पुरी यात्रा संस्मरण पुकार भाग-6 -तुलसी देवी तिवारी

पुरी यात्रा संस्मरण:

पुकार

-तुलसी देवी तिवारी

पुरी यात्रा संस्मरण: पुकार-तुलसी देवी तिवारी
पुरी यात्रा संस्मरण: पुकार-तुलसी देवी तिवारी

गतांक से आगे

पुकार : पुरी यात्रा संस्मरण भाग-6 (पुरी से भुनेश्‍वर यात्रा)

अगले दिन (2-4-2013) प्रातः अपने समय पर ही नींद खुल गई। हमें सात बजे तक होटल छोड़ देना था, प्रसाधन एक ही था। मैंने नित्य क्रिया के बाद ही देवकी दीदी को जगाया। यूँ तो वे जगी हुईं थीं। त्रिपाठी भइया वेदान्त के साथ समुद्र स्नान कर आये। बाकी लोगों ने कमरे में बने प्रसाधन का प्रयोग किया। आनन-फानन में सभी सामान समेटने के बाद मैंने पंडित जी को देख लेना उचित समझा, उनके कपड़े आदि समेट कर ले आई। थैली, डिबिया, चश्मा आदि ढ़ूंढ़कर दे दिया। योजना के अनुसार जिप्सी, आकाश होटल के सामने आकर खड़ी थी। हमने होटल के कमरे की चाबी काउन्टर मेन को थमायी। किराया पहले ही दिया जा चुका था। कुछ लोग आकाश गेस्ट हाऊस के सामने खड़े चाय पीने लगे थे।
‘‘दीदी! महिलाओं के लिए हमने बैग खरीद लिया है, बाकी बच्चों के लिए कुछ नहीं ले पाये, यह ठीक नहीं’’। मैंने देवकी दीदी से कहा।
‘‘ह…ओ..ऽ…ऽ…. पानी रोगहा तो नास कर दिस, तेन माँ लाइट गोल का करतेन’’? उन्होंने मजबूरी दर्शायी ‘‘ आ तो , दे मेर’’ दुकान खुलगें हे’’!
हम तीनों, सामने वाले उत्कल हेण्डलूम शॉप पहुँचीं, गर्मी आ रही थी, सभी के लिए सिर कान ढंकने वाले गमछे 60-60 रूपये में खरीद लिए। तीस गमछे बेचकर दुकानदार भी गद्गद् हो गया। हमनें मंदिर की ओर मुँह करके प्रणाम किया, समुद्र का स्तवन किया और चल पड़े, भुवनेश्वर।

यहाँ से भुवनेश्वर जाने के दो रास्तें हैं, वापसी वाला रास्ता 30 कि.मी. का ही है। इस रास्ते से जाते हुए हम लोग पुरी के अन्य दर्शनीय स्थलों के दर्शन करना चाहते थे। पंडित जी ड्राइवर की बगल में आगे बैठे, बाकी छहों लोग पीछे, आमने-सामने। मार्ग के दोनो ंओर सघन वृक्षावली, समतल चिकनी सड़कें, ऊषाकालीन मनोरम वातावरण, हमें प्रसन्नता दे रहा था। तेज हवा के झोंके हमारे जिस्म से टकराकर हमें सुखद सिहरन से भर दे रहे थे। हम यात्रा के आनंद को गाना सुनकर और बढ़ा रहे। और बढ़ाना चाहते थे। मैं चाहती थी कि पहली यात्रा की तरह कुछ भजन आदि हो, मेरे आग्रह पर त्रिपाठी भइया ने हनुमान् चालीसा प्रारंभ किया, वाजपेयी जी ने अरूचि जताई, चालीसा की समाप्ति पर प्रश्न किया हनुमान् जी के किस गुण के कारण आप उन पर इतनी श्रद्धा रखती हैं?
‘‘उनकी श्रीराम के प्रति निःस्वार्थ सेवकाई के कारण’’।

