पुरी यात्रा संस्मरण:
पुकार
-तुलसी देवी तिवारी
पुकार : पुरी यात्रा संस्मरण भाग-4 (चिल्का झील यात्रा)
अगले दिन (1-4-2013) प्रातः चार बजे ही शैया त्याग कर उठी। प्रातः क्रिया से निपट कर हम लोग मुँह अंधेरे ही समुद्र स्नान के लिए निकल पड़े। पंडित जी कमरा बन्द कर चाय पीने निकल गये। तट पर अभी उतनी भीड़ नहीं थी, शनैः-शनैः पूर्व की ओर उजास फैलती जा रही थी, हम लोग कल की भाँति ही आनंद पूर्वक उछल- कूद मचाते, तब तक नहाते रहे, जब तक थक नहीं गये। हमें चिल्का झील देखने जाना था, आठ बजे हमने प्राईवेट जिप्सी मंगवा रखी थी, होटल आकर गठरी के पकवान का जलपान कर, साथ में भरपूर नाश्ता, पानी की बोतल आदि लेकर हम लोग जिप्सी पर सवार हो चल पड़े, उस चिल्का झील को देखने, जिसे देखने की अभिलाषा वर्षों से मन में पाले हुए थे। मुझे भय था कि कहीं उल्टी न आने लगे। वैसे जिप्सी सब तरफ से खुली थी, हवा आ रही थी।
पुरी की सड़के चौड़ी और सही सलामत हैं। दोनों ओर शस्य श्यामला धरित्री, ग्रीष्मकालिन धान्य से सुशोभित हो रही थी। केले, नारियल के वृक्ष यहाँ बहुतायत से दिखाई पड़ रहे थे। मन में प्रश्न उठा, जहाँ संसार के मालिक रहते हैं, इतने लोग जहाँ अपना जीवन धन्य करने आते हैं, उसी कलिंग प्रदेश में अकाल, सूखे से लूटा-पीटा गाँव काला हाँडी भी है, जहाँ पेट की आग बुझाने के लिऐ माताएँ अपने बच्चे बेचने पर विवश हो जातीं हैं। यह कौन सी लीला है श्री पति’’ ? साक्षात् विमला माँ जहाँ विराज रहीं हैं, वहाँ दुःख दैन्य किस प्रकार रह पाता है? मेरी समझ में नहीं आ रहा था, पुरी से लगभग 165 कि.मी. की दूरी पर चिल्का झील स्थित है।
ग्यारह बजे हम नावों के रुकने के लिए बने घाट के पास पहुँचे। पर्यटन की दृष्टि से विकसित यह घाट, अत्यंत मनोरम। बड़े-बड़े आम्र वृक्ष बौर की सुगन्ध उड़ा रहे थे और भाँति-भाँति के वृक्ष वहाँ छाया कर रहे थे। जिप्सी से उतर कर हम लोग एक पक्के चबूतरे पर बैठकर समुद्र की ओर से आने वाली ठंडी- ठंडी हवा का आनंद लेने लगे। इस समय धूप बहुत तेज थी, जिप्सी में सफर करने के कारण मेरा जी मिचला रहा था। मैंने आँखें बन्द कर खुद को सम्हालने की कोशिश की। घाट पर असंख्य मोटर बोट बँधे थे। हमें देखते ही कई नाविक हमारे पास आ गये। भाव-ताव होने लगा।
तट पर ही मीठे पानी का नल था, हमने बोतल में पानी भर लिया। अच्छी प्रकार मुँह हाथ धोकर अच्छा अनुभव करने लगे। हमारे कुछ साथी घाट पर लगी दुकानों से चाय, ब्रेड, बिस्कुट आदि ले कर खाने पीने लगे। हमारे अतिरिक्त और भी बहुत से सैलानी घाट पर इधर-उधर दिखाई दे रहे थे।
‘‘300 रू. एक आदमी का सर’’ नाविक बोला
‘‘यह तो बहुत अधिक है’’ त्रिपाठी भइया बात कर रहे थे।
‘‘बाबूजी ! 1100 कि.मी की झील है चिल्का, उतना ही वापस आना। इतने का तो डीजल जल जाता है। हमें क्या मिलता है, 100 रू. बच जाये तो बहुत हैं, बस आप लोगों की सेवा करते हैं। नाविक बड़ा चतुर था, उसने अपनी बात मनवा ली। हम सभी एक मोटर बोट में बैठे। उस पर तिरपाल छाया हुआ था। पानी का कोई भरोसा नहीं, कब बादल उठे और झमाझम बारिश शुरू।
