पुरी यात्रा संस्मरण:
पुकार
-तुलसी देवी तिवारी
पुकार : पुरी यात्रा संस्मरण भाग-3
साढ़े तीन बजे के लगभग हम लोगों ने कमरों में ताला लगाया और घूमने निकले।
‘‘ज्यादा दूर नहीं है मंदिर, घूमते हुए पैदल चलते हैं’’ । त्रिपाठी भइया ने कहा। हमने मौन समर्थन दिया। सड़क पर कोई अधिक भीड़ भाड़ नहीं थी, कुछ दूर हम लोग चले। मेरे पैर मे दर्द हो रहा था, दीदी को भी लगा कि चलने पर थकना हो जायेगा। टैक्सी कर ली गई, सड़क के दोनों ओर नाना प्रकार के भवन, मठ, अखाड़े बने हुए हैं, बीच-बीच में कई प्रकार के वृक्ष लगे हुए हैं, त्रिपाठी भइया ने टैक्सी वाले से शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ का पता पूछा। उसने संकेत से बताया, वहाँ कोई चहल-पहल दिखाई न दी।
थोड़ी देर में हम स्वामी जगन्नाथ जी के मंदिर के समक्ष पहुँच चुके थे। ऊँचे प्राचीर से घिरा मंदिर भारतीय ओड़ीसी भवन निर्माण कला का जयगान कर रहा था। हम लोग प्रवेश द्वार, जिसे सिंह द्वार के नाम से जाना जाता है, उसी से मंदिर में प्रविष्ट हुए। इस द्वार के दोनों ओर दो सिंह की मूर्तियाँ हैं। प्रवेश द्वार के पास ही श्री जगन्नाथ का विग्रह रखा है। यह उन लोगों के लिए है जिनका मंदिर प्रवेश वर्जित है। सिंह द्वार के सामने ही लगभग 40 फुट ऊँचा अरूण स्तम्भ खड़ा है, पता चला कि यह कोणार्क मंदिर से लाकर लगाया गया है। सिंह द्वार से मंदिर प्रांगण तक पहुँचने के लिए बाइस सीढ़ियाँ हैं। ऊपर आकर हमने देव प्रतिमाओं से सुसज्जित परिसर देखा-दक्षिण की ओर काशी विश्वनाथ, रामचन्द्र जी तथा नृसिंह देव, गणेश भगवान् आदि के मंदिर हैं। परिसर में भक्तजन महा प्रसाद का भोग लगा रहे थे, जहां पंडों के मनुहार वहीं, दर्शनार्थियों का चातुर्य दिखाई दे रहा था। प्रांगण के मध्य में भगवान् जगन्नाथ का मंदिर है, उस समय मंदिर में दर्शन नहीं हो रहा था। पाँच बजे मंदिर का द्वार खुलने वाला था। मंदिर के ऊपर अष्टधातु का बना, 150 किलो वजन का नीलचक्र लगा है। उस पर पचास फीट लंबा ध्वज जिसे पतित पावन बाना कहा जाता है, लहरा रहा था। मुख्य मंदिर लगभग छैंसठ मीटर ऊँचा है। यह उड़ीसा में बने सभी मंदिरों से ऊँचा है। हम लोग गणेश जी के मंदिर की सीढ़ियों के पास बैठकर मंदिर खुलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसके बगल में ही राधाकृष्ण की बेहद सुन्दर युगल प्रतिमा विराजित है। पता चला ये साक्षी गोपाल जी हैं। मूल मंदिर भुवनेश्वर के पास है। ब्राम्हण के लिए गवाही देने कृष्ण जी आये थे। इसीलिए इनका नाम साक्षी गोपाल है। सामने ही टिकिट काउण्टर है, उस समय वह खाली था।
