पुरी यात्रा संस्मरण:
पुकार
-तुलसी देवी तिवारी
पुकार : पुरी यात्रा संस्मरण भाग-7 (कोणार्क सूर्य मंदिर यात्रा)
कोणार्क यात्रा-
हमें अब कोणार्क का सूर्य मंदिर देखने जाना था। गाड़ी में सभी लोग यथा स्थान बैठ गये। बाजपेयी जी ने पूछा – ‘‘कहीं खाना-वाना मिलेगा या नहीं’’ ?
‘‘बस ! साहब अच्छे से होटल में रोकता हूँ’’। ड्राईवर ने कहा।
‘‘शाकाहारी होना चाहिए’’। मैंने भी अपनी बात जोड़ी।
‘‘हाँ…हाँ… बिल्कुल शाकाहारी’’।
कुछ समय के बाद हमें सड़क के दोनोंं ओर पक्के भवन नजर आने लगे। जिनके सामने यात्री गाड़ियाँ खड़ी थीं। लोग आ-जा रहे थे।
जगह देखकर ड्राईवर ने गाड़ी रोकी।
‘‘चलिए कुछ खा लीजिए’’ ? मैंने आगे बैठे पंडित जी से कहा।
‘‘नहीं! मैं कुछ नहीं खाऊँगा, तुम खा लो’’! वे आदतन बिदककर बोले।
‘‘मैं जानती थी ऐसा ही करोगे, जब से चले हो खाने के नाम पर परेशान कर रहे हो’’। मैंने धीरे से कहा, जानती थी, इतनी धीरे बोली बात वे सुन नहीं पायेंगे।
होटल पक्का एवं साफ सुथरा था। कुर्सी, टेबल, पंखा आदि सब कुछ था। मुझे भुख नहीं लगी थी, परन्तु यदि मैं मना कर देती तो हो सकता था देवकी दीदी, प्रभा दीदी भी संकोचवश मना कर देतीं। यह उचित नहीं होता। मैंने टोह लेना जारी रखा, ‘‘कही होटल शाकाहारी-मांसाहारी दोनों तो नहीं, ड्राईवर बार-बार विश्वास दिला रहा था,‘एकदम शाकाहारी है’’। मैं हाथ धोने वाशबेसिन की ओर गई थी, लौटते समय पीछे की सीट पर, चार लोग कुछ अजीब सा खींच-खींचकर खा रहे थे, मुझे समझ तो कुछ नहीं आया, परन्तु नजरें ठहर गईं। ड्राईवर मेरे पीछे ही आ रहा था, उसने मेरे मनोभाव ताड़कर कह दिया – ‘‘ये लोग दूसरी जगह से लाकर खा रहे हैं’’।
‘‘मेरा मन घृणा से भर उठा ‘‘आखिर जहाँ खरीदा वहीं क्यों नहीं खाये’’ ? मन में प्रश्न उठा।
सबके लिए दाल, चावल, रोटी, सब्जी लग गई। हमने एक थाली में दो व्यक्ति खाने का विचार किया था, रोटियाँ किसी और को दी, चावल किसी और को। मन पक्का कर के दो चार कौर मुँह में डाला, चावल मोटा था, भोजन पहले से तैयार रखा था, जिसे गरम करके दिया गया था, पंखे की हवा लगते ही वह पुनः ठण्डा और बेस्वाद हो गया।
सबका यही हाल था, हम लोग जल्दी ही होटल से बाहर आ गये।
त्रिपाठी भइया बिल दे रहे थे, बिल पर वेज/नानवेज लिखा था।
‘‘यदि नानवेज मिलता नहीं है तो लिखा क्यों है बिल पर’’ ? उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया ? ‘‘साले ने धोखा दे दिया’’? वे धीरे से बोले। होटल से सटे शराब खाने पर मेरी नजर टिकी।
‘‘छी….छी….. दारू भट्ठी के पास खाना खा लिए’’ ? उबकाई आने लगी। घर से दूर ड्राईवर से बहस करने का कोई लाभ नहीं था। न तो गला काटकर फेंका जा सकता था न पेट बदला जा सकता था, भूलना ही एकमात्र चारा था। यहाँ से सूर्य मंदिर मुश्किल से एक किलोमीटर था।
विश्व प्रसिद्ध कोणार्क का ऐतिहासिक तथ्य-
कोणार्क नामकरण-
