पुरी यात्रा संस्मरण:
पुकार
-तुलसी देवी तिवारी
पुकार : पुरी यात्रा संस्मरण भाग-5 (रथ यात्रा की कथा)
जब हम लोग होटल पहुँचे तब तक संध्या के चार बज चुके थे। यात्रा के कारण हम सभी थके हुए थे, अतः अपने-अपने कमरे में थोड़ी देर विश्राम करने चले गये। पुरी में यह हमारी अंतिम रात थी। प्रातः होटल खाली कर हम लोग जिप्सी में बैठ जाने वाले थे। अतः घर वालों के लिये उपहार आदि खरीदने बाजार आज ही जाना था। कल छत पर तीन बार चढ़ने-उतरने के फलस्वरूप पैरों में बहुत दर्द हो रहा था। बाजार जाने की जरा भी हिम्मत नहीं थी, परन्तु दूसरा समय भी नहीं था। पंडित जी ने चाय-वाय पीकर कमरे में ही विश्राम करना पसंद किया। वाजपेयी भइया भी रुक गये। बाकी लोग भोजन करके इन दोनों के लिए लेकर आने वाले थे। हम लोग बाजार के लिए निकले, उस समय शाम सुरमयी हो चली थी। सड़क पर भी़ड़-़भाड़ बढ़ गई थी। देश-विदेश के पर्यटक, विभिन्न वेश-भूषा, विभिन्न भाषा में बातचीत करते नजर आ रहे थे। सड़क के दोनों ओर दुकानें भरी हुईं थीं, चाहे कपड़ों की हो, बर्तन की हो या खाजा, मिठाई प्रसाद की।
बाजार बीच पर लगता है। इस समय सागर तट बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था। भाँति-भाँति की दुकाने लगी हुई थीं, कहीं खिलौने, कहीं शंख, सीपी, मोती, नकली जेवरात, कहीं भगवान् जगन्नाथ के चित्र वाले बैंग्स, भीड़ इतनी की शरीर से शरीर टकरा रहे थे, हम तीनों बहनें साथ थीं, वेदान्त अपनी दादी से मन पसन्द खिलौने खरीदवा रहा था। हम लोग घर वालों के लिए उपहार खरीदने लगे। सबसे सहज हमें बैग लेना ही लगा। विभिन्न आकार प्रकार के बहुत सारे बैग हमने मोल ले लिए। अभी शंख आदि देख ही रहे थे कि हवा तेज हुई और झमाझम बारिश के साथ बिजली गुल हो गई। दुकानदारों के तिरपाल में घुसने की संभावना नहीं थी। अतः हम लोग भींगते रहे। कुछ दुकानदारों ने इममरजेंसी लाइट जला ली, जिससे कुछ उजाला हो गया। किसी प्रकार एक दूसरे का पल्लू पकडे़ हम लोग बाजार से बाहर आये।
यात्रा के कारण आज दोपहर का भोजन नहीं हो पाया था, अब त्रिपाठी भइया ने भोजन की तलाश प्रारंभ की, जहाँ से रोटी सब्जी ले गये थे, उसकी दुकान में बड़ी भीड़ थी, सड़क के किनारे एक तखत डालकर वह रोटी सब्जी की दुकान लगाये हुए था। हाथी के कान जैसी बड़ी और पापड़ जैसी पतली मैदे की रोटियों को वह एक बार तवे पर डालता तुरन्त पलटाता और परात में रख देता, पानी गिरने के कारण उसने अपनी दुकान बन्द कर दी। और कई जगह तालश की गई, परन्तु शाकाहारी होटल नहीं मिले, जहाँ देखो, शाकाहारी, मांसाहारी लिखा हुआ था। आगे बढ़े तो एक अच्छा सा साफ- सुथरा होटल मिला। त्रिपाठी भइया इसे पहले ही देख गये थे, यह इस्कान समूह का होटल है, यहाँ शाकाहारी भोजन ही बनता है। हम लोग जल्दी अन्दर घुसे पंखे के पास बैठ कर हवा में कपड़े सुखाने लगे। ‘‘चलो रे, पाये कुछ खाने को’’ इस प्रकार की आवाज मन में उठ रही थी। हमें बैठे काफी देर हो गई। हमारे जैसे लगभग पचास लोग हाल में बैठे भोजन की प्रतीक्षा कर रहे थे, कर्मचारी पूछ-पूछकर जा रहे थे, किन्तु ला कुछ नहीं रहे थे। त्रिपाठी भइया ने उनसे बात की।
‘‘भाई, पाँच आदमी का खाना लगा दो, और दो थाली पैक कर दो’’ उन्होंने ऐसे कहा जैसे भोजन बना रखा हो।
‘‘देखिए अभी मैंनेजर आ रहे हैं, उनके आने पर ही आप लोगों को भोजन मिलेगा।’’
वे आकर बैठ गये। इंतजार के साथ-साथ बेचैनी बढ़ती जा रही थी। होटल में जिन्हें छोड़ आये थे, वे परेशान हो रहे होंगे यह सोचकर।