‘‘तब तो अभी आपने उन्हें अच्छी तरह जाना ही नहीं’’ बाजपेयी जी गंभीर थे।
‘‘उनकी महिमा अगम अगोचर है। मेरी तुच्छ बुद्धि कहाँ पार पायेगी’’? मैंने नम्रता पूर्वक उनका आरोप स्वीकार किया।
वे अपने जीवन के अनुभव बताने लगे। जो मेरे लिए कभी न कभी उपयोगी साबित हो सकते थे।
सबसे पहले पुरी से लगभग बीस कि.मी. आने पर साक्षी गोपाल नामक स्थान पर गाड़ी रुकी यहाँ, राधाकृष्ण की जीवन्त प्रतिमा प्रतिष्ठित है। सर्वाभरणयुक्त प्रेम येग में निमग्न प्रतिमा देखकर मन प्रेमाभक्ति के अधीन हो गया। दांये हाथ में मुरली, बायाँ हाथ राधा रानी के कंधे पर, होठों पर मंद स्मित, मैं ठगी सी उस छवि का नेत्रों से रसपान करने लगी।

सारे साथियों का भी यही हाल था। यह मंदिर भगवान् की भक्त वत्सलता का साक्षी है। कहते हैं एक निर्धन ब्राम्हण युवक धनी बुजुर्ग के साथ मथुरा वृन्दावन की यात्रा पर गया था, उसकी सेवा से प्रसन्न हो बुजुर्ग ने वादा किया कि वे अपनी पुत्री का विवाह उक्त युवक के साथ कर देंगे। उसने कहा ‘‘मैं तो निर्धन हूँ, शायद आपके लिए यह संभव न हों’’।

‘‘भगवान् गोपाल साक्षी हैं‘‘ ऐसा ही करूँगा, परन्तु घर आने पर बुजुर्ग के पुत्रों ने इस रिश्ते को स्वीकार नहीं किया। तब उसने गोपाल को पुकारा, उन्होंने आकर गवाही दी। ब्राम्हण ने यहाँ मंदिर बनाकर राधाकृष्ण को प्रतिष्ठित किया।

आगे बढ़ने पर निर्जन में एक होटल दिखाई पड़ा। वहाँ खुले में बड़ी सी तिरपाल डालकर कुछ टेबल कुर्सियाँ डाल दी गईं थीं, गैस स्टोव्ह पर समोसा, बड़ा, डोसा, इडली आदि गरमा-गरम निकल रहा था। कई टुरिस्ट गाड़ियाँ रुकीं हुईं थीं, बड़ी भीड़ थी। हम लोगों ने भी नाश्ता नहीं किया था। ड्राईवर ने गाड़ी रोकी और सभी यथा रूचि नाश्ता करने लगे। पानी के ड्रम गंदे दिख रहे थे, फिर भी मन पक्का कर पानी पिया गया।

अब हम लोग धउलीगिरी पहुँचे। यह प्रकृति की गोद में बसा एक सुरम्य स्थान है। चौड़ी पक्की सड़क, पेयजल की व्यवस्था, व्यवस्थित उपवन, जिसमें भांँति-भाँति के पेड़ पौधे लगे हुए हैं, तरह तरह के पोषित कुसुम इस स्थान को निर्वेद से भर रहे हैं, एक पहाड़ी है, जिसके शिखर पर भगवान् बुद्ध की विशाल, श्वेत वर्णी प्रतिमा स्थापित है। वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। हमने पास से उनके दर्शन किये। इसके पीछे देवी माता, शंकर भगवान् का मंदिर है, हमने भक्ति पूर्वक दर्शन कर प्रसाद खरीदा। उस दिव्य शिखर से मैंने नीचे फैले हरे भरे चौरस मैदान पर दृष्टि डाली। पशु चर रहे थे जो वहाँ से लघुकाय प्रतीत हो रहे थे, जगह-जगह लोग पेड़ों की छाँव में खड़े होकर प्रकृति की छटा निरख रहे थे। यही वह ऐतिहासिक मैदान है जहाँ मगध के राजा अशोक ने कलिंग से युद्ध किया था।