हमने एक दूसरे को सम्हाल कर बोट पर चढ़ने में सहायता की। मोटर बोट के पिछले भाग में मोटर लगी हुई थी, एक बड़ा मोटा सा पाइप लगा था। मोटर जैसे ही फट्…फट्….फट्.. कर चालू हुई, पाइप का एक सिरा पतवार की भांँति पानी काटने लगा, हमारी मोटरबोट चल पड़ी। तट छूटता गया, हमारे साथ-साथ और भी कई मोटरबोट समुद्र की सतह पर तैर रहे थे। यहाँ का जल शांत था। कोई हा…हाकार नहीं, जैसे प्रभु चरणों में स्वयं को समर्पित कर चुके साधक का मन शांत रहता है। तट के दोनों ओर हरियाली छायी हुई थी। बीच बीच में बहुत दूर तक खंभों में जाली लगा दी गई थी। शायद मत्स्याखेटी जनों का चातुर्य था। यहाँ आसानी से बहुत सारी मछलियाँ पकड़ में आ जाती होंगी।
हम लोग आपस में हँसी मजाक करते जल विहार करने लगे। त्रिपाठी भइया ने साथ लाया नाश्ता निकाल लिया, बोतल में पानी था ही। हमने आराम से गुझिये, मठरी, नमकीन आदि खाया। फिर कैमरा निकालकर प्राकृतिक दृश्यों को सुरक्षित करने लगे। इस समय प्रवासी पक्षियों के आने का समय नहीं था। इसीलिए स्थानीय पक्षियों के सिवा हमें अन्य पक्षी दिखाई नहीं दिये। बस जल ही जल, इस क्षितिज से उस क्षितिज केवल जल, खारा और नीला। फट्..फट्….फट् आवाज करते मोटर बोट, जैसे माँ अपने बच्चे को सीने पर खेला रही हो। ऊपर से धूप लग रही थी, लेकिन हवा की वजह से जल का यह सफर बड़ा सुहाना लग रहा था, वाजपेयी भइया की पंडित जी से अच्छी पटरी बैठ रही थी। हम तीनों अपने में मगन थे। त्रिपाठी भइया सभी के साथ थे। वेदान्त की बाल सुलभ क्रीड़ा जारी थी।
नाविक ने एक जगह जाकर नाव रोक दी, कुछ लोग फुर्ती से उस पर चढ़ आये। उनके हाथों में प्लास्टिक के घमेले थे, जिनमें पानी था-
‘‘मोती लीजिए, मोती ! ओरिजनल मोती, हम लोग सीप से निकालकर देगा, किसी में निकलेगा, किसी में नहीं, वे युवक थे। पहली यात्रा में त्रिपाठी भइया बहुत सारा मोती खरीद कर ले गये थे। हमारे बिलासपुर में मोती में छेद करने का काम नहीं होता, इसलिए सारे मोती इधर-उधर हो गये। हमने मोती खरीदने के लालच से स्वयं को बचाया।
एक जगह समुद्र के बीच में बड़ा सा टीला उभरा है। इस पर पेड़-पौधे लगे हैं, शायद किसी देवी का स्थान भी हो, कई लोग उतर कर जा रहे थे, परन्तु हम लोग नहीं गये, क्येंकि हमारे साथ दो लोग घुटना दर्द वाले और बाकी सभ्2ा उम्रदराज थे, एक वेदान्त को छोड़कर।
आगे हमारी मोटरबोट उस क्षेत्र में जाकर रुकी, जहाँ डाल्फिन मछलियाँ देखी जाती हैं। हम लोग एक टक देख रहे थे। जैसे ही कोई डाल्फिन उछलती सभी चिल्ला पड़ते, वह देखो डाल्फिन ! हमारी बोट के आसपास ही कई डाल्फिन तैर रहीं थीं। वे जल के अन्दर रहतीं हैं बीच-बीच में ऊपर छलांग लगाती हुई जल में छिप जाती हैं। समुद्र के पानी जैसा ही उनका रंग नीला दिखाई दे रहा था। हमें और कई द्वीप नजर आये।
इस समय तक आकाश में बादल छा गये और थोड़ी ही देर में मोटी-मोटी बून्दें बरसने लगीं। हम लोग पास-पास सरक कर तिरपाल के नीचे घुसने लगे ताकि सिर बच जाये भींगने से।