नौ बज गये, मैनेजर नहीं आया। अब जरा कड़ाई से बात की गई तो पता चला सोमवार की शाम को होटल बंद रहता है। उनकी लानत-मलानत करते हम लोग बाहर आ गये। हमें होटल में छोड़कर त्रिपाठी भईया निकले, कहीं से खोज खाज कर कुछ रोटियाँ ले आये, जिसे बाँट बूंटकर हमने खाया। प्रभा दीदी से रोटी खाई नहीं जा रही थी, यही हाल अपना भी था, मैदे की कच्ची कच्ची रोटियाँ हवा लगते ही सूखकर इतनी चिम्मड़ हो गईं थीं कि हमारे दाँतों ने उन्हें खाने से इंकार कर दिया। अब जिनके मुख दंत विहीन हैं वे किस प्रकार अपनी क्षुधा शान्त कर सके होंगे सोचने की बात है। पास रखा नाश्ता गुझिया, पुआ आदि सहारा बने। संतोष के साथ हम लोग आराम करने चले गये। अभी तक हाॅल में चहल-पहल थी, लोग नानवेज उड़ा रहे थे। कोलाहल हो रहा था। दरवाजा जल्दी बन्द कर दिया हमने, नहीं तो खाया-पिया बाहर आ सकता था।
सोते समय मैंने देवकी दीदी के पैर में थोड़ा सा एक्यूप्रेशन किया, ताकि उनकी थकावट कम हो जाये, अपने और प्रभा दीदी के पैरों को भी राहत देने के लिए जिमी की सेवा ली। ‘‘मुझे अब याद आ रहा है, मुझसे रोटी खाई क्यों नहीं गई थी प्रभा दीदी बड़ी गंभीरता से बोलीं –
‘‘क्यों दीदी’’?
‘‘रोटी में घी नहीं लगा था’’।
‘‘आप बिना घी के रोटी नहीं खाती’’ ?
‘‘नहीं, हमेशा घी लगा कर ही देती है मेरी बहू’’।
‘‘अरे वाह ! क्या गाय भैंस हैं घर में’’ ?
‘‘नहीं, ग्वाले से दूध खरीदते हैं। मेरी बहू मलाई इकट्ठा कर घी बनाती है मेरे लिए’’
‘‘मैं सुखद आश्चर्य में पड़ गई, आज के युग में जब सास बहू के रिश्ते अपना अस्तित्व खो रहे हैं। दोनों एक दूसरे को अपने हितों की दुश्मन समझ कर जल भून रहीं हैं, एक दूसरे को बरदास्त न करने की होड़ में तलाकों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है, वहीं वृद्धाश्रमों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। एक ऐसी बहू है जो जतन से एकत्रित किया गया घी अपने पति-बच्चों को न खिलाकर अपनी सास को खिलाती है। प्रभा दीदी के भाग्य पर मुझे रश्क हो आया।
‘‘आपकी की बहू के दर्शन करना चाहूँगी दीदी। वैसे उसकी तैयारी मैं देख रही हूँ। मिठाई के डिब्बों में भर भर कर गुझिया दे दी है। इतना नाश्ता न होता तो हम लोग क्या खाते’’ ? मैंने कहा।
देवकी दीदी को नींद आ रही थी। प्रभा दीदी भी सो गईं।
आदतन मैंने एक पुस्तक उठा ली, किन्तु चैतन्य महाप्रभु, बल्लभाचार्य, जगद्गुरू शंकराचार्य द्वारा सेवित पुरी धाम मेरे विचारों के केन्द्र में था। मुझे जल्दी ही नींद आ गई। परन्तु वैसे ही उचट भी गई। मेरी आदत है अत्यधिक थकी होने पर जल्दी सो जाती हूँ। थोड़ी देर बाद उठकर पढ़ती या लिखती हूँ। यहाँ लिखने की मनःस्थिति नहीं बन पा रही थी। मैंने देखे गये स्थानों की संक्षिप्त जानकारी डायरी में लिखी, आते समय रेल गाड़ी एक बार पलाश वन से गुजरी। पूरा वन बसंती फूलों से भरा था। बसंती फूल और कोंढ़ा काला, अद्भुत सुन्दरता देखकर कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं, उसे दुबारा देखी-
पत्ते झड़े मधोक के,
लग गये पीले फूल।
चली हवा मदहोश सी,
उड़ने लगी है धूल।
वन प्रान्तर में फैल रही,
सृजन गंध सुकुमार,
रंगीली चुनरी रात की,
टंके है, बूटे तारों के।
पीले पत्तों के झड़ने से,
हल्की हुईं कुछ डालियां
मधूप पुष्प का मधुरस पीकर,
बावला सा, झूमे
आँखों में छायी मद की लाली,
भरने लगी है प्रेम की प्याली,
आई बहार फूलों की,
नन्हें तृन भी चमक उठे।
दिल में जागी टीस अनोखी,
होंठ दहकने लगे पलाश से।