परिसर में भीड़ बढ़ती जा रही थी, लोग संध्या दर्शन के लिये चले आ रहे थे। मंदिर की बगल से सीढ़ियाँ गई हैं, कुछ लोग चढ़कर ऊपर जा रहे थे, हममें से कोई तैयार नहीं था सीढ़ी चढ़ने को क्योंकि ऊपर जाकर सीढ़ियों की चैड़ाई एकदम कम हो गई है। हम लोग पहले मुख्य श्री विग्रह के दर्शन के अभिलाषी थे। पंडित जी मना करने पर भी सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। वेदान्त भी साथ हो लिया, मुझे भी उनके पीछे जाना पड़ा। ऊपर सीढ़ियों पर मात्र दो पैर रखने की जगह थी, वहाँ नृसिंह भगवान् की भव्य प्रतिमा विराजमान् है। यह मंदिर का दक्षिणी भाग है। हमने जाना कि यहाँ स्थित सभा कक्ष में पहले धर्मसभा बैठती थी, यहाँ किया गया निर्णय सभी को मान्य होता था। शंकराचार्य के समय से ही इस स्थान की प्रतिष्ठा है। मैंने श्रद्धा पूर्वक प्रणाम कर उचित चढ़ावा चढ़ाया और पंडित जी की मदद की असफल कोशिश करती वापस आई।
समय का सदुपयोग करते हुए मंदिर के रसोई घर को देख लेना उचित समझा गया, यह मंदिर के उत्तर दिशा में हैं। इस रसोई घर के बारे में मैं बचपन से ही पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ती आ रही थी, भोजन निर्माण की शुद्धता जगत विख्यात है। यहाँ के लिए हमें 5-5 रूपये का टिकिट लेना पड़ा, पाकशाला के पृष्ठ भाग में जिधर रोशनदान बने हुए हैं, और जहाँ से लकड़ी आदि अन्दर की जाती है, हम उधर ही गये। पाकशाला की दीवार से लगा करीब 6 फुट चैड़ा पक्का नाले जैसा पथ है। उससे लगा लगभग 6-7 फुट ऊँचा परिक्रमा पथ है। हम लोग नीचे उतर कर रोशनदान से झाँक कर पाकशाला के दर्शन करने लगे। उस समय यहाँ भोजन नहीं बन रहा था, भोजन तीन बजे तक ही बनता है। जो मिट्टी के छोटे बड़े मटकों में होता है। कहते हें इन्हें एक के ऊपर एक रखकर पकाया जाता है, आश्चर्य की बात है कि ऊपर के मटके का चाँवल पहले पकता है। पाचकों के सिवा केाई अन्य व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता, भोग लगने के बाद ये मटके विक्रय के लिए रखे जाते हैं। यह महाप्रसाद कहलाता है। इसमें छोटे बड़े का भेदभाव नहीं होता, राजा हो या रंक, एक ही प्रकार का प्रसाद मिलता है। एक व्यक्ति द्वारा जूठी की गई हांडी में भोजन करना भी अनुचित नहीं माना जाता। कहावत विख्यात है – ‘‘जगन्नाथ के भात को जगत् पसारे हाथ’’।
वापस लौटते समय हमने सोना कुआँ देखा, इस कुँए के जल का प्रयोग प्रभु के स्नान यात्रा के समय किया जाता है। उत्तरी द्वार का नाम हस्तीद्वार ज्ञात हुआ। इसके दरवाजे पर दोनों ओर हाथियों की प्रतिमायें लगाई गईं हैं। सामने ही आनंद बाजार दृष्टिगोचर हुआ, हमने उधर जाने का विचार स्थगित कर दिया। अब सर्वप्रथम मुख्य विग्रह के दर्शन करने थे। काउन्टर पर एक व्यक्ति आकर बैठा। पलक झपकते ही लाइन लंबी हो गई। त्रिपाठी भइया ने हम सबके लिये 50-50 रूपये के टिकिट ले लिये। यूँ तो सौ रूपये में पंडे विशेष द्वार से दर्शन करवा रहे थे। हमने आम आदमी की भाँति लाईन लगाकर प्रभु के दर्शन की ठानी, सभी लोग लाइन में लग गये। तब तक शाम घिर आई थी। सम्पूर्ण मंदिर बिजली की रोशनी से जगमगाने लगा था। मंदिर में भीड़ बढ़ती जा रही थी। सीधी लाइन एक मोड़ तक जाती है। वहाँ से ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। हम लोग वहाँ पहुँच गये। किन्तु यहाँ थोड़ी गड़बड़ी नजर आई। पंडे अपने यजमानों को यहाँ से मुख्य लाइन में आगे कर दे रहे थे। तीर्थयात्रियों का सौ पचास का जत्था, स्कूली बच्चों का दल अब हमसे आगे हो जा रहा था, हमारी लाइन जहाँ की तहाँ थी। गर्मी भयानक थी, पसीने से हमारे वस्त्र गीले हुए जा रहे थे। दीदी और पंडित जी की चिन्ता हो रही थी। किसी प्रकार हम लोग मंदिर में प्रविष्ट हुए, धक्का मुक्की खाते। लेकिन अन्दर जाकर सारे दुःख दूर हो गये।