उड़ीसा की सम्पन्नता का समाचार सुनकर वह अपनी सेना सहित खींचा चला आया था। किन्तु उसने कलिंग योद्धाओं की देशभक्ति का आंकलन सही नहीं किया था, इस युद्ध में धन-जन का इतना भीषण विनाश हुआ कि अशोक का हृदय शोकाकुल हो उठा। उसने ऐसी विजय तो नहीं चाही थी। क्या वह लाशों का सम्राट बनने कलिंग आया था ? उसने यहीं बौद्ध धर्म स्वीकार कर युद्ध से हमेशा के लिए तौबा कर ली। मैं कल्पना लोक में दूर तक निकल गई। सेना के पशु, सैनिक, साजो-समान, भोजनालय, सब कुछ समा जाय इतना बड़ा क्षेत्र, युद्ध के लिए एकदम उपयुक्त, एक तरफ दया नदी का नीर अपूरित पाट, एक तरफ धउलीगिरि, एक ओर अशोक की सेना, एक ओर कलिंग की, भागने का कोई रास्ता ही नहीं। एक ओर राज लिप्सा के लिए पागल अशोक की विशाल वाहिनी, दूसरी ओर मातृभूमि के स्वाभिमान की रक्षा के लिए जान हथेली पर रखे कलिंग योद्धा। रक्त और शवों से पटा मैदान। मैं देख तो सामने रही थी, किन्तु वास्तव में वहाँ से बहुत दूर थी।

देवकी दीदी ने मुझे आवाज दी ‘‘कति गै ओ लेखिका बाई, एही मेर रहे के विचार हावे का ओ’’ ? सब लोग आगे बढ़ गये थे, कुछ लोग बुद्ध भगवान् की समाधिस्थ प्रतिमा के चरणों में माथा टेकते हुए फोटो उतरवा रहे थे। पंडित जी भी उन्हीं में शामिल थे। जिन्दगी के 42 वर्ष साथ-साथ रहने पर भी आप मानेंगे क्या कि, मुझे उनके फोटो उतरवाने के शौक का पता नहीं था। सीढ़ियाँ उतरकर मैं उस जगह जाकर खड़ी हो गई, जहाँ एक बड़े से बोर्ड पर स्तूप के बारे में जानकारी अंकित थी। लिखने में समय लग रहा था, इसलिए त्रिपाठी भइया ने कैमरे में उसका चित्र उतार लिया। इस शांति स्तूप का निर्माण जापानियों ने 1900 ईसवी में करवाया था।

इसके बाद हम लोग भुवनेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर श्री लिंग राज के दर्शन करने पहुँचे। इन्हीं का नाम भुवनेश्वर है। यह मंदिर ऊँची चहार दीवारी से घिरा हुआ है। चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। मुख्य द्वार परंपरानुसार सिंह द्वार कहलाता है। आने जाने वाले दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए चौड़े द्वार में एक पाइप लगाकर दो भागों मेंं विभक्त कर दिया गया है। यहाँ से अन्दर प्रविष्ट होते हुए दर्शन कर वापस आने वाले एक यात्री परिवार पर मेरा ध्यान गया। ध्यान आकृष्ट होने का कारण उनके देह की स्थूलता थी। तारक मेहता का उल्टा चश्मा टी.वी. सीरियल में जैसे डॉ. हाथी हैं, उनसे भी कुछ ज्यादा स्थूल एक पुरूष, एक महिला (वयः प्राप्त) एक युवती/पुरूष का एक अंग का लकवा ग्रस्त था, जिसके कारण एक तरफ छड़ी और एक तरफ युवती के सहारे वे बहुत मुश्किल से पग बढ़ा रहे थे। लगता था वे उस युवती के पिता थे। युवती के चेहरे पर जरा भी थकावट या अनमनस्कता के भाव नहीं थे। उसके गोल चेहरे पर पसीने की बून्दें छलछला रहीं थीं, जिससे माथे पर लगा तिलक घुलकर इधर-उधर फैल रहा था। वह अत्यंत आत्म संतोष के साथ सहारा दिये अपने पिता को हर मंदिर में देव दर्शन कराती अधेड़ स्त्री पीछे पीछे बैग लिए चल रही थी। उसे देखकर लग रहा था जैसे यह चल नहीं रही है बल्कि अपना बोझ ढो रही है। यह परिवार मुझे पुरी मंदिर, धौलीगिरी में भी दिखाई दिया था, किन्तु भीड़ के कारण उधर ध्यान नहीं दे पाई थी।