मैंने चाहा कि मुझे नींद आ जाए, परन्तु मन विचार विथि में भटकने लगा था।
प्रभु जगन्नाथ पूरी तरह आदिम देव हैं, उनकी पूजा का हक भी शबर जाति के आदिवासियों को है। (वैसे आजकल मंदिर की व्यवस्था राज्य सरकार के हाथ में है) क्योंकि प्रभु की पहली पूजा विश्वावसु नामक शबर ने की थी। आदिवासी जीवन का आधार लकड़ी है। प्रभु का विग्रह कास्ट निर्मित है। अन्य देव मंदिर में ही विराजमान रहते हैं, प्रभु जगन्नाथ वैसाख में चन्दन यात्रा पर जाते हैं । उन्हें एक सौ आठ घड़े जल से मंदिर में नहलाया जाता है। चन्दन यात्रा अक्षय तृतीया के दिन प्रारंभ होती है। इस समय राम, कृष्ण, मदन मोहन, लक्ष्मी, सरस्वती सहित प्रभु जगन्नाथ सजे धजे रथ पर जुलूस के साथ, गायन वादन के मध्य नरेन्द्र ताल जाते हैं। यह ताल मंदिर के उत्तर में है। पुरी के सभी तालाबों से बड़ा, लगभग साढ़े तीन हेक्टेयर भूमि में फैला। इसके बीच में एक द्वीप है। उस पर बना पुल तालाब के एक सिरे से दूसरे सिरे को जोड़ता है। यहाँ एक मंदिर है जिसे चन्दन गृह कहते हैं। चन्दन यात्रा के दौरान प्रभु यहाँ रहते हैं। यह उत्सव बाइस दिन का होता है। इसके बाद 15 दिन तक प्रभु को अस्वस्थ मानकर दर्शन इत्यादि बन्द कर दिया जाता है। इस दौरान उन्हें काढ़े का भोग लगता है। यही प्रसाद भी होता है। इस समय रथ यात्रा की तैयारी जोर-शोर से हो रही होती है। अधिक स्नान से दारू विग्रह के रंग रोगन निकल जाते हैं। उन्हें पुनः लगाया जाता है।
इस प्रकार आसाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को रथ यात्रा प्रारंभ होती है। बुखार के पश्चात् जैसे मनुष्य को भ्रमण अच्छा लगता है वैसे ही भगवान् को भी लगता है। वे नौ दिन तक भाई बहन के साथ मौसी के घर गुंडिचा मंदिर में रहते हैं, जो मुख्य मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर दूर है। असंख्य भक्त इसके रस्से को खींचकर गुंडिचा तक ले जाते हैं, रथ के इस प्रकार में कोई वैशिष्ट्य नहीं, कोई दुराव नहीं, प्रभु एकदम अपने हैं, जन-जन के। अपनी गोल गोल आँखों से समस्त सृष्टि पर करूणा बरसाते हुए जगत् का पालन करते हैं। श्री रामचन्द्र चैदह वर्ष वन में रहे, बड़ी हाय तौबा मची, उनका आज तक यशगान हो रहा है। अपना कार्य कर पुनः नगर अयोध्या लौट गये। उनका वास्तविक जीवन नागर है। आज तक लोक वेद गा रहे हैं। श्री कृष्ण जी कुछ दिन नंद बाबा के यहाँ नंदगाँव में रहे, संकट समाप्त होने पर पुनः मथुरा चले गये, वहाँ होने वाले आक्रमणों से बचने के लिए सभी नागरिकों सहित दूर समुद्र में द्वारिका बसाई।
प्रभु जगन्नाथ आज भी जनजातीय ईश्वर हैं। सब के एकमात्र सहारे। सारी दुनिया पर स्नेह अमृत बर्षाने वाले। सभी संबंधों का आदर करने वाले। भाई बहन के साथ सभी जगह जाते हैं, पूजा पाते हैं बीमार पड़ते हैं, परन्तु पत्नी विमला को जब तक भोग नहीं लगता, भोग महाप्रसाद नहीं बन पाता। रथयात्रा के समय भी बिमला माता उनसे मिलने गुंडिचा मंदिर जातीं हैं। बीमारी हारी में माँ से बड़ा सहायक कोई नहीं। माँ से भी बढ़कर मौसी मानी जाती है। प्रभु उसके घर हर वर्ष जाते हैं। इस प्रकार अपने भक्त इन्द्रद्युम्न को दिया गया वचन भी पूरा करते हैं। पूजा पाठ, यात्रा, इस बात को सिद्ध करता है। प्रभु जगन्नाथ समन्वय पसंद हैं। मनुष्य को भी सभी शक्तियों का आदर करके जीवन व्यतीत करना चाहिए।
सोचते-सोचते जी उबने लगा। मैंने लेटे लेटे राम-राम जपना प्रारंभ किया, न जाने कब मुझे नींद आ गई।
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-तुलसी देवी तिवारी