अच्छा यह हुआ की तेज पानी नहीं गिरा, हल्की-हल्की बुन्दा बान्दी होती रही। हमारी मोटर बोट वहाँ पहुँची, जहाँ से समुद्र और चिल्का झील का संगम दृष्टिगोचर हो रहा था। प्रत्येक ज्वार के साथ बड़ी मात्रा में जल चिल्का झील की ओर आ रहा था। परन्तु भाटे के साथ जल वापस नहीं जा रहा था। इस प्रकार चिल्का झील सदा विपुल नीरा बनी रहती है। यह एक अद्भुत दृश्य था। थोड़ी ही दूर पर ज्वार-भाटे का शोर था, हा -हा कार था, जैसे कोई विरही प्रेमी हो, और इधर शांत चिल्का, जैसे विवाह के बाद के दिन हों, या कोई योगी यति जो पूर्ण काम हो चुका हो।
हमारी बोट एक अन्य तट पर रुकी, जहाँ नारियल के पत्तों से छायी कुछ दुकाने लगाई गईं थीं, हम लोग उतरकर वहाँ तक आये, वहाँ कोल्ड ड्रिंक्स, भूनी मछलियाँ और माँस आदि बिक रहे थे, पूरे तट पर बिस्सर गंध फैली हुई थी। हमारे कुछ साथी लघु शंका निवारण हेतु इधर-उधर गये थे, अतः मैं एक दुकान में जाकर वहाँ पड़ी प्लास्टिक कुर्सी पर बैठ गई। टेबल की दूसरी ओर एक युवक बैठा बड़े इत्मिनान से कुछ पी रहा था। मैंने उधर ध्यान नहीं दिया, वह भी स्वयं में मग्न था। इस समय तक पुनः चिलचिलाती धूप निकल आई थी। हम पसीने से लथपथ हो रहे थे। स्वाभाविक रूप से मैंने सामने देखा, वह युवक कांच की गिलास में जो कुछ पी रहा था, निश्चय ही वह मदिरा थी। मैं तुरन्त उठकर दीदी लोगों के पास आ गई, वे एक छाया में कुर्सी पर बैठीं थीं, धत् तेरी की , कुर्सी के लोभ ने कहाँ पहुँचा दिया। मैंने स्वयं को धिक्कारा। तब तक सभी साथी एकत्र हो गये। हम लोग पुनः मोटर बोट में बैठे, वह अब उस घाट की ओर बढ़ रही थी जहाँ से हमारी यात्रा प्रारंभ हुई थी। वोट वाले ने बताया था कि ऐसे- ऐसे चार घाट हैं, चिल्का झील के। जहाँ सैलानी मोटर बोट किराये से ले सकते हैं।
मन अन्दर से वितृष्णा से भर गया था। यात्रा के समय मदिरापान ? आखिर सुख की किस सीमा को पाना चाहता है इन्सान का मन ? दिल्ली की दामिनी, सहित हजारों छबियाँ दिमाग में उधम मचाने लगीं, जिनकी मृत्यु का कारण मद्यपि थे, जिन्हें मद्य के नशे ने हैवानित तक पहुंचा दिया था। इन्हें कैसे रोका जा सकता है ? समुद्र के बीच में माँस मदिरा की दुकाने हैं, जहाँ चाहो वहाँ प्राप्य यह द्रव जिसके अंदर दुर्दान्त दानव घुले रहते हैं। इसके पेट में उतरते ही मनुष्य कुछ का कुछ हो जाता है। महिला संगठन हो हल्ला मचाते हैं, केन्डल मार्च, श्रद्धांजलि, कठोर कानून की माँग, पुलिस की छीछालेदर सब कुछ चलता है। कुछ दिनों टी.वी. पर इतने बार दुहराया जाता है कि नन्हें बच्चों को भी याद हो जाता है। परन्तु एक व्यक्ति भी शराब बन्दी की बात नहीं करता।
कम से कम घर से बाहर शराब पीकर निकलने पर तो बंदिश लगनी चाहिए। असंख्य दुर्घटनाओं में भी ड्राइवर भी मदहोशी कारण होती है। परन्तु रोग की जड़ उखाड़ने के लिए कोई तैयार नहीं है। देश गणतंत्र है, यहाँ हर व्यक्ति को कुछ भी खाने-पीने की स्वतंत्रता है। (चाहे पी-खाकर वह दूसरों की अस्मत और जिन्दगी की हत्या ही क्यों न कर दे) बेहिसाब राजस्व जिससे देश का विकास हो रहा है, कैसे बन्द किया जा सकता है? बड़े-बड़े नेता शराब की फैक्ट्री के उद्घाटन में जाकर पीकर नाचते, टी.वी. पर दिखाये जाते हैं। मुझे उस युवक की याद आ गई। जिससे मैंने आकाश गेस्ट हाउस की छत पर बात की थी। दुबला-पतला पता नहीं अठारह का हुआ या नहीं, परन्तु उसे अपने नागरिक अधिकार का एहसास है। अब वह शराब पी सकता है।
-तुलसी देवी तिवारी