहसून प्यास अण्डे आदि की तीखी गंध चारों ओर फैल रही थी। मैंने एक व्यक्ति से पूछा – ‘‘क्या यहाँ नानवेज मिलता है ?’’ उसने स्वीकार किया। अब तो हर गंध मुझे अंडे, मछली की ही लग रही थी। स्थिति असह्य थी, किन्तु सहना विवशता थी, क्योंकि दो दिन का किराना लगभग तीन हजार रूपये जमा किया जा चुका था।
‘‘भइया, ए मेर तो अंडा मछरी बनत हे’’, मैंने शिकायत की।
‘‘ओह ! उस समय नहीं पूछ पाये’,’ चलो! हमें यहाँ कितनी देर रहना ही है? सोने के लिए आयेंगे’’। उन्होंने समझाया।
लगभग दो बजे हम लोग उठकर तैयार होने लगे। भगवान् जगन्नाथ की नगरी में पहुंचकर दर्शन में विलम्ब अब व्याकुल कर रहा था। मैंने सोचा, छत से कपड़े उठा लाऊँ, अपने साथ दीदियों के भी कपड़े हैं। मैं स्वयं को समझाती, हाँफती, रूकती, चढ़ती, किसी प्रकार ऊपर पहुँची। सारे कपड़े सूख चुके थे, मैंने ध्यान से देख-देखकर सबके कपड़े एकत्र कर घड़ी किये, ‘‘दुबारा मत आना पड़े भगवान ्’’ कहते कहते मैंने चारों ओर एक बार पुनः दृष्टि डाली। उसी प्रकार हलाकान-परेशान नीचे आई। सबने अपने कपड़े देखे, ‘‘अरे मोर काला ब्लाउज कति गै’’। देवकी दीदी के मुँह से सुनते ही मुझे ठंडा पसीना आ गया। बाप रे, फिर से चढ़ना पड़ेगा’’ ?
‘‘ओर मेर एको ठन कपड़ा नई रहिस दीदी।’’ जम्मो ला ले लाने हौं’’। मैंने हारे स्वर में कहा।
‘‘मैं जात हौं, दाई, खोज के लानिंह, एकरे से अपन कपड़ा कोनो ला नई देवौ’’। वे नाराज सी लगीं।
‘‘ये चढ़ नहीं पायेंगी’’। चढ़ उतर गई तो फिर जरूर पैंरों में दर्द होने लगेगा’’। मैंने सोचा।
‘‘अच्छा मैं ही देखकर आ रही हूँ’’। मैंने तकदीर की मार समझकर फिर से सीढ़ियाँ चढ़ी, अच्छा यह हुआ कि दीदी का ब्लाज छत के कोने में पड़े एक बाँस के नीचे दबा मिल गया। यह हवा की करामात थी।
-तुलसी देवी तिवारी