सामने ही रत्न सिंहासन पर प्रभु अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विराजमान हैं। यह सिंहासन लगभग चार फुट ऊँचा, 16 फुट लंबा तथा तेरह फुट चौड़ा है। सबसे लंबा विग्रह बलभद्र जी का, उससे छोटा भगवान् जगन्नाथ जी का और सबसे छोटा विग्रह बहन सुभद्रा का है। उस समय पूजा आरती प्रारंभ हो गई थी। कक्ष ठसाठस भरा हुआ था, मंदिर के कार्यकर्ता व्यवस्था बनाने में लगे हुए थे। आठ-दस सीढ़ी नीचे उतर कर हम लोग रत्न सिंहासन के पास पहुँचे। पैरों के नीचे घी, तेल, दूध, दही आदि पदार्थों की फिसलन थी, मैंने पंडित जी की बाँह जोर से पकड़ रखी थी। उनके फिसल जाने का भय सता रहा था। वेदान्त इस समय बहुत काम आया, उसने उनकी दूसरी बांह पकड़ रखी थी। खैर यह तो मन के संतोष की बातें हैं। प्रभु के दर्शन के लिये हम सभी जब उनके सम्मुख पहुंचे, तो संसार के द्वन्द्व से ऊपर उठ चुके थे, विभिन्न वर्णों से चित्रित, बहुमूल्य रत्नों से विभूषित विग्रह संसार का भय हरने वाला हैं। भगवान् जगन्नाथ के माथे पर जड़ा बड़ा सा हीरा देदिप्यमान हो रहा था, मूतियाँ बायें से दांये लगी हुई हैं, भगवान् जगन्नाथ के पास ही सुदर्शन चक्र स्थापित है। इस चतुर्थ मूर्ति के दर्शन कर हम धन्य हो गये। अन्य तीन प्रतिमायें भी रत्न वेदी पर विराजमान हैं, जिनमें नील माधव, लक्ष्मी जी, भूदेवी, अर्थात् सरस्वती जी हैं। इस सप्तवर्ण पीठ का दर्शन करने के लिये ही तो हम लोग इतनी दूर आये थे।
भगवान् के विग्रह से करूणा बरस रही थी, सभी भक्त बारी-बारी से उनके दारु विग्रह का स्पर्श कर आगे बढ़ते जा रहे थे। एक परिक्रमा कर हम लोग जल्दी ही मंदिर से बाहर आ गये, क्योंकि पंडे पुरोहित दर्शन के तत्काल बाद दर्शनार्थियों को बाहर कर दे रहे थे। पंडित जी को पकड़े-पकड़े मैं बाहर आई। गर्मी और पसीने से उनकी हालत खराब थी, हवा लगने से राहत मिली। हम लोग प्रांगण में एक मंदिर के पीछे के चबूतरे पर बैठ गये। अब हमें ध्वज बदले जाने का दृश्य देखना था। हमारी दाहिनी ओर एक छोटा मंदिर था, सामने भी एक मंदिर था, यह गणेश जी का था। बगल वाला मंदिर बिमला देवी का है, इसमें सभी प्रमुख देवी-देवताओं के पाषाण विग्रह रखे गये हैं। घी के सजे दीपक बिक रहे थे, हमने दीपक खरीद कर वहाँ विमला माता (लक्ष्मी) का पूजन किया। इस समय तक परिसर में तिल रखने का स्थान भी शेष नहीं था। पंडित जी प्यास से व्याकुल हो रहे थे। मैंने त्रिपाठी भइया से कहा, वे पता नहीं कितनी दूर जाकर एक छोटी टोकरी प्रसाद और बोतल में शीतल जल ले आये। जिसे खा पी कर हम सभी चैतन्य हुए।