‘‘कहो ! इस तरह के लोग भी दृढ़ इच्छाशक्ति और अपनों के सहारे यहाँ तक पहुँच जाते हैं और अच्छे भले लोग कठिनाईयों का रोना रोते पड़े रह जाते हैं। हम लोग सबसे पहले भव्य गणपति मंदिर में दर्शन करने पहुँचे। गजवदन की स्तुति प्रणाम कर हमने अपनी आँखे धन्य की। इसके आगे नंदी महाराज स्तम्भ मिला। वहीं से मंदिर के दर्शन कर हम लोग भोग मंडप में पहुँचे। इस समय भोग का समय था, और हरिहर मंत्र से भोग लगाया जा रहा था। स्वस्थ पंडे बड़ी-बड़ी देगो में भोग लेकर मंदिर में जा रहे थे। आवाज के द्वारा वे भीड़ को हटा देते थे। लिंगराज मंदिर में दर्शन हेतु लंबी लाइन लगी हुई थी, गर्मी की अधिकता से पंडित जी परेशान हो गये। वे एक जगह पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर गमछा बिछाकर बैठ गये। मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ना उनके लिए मुश्किल था। बाकी साथी दर्शन हेतु हौले-हौले आगे बढ़ते रहे। भोग मंडप से आगे नाट्य मंडप मिला, यहाँ दीवारों पर कई प्रकार की मूर्तियाँ बनी हुई हैं।

आगे दक्षिणमुखी मुखशाला है। बस इसके बाद ही मुख्य मंदिर है, इसका शिल्प अद्भुत है। मंदिर की आन्तरिक दीवारों पर ओड़िसी शैली में मनोहर मूर्तियाँ उकेरी गईं हैं। पंक्ति के साथ सरकते हुए हम लोग लिंगराज जी के निकट पहुँचे। यह वास्तव में बुद् बुद् लिंग है। चट्टान में बुद् बुदाकार आकृति को ही लिंगराज महादेव माना और पूजा जाता है। इसकी आकृति चक्र के समान होने के कारण हरिहरात्मक लिंग माना जाता है। (विष्णु शिव का) इसीलिए हरिहर मन्त्र से इनकी पूजा होती है। हम लोगों ने गर्भगृह में जाकर स्वयं पूजा का सौभाग्य प्राप्त किया। यहां का मुख्य आयुध त्रिशूल न होकर धनुष है।

मैंने प्रभु दर्शन की अनुभूति प्राप्त की। मन वहाँ कुछ देर ठहरना चाहता था, किन्तु पीछे की भीड़ ने मेरी इच्छा पूर्ति में बाधा उत्पन्न की। हम मंदिर से बाहर आ गये। यह मंदिर विशाल भू-भाग में फैला हुआ है। इसकी स्थिति पठार जैसी है। दिन साफ था और धूप चमकीली, हम लोग पसीने से लथपथ खुली हवा में आकर लंबी साँसे लेने लगे। परिसर में चहुँ ओर सुव्यवस्था के दर्शन हुए। इतने लोगों का आना जाना था, किन्तु कहीं कचरे का ढेर नजर नहीं आया, न ही पोलीथीन का कोई टुकड़ा। आस -पास पेड़-पौधों से हरियाली छाई थी, मंदिर पं्रागण में भी बहुत सारे वृक्ष हैं, जो थके हुए यात्रियों को पंखा झलकर शीतलता प्रदान करते हैं। प्रमुख मंदिर के पीछे एक छोटा मंदिर भग्नावस्था में है, यह पार्वती जी का मंदिर है। कुछ मंदिर अभी भी ठीक ठाक है। जैसे – उत्तर में स्थित कार्तिकेय का मंदिर, मुख्य मंदिर के ऊपर की ओर बना कीर्ति मुख, नाट्येश्वर, दस दिग्पाल आदि का मंदिर। इसके अलावा और भी कई मंदिर, महाकालेश्वर, लक्ष्मी, नृसिंह, रामेश्वर, विश्वकर्मा, भुवनेश्वरी, गोपालिनी मंदिर के पास ही नंदी के विशाल विग्रह से प्रतिष्ठित नंदी मंदिर है। सभी मंदिरों की दीवारों पर उत्कृष्ट कलाकृतियाँ अंकित हैं। जिन्हें समझने के लिए पर्याप्त समय की आवश्यकता थी, जिसका हमारे पास अभाव था। वैसे भी भुवनेश्वर उड़िसा की राजधानी है। भव्य भवनों के साथ ही यह प्राचीन मंदिरों का शहर है और तो बहुत सारे काल प्रवाह में अपना अस्तित्व खो चुके हैं, परन्तु संसार को उत्कल संस्कृति से अवगत कराने के लिए अब भी बहुत कुछ शेष है यहाँ।