ध्वज बदलने का समय हुआ। दो लड़के पवन वेग से ऊपर चढ़ने लगे, उन्हें अभ्यास है प्रतदिन के इस कार्य का। उन्होंने प्रमुख ध्वज के साथ भक्तों द्वारा दिये गये बहुत से ध्वज सम्हाल रखे थे, शायद उनके पैर रखने के लिए स्थान हो, बाहर से तो उनका सतत् ऊँचे चढ़ते जाना एक चमत्कार ही नजर आ रहा था। सभी दर्शक साँस रोके एक टक ऊपर देख रहे थे। मंदिर का नील चक्र दूर से ही द्युतिमान हो रहा था। पूरा मंदिर प्रकाश से नहाया हुआ था। झंडा उतारने की प्रक्रिया देखने के लिए हमने अपनी आँखे आकाश में टाँग रखीं थीं। जिससे गर्दन में पीड़ा होने लगी। सही समय पर इस विधि से ध्वज बदला गया कि एक पल को भी नील चक्र ध्वज विहिन न रहे। उसी के पास कोई व्यवस्था है जिसमें एक बड़ा ध्वज फहराया गया। इसके बाद प्रमुख ध्वज फहराया गया। पहले दिन के असंख्य ध्वज समेटे चन्द मिनटों में ही दोनों कमसिन बच्चे नीचे आ गये। चढ़े हुए ध्वज के टुकड़े लोगों को 100-100 रू. में बेचे जा रहे थे। भीड़ उधर ही बढ़ रही थी। हम लोग आनंद बाजार की ओर निकल गये। यहाँ महाप्रसाद भोग आदि विक्रय हो रहा था। हमने सात लोगों के भोजन लायक भोग माँगा 220 रू. में एक हांड़ी भात दो तीन प्रकार की सब्जी और दाल प्राप्त हुई, सभी हाड़ियाँ अच्छी प्रकार पत्तों से ढकी हुईं थीं, घर के लिए प्रसाद महाप्रसाद (भात को सुखाकर बनाया जाता है) आदि खरीदा गया। टैक्सी से हम लोग आठ बजे के करीब आकाश गेस्ट हाऊस पहुँच गये।
पंडित जी शुगर वाले हैं चाँवल उन्हें मना है। इसलिए त्रिपाठी भैया रोटी की तलाश में निकले। कहीं से मैदे की बड़ी-बड़ी पतली किन्तु कच्ची कच्ची चार रोटियाँ ले आये, लगता था जैसे गरम करके दे दिया हो। आज तो भोग प्रसाद था हमारे पास, भैया लोगों के कक्ष में हम सभी भोजन करने बैठे। हमारे पास बर्तन भी कम थे, सोचा था कहीं होटल में भोजन होगा, बर्तन कौन ढोये, पेपर प्लेट टिफिन आदि में भोजन परोसा गया। एक हांडी में सात आदमी के छक कर खाने लायक भात था, मैं चम्मच से भात निकाल रही थी, न जाने कैसे हाड़ी पेन्दी से टूट गई। फिर भी हमने एक-एक दाना चाँवल खाया। हमारे कक्ष के सामने तो अनेक लोग भोजन पर बैठे थे। अवांछित गंध नथुनों में जबरदस्ती प्रवेश कर हमें बेचैन कर रही थी। सभी साथी थके हुए थे, विश्राम चाहते थे। प्रातः पुनः समुद्र स्नान का कार्यक्रम था, पंडित जी ने मुझे मना कर दिया। मैं जाना चाहती थी, परन्तु यात्रा में विवाद न हो इसलिए मान गई। फिर न जाने क्या सोचकर उन्होंने इजाजत दे दी। दूसरे दिन प्रातः आठ बजे तक हमें चिल्का झील के लिए निकल जाना था।
हम अपने कक्ष में आ गये। पुरी के बारे में कुछ विशेष जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से मैंने मंदिर में क्रय की गई पुस्तक के पन्ने खोल लिए। इसमें मंदिर के बारे में संक्षिप्त जानकारी थी – जैसे, इस मंदिर को बारहवीं शताब्दी में सम्राट चोड गंगदेव ने पुनः बनवाया। जिसे उसके नाती राजा अनंग भीमदेव ने पूर्ण करवाया, इस मंदिर पर बार-बार विधर्मियों ने आक्रमण कर इसकी सम्पत्ति लूटी, फिर भी आज तक सुरक्षित है। शायद इन आक्रमणों से रक्षा के लिए ही मंदिर को किले की तरह सुरक्षित बनाया गया है। इसकी बाहरी दीवार लगभग 22 फीट ऊँची और लगभग सात फुट मोटी है। इस विशाल मंदिर में चारों दिशाओं में चार भव्यद्वार है।, पूर्व में सिंह द्वार, पश्चिम में व्याघ्र द्वार, उत्तर में हस्तिद्वार और पश्चिम में अश्वद्वार। इसे चार भागों में बाँटकर बनाया गया है – (1) विमान (2) जगमोहन (3) मुखशाला (4) भोगमंडप।
भोग मंडप में ही गरूण स्तंभ है। श्री चैतन्य महाप्रभु यहीं से स्वामी के दर्शन किया करते थे।
महाप्रसाद की महिमा तो वेद पुराण गाते हैं इसे व्रत के दिन ही ग्रहण किया जा सकता है। एक बार श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु पुरी आये। उनकी निष्ठा की परीक्षा हेतु किसी ने उन्हें महाप्रसाद दे दिया। वे प्रसाद हाथ में लेकर उसका स्तवन करने लगे। इस प्रकार एकादशी का पूरा दिन और रात बीत गई, द्वादशी के दिन उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया। इस प्रकार महाप्रसाद एवं एकादशी दोनों का समादर किया।
लगभग 230 फुट ऊँचा विमान चहार दीवारी पर सर्वत्र निर्मित है, कलात्मक मूर्तियाँ, मंदिर को एक अद्भुत छवि प्रदान करतीं हैं, श्री मंदिर को समुद्री नमकीन हवा ँसेे बचाने के लिए कलाकृतियों के ऊपर मजबूत प्लास्टर चढ़ा दिया गया था। आज कल उस प्लास्टर को सावधानी से छुड़ाकर श्री मंदिर को भव्य रूप दिया जा रहा है। कई बार चार-चार टन, पाँच-पाँच टन भारी पत्थर गिरने की घटनायें हो चुकी हैं, ये सिद्ध करती हैं कि मंदिर के मरम्मत की आवश्यकता है। हमने देखा था कि मोटे-मोटे लोहे के छड़ों को जाली की तरह बाँधा जा रहा था। मंदिर के नवनिर्माण का कार्य हो रहा था।
नीम की लकड़ी से बना श्री विग्रह संभवतः उसके औषधीय गुणों को प्रकट करता है। जिस वर्ष असाढ़ में मलमास लगता है, उसी वर्ष भगवान् नव कलेवर धारण करते हैं। जहां पहली बार राजा इन्द्रद्युम्न ने समुद्र से लकड़ी प्राप्त कर श्री विग्रह बनवाया था, उस स्थान को गुंडिचा मंदिर कहते हैं। हर वर्ष असाढ़ मास के दूसरे दिन रथ यात्रा उत्सव मनाया जाता है। बलभद्र,्र जगन्नाथ और बहन सुभद्रा भव्य रथों में बैठकर गुंडिचा मंदिर पहुँचते हैं। असंख्य देशी-विदेशी भक्त रथ को खींचते हैं। राजा स्वर्ण बुहारी से मार्ग बुहारता चलता है। अब यह प्रतिकात्मक रह गया है। स्वामी नौ दिनों तक वहाँ रहकर वापस श्री मंदिर आते हैं। पुरी की पाकशाला विश्व की सबसे वृहद पाकशाला है, यहाँ प्रतिदिन 72 क्विंटल चावल पकाया जाता है। त्यौहार पर मात्रा में और वृद्धि हो जाती है। इस रसोई घर की क्षमता 900 क्ंिवंटल पकाने की है। यहाँ 200 चुल्हे, 400 रसोइये पूर्ण पवित्रता से भोजन पकाने में लगे रहते हैं, प्रतिदिन भगवान् जगन्नाथ को 100 से अधिक तरह के स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते हैं। ये व्यंजन आनंद बाजार में अत्यंत कम मूल्य पर क्रय किये जा सकते हैं, माना जाता है कि भगवान् विष्णु का भोजन पुरी में ही होता है।
पढ़ते-पढ़ते न जाने कब पुस्तक हाथ से छूट कर गिर पड़ी। मैं चश्मा पहने -पहने ही निद्रा देवी की गोद में समा गई।
-तुलसी देवी तिवारी