भुवनेश्वर काशी के समान ही शिव की नगरी है। इसीलिए इसे गुप्त काशी, उत्कल वाराणसी, एकाग्र क्षेत्र आदि नामों से पुकारा जाता है। मंदिर के बाहर आकर हम लोग गाड़ी में बैठ गये। नंदन कानन जाना संभव नहीं हो सका, क्योंकि उस दिन कानन बन्द रहता है (सोमवार) वैसे भी धूप में पैदल घुमने की किसी की हिम्मत नहीं थी।

हमारी बस आगे एक अन्य भव्य मंदिर से थोड़ी दूरी पर रुकी। हर मंदिर की तरह यहाँ भी व्यवस्था बड़ी चुस्त थी, पुलिस विभाग के कर्मचारी दर्शनार्थियों को ठीक मार्ग से अन्दर भेज रहे थे। स्त्री-पुरूष पंक्ति अलग-अलग थी। मंदिर के मुख्य द्वार के बाहर जूते चप्पल उतार कर अन्दर प्रवेश का नियम है। मंदिर की चहार दीवारी से लगकर भिखारी-भिखारिनें बैठी भीख माँग रही थीं। मैंनें अपनी चप्पल एक गोरी सी अधेड़ उम्र की विकलांग भिखारिन के पास उतार दीं। और साथी अपनी चप्पले गाड़ी में ही छोड़ आये थे, हम अन्दर जाकर देवी माँ के दर्शन कर जल्दी ही बाहर आ गये। भीड़ ज्यादा नही थी क्योंकि अब मंदिर बन्द होने का समय निकट था। बाहर आकर देखा तो चप्पलें गायब! मैंने इधर-उधर खोजा, भिखारिन से पूछा, उसने जानने से इंकार कर दिया। ‘‘इसी ने छिपाया होगा’’ मेरे मन में शंका ने सिर उठाया। परन्तु यहाँ कुछ कहा तो जा नहीं सकता था। भूमि तप रही थी, नंगे पैर चलने की मेरी आदत नहीं है। ‘‘ठीक हुआ मैं ज्यादा सुखवंती बनी थी, इसकी यही सजा है’’। सोचते-सोचते साथियों के पीछे-पीछे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी, कि वेदान्त न जाने क्या सोचकर पीछे रह गया और थोड़ी देर बाद ही दौड़ता हुआ आ गया उसके हाथ में मेरी चप्पलें थीं। ‘‘ये लो दादी अपनी चप्पल’’ वह हाँफ रहा था।
‘‘कहाँ थी बेटा’’ ? मैंने जैसे राजसुख पाया।

‘‘चप्पल स्टेण्ड वाले ले गये थे दादी’’। वह बोला, मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। ‘‘सुखी रहो बेटा’’!
‘‘बेकार ही भिखारिन पर शक किया, तीर्थ का पाप कई गुना होकर मिलता है। मैंने जन-जन में व्याप्त परम् ब्रम्ह परमेश्वर से इस मनसा पाप के लिए क्षमा माँगी।
’’’’

-तुलसी देवी तिवारी

शेष अगले भाग में

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