सड़क पर वाहन आ जा रहे थे। मन में उत्सुकता थी, ‘‘कैसा है वह विश्व प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर, जिसे संसार का सबसे अद्भुत मंदिर माना जाता है ? आज संसार के वैज्ञानिक इसे वेधशाला के रूप में महत्व दे रहे हैं। यहाँ से खगोलीय अन्वेषण किये जाते थे। ग्रहों की स्थिति, उनकी चाल, उनका पृथ्वी के जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाता था। सौर मंडल अधिपति सूर्य यहाँ के आराध्य देव हैं। कई बातें दिमाग में आ रहीं थीं, जैसे प्राचीन काल में कणय नामक राजा यहाँ राज्य करते थे। अर्क नामक असुर से प्रताड़ित होकर उन्होंने सूर्य भगवान् की तपस्या की। उन्होंने अर्क का दमन किया, उनके प्रहार से अर्क धरती में घुस गया, वहाँ एक बड़ी दरार बन गई। दोनों के नामपर उस क्षेत्र का नाम कोणार्क पड़ा। उसी दरार में नींव भरकर वर्तमान सूर्य मंदिर का निर्माण किया गया।
कोणार्क से जुड़ी कथाएं-
भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की कथा-
भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने कुष्ट रोग से मुक्ति हेतु इस क्षेत्र में सूर्याराधन किया।
एक दिन स्नान के समय चन्द्रभागा नदी में सूर्य की सुन्दर प्रतिमा प्राप्त हुई। सूर्य की आज्ञा से शाम्ब ने चन्द्रभागा तट पर मंदिर बनाकर सूर्य विग्रह स्थापित किया, तभी से भूलोक पर सूर्य पूजा प्रारंभ हुई।
सूूूूूूूूूूूर्य के शरीर का पुन:निर्माण-
शास्त्रों में लिखा है – देव शिल्पी विश्वकर्मा की सुन्दर कन्या संध्या से सूर्य का विवाह हुआ था। सूर्य पत्नी का सतत् सानिध्य चाहते थे, परन्तु उनके असह्य तेज से घबराकर संध्या उनसे दूर श्वेत द्वीप में जाकर छिप गई, जहाँ सूर्य नहीं पहुँच पाते (उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव) पत्नि के वियोग से दुःखी सूर्य ने ब्रम्हदेव से फरियाद की। विश्वकर्मा को बुलाकर पूछा गया, तब उन्होंने सूर्यताप की असह्यता की बात कही। ब्रम्हदेव ने एक बार पुनः सूर्य के शरीर का निर्माण करने की आज्ञा दी।
विश्वकर्मा ने सूर्य को साँचे में ढाला, जो अंग बाहर निकला, उन्हें काटकर अलग कर दिया। जिससे सूर्य का रूप कमनीय और सह्य हो गया। संज्ञा वापस पति के पास आ गई। सूर्य के कटे हुए अंगों से देव शिल्पी ने विष्णु जी के लिए चक्र, शिव जी के लिए त्रिशूल, कुबेर की गदा और कार्तिकेय जी का भाला बनाया। शेष अंश से एक सुन्दर विग्रह बनाकर चन्द्रभागा नदी में डाल दिया। संयोग से वही मूर्ति शाम्ब को मिली थी।
लागुला नरसिंह की कथा-
पुरी मंदिर का निर्माण कराने वाले गंग वंशीय यशस्वी नरेश अनंग भीमदेव अत्यंत धर्म परायण, विष्णु भक्त थे, अपने भुजबल से उन्होंने अपने राज्य का चहुँ ओर विस्तार किया। धर्मानुकूल आचरण करने वाले राजा सन्ता नहीन थे। महारानी ने कोटि प्रयत्न किया, (दान, धर्म आदि) किन्तु वे पुत्रवती नहीं हुईं। सूर्य क्षेत्र के रूप में विख्यात कोणार्क में उन्होंने सूर्याराधन किया। सूर्य ने प्रारब्ध में पुत्र न होने की बात कहकर अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। किन्तु हनुमान् जी की शरण में जाने का उपदेश दे दिया। हनुमान् जी ने उनकी कठोर तपस्या से द्रवित होकर वरदान दे दिया – देवी, तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है, चलो मैं स्वयं तुम्हारा पुत्र बनकर आऊँगा। समय आने पर रानी पुत्रवती हुईं। परम रूपवान पुत्र की पूँछ देखकर रानी ने समझ लिया कि ये स्वयं महावीर हैं। पुत्र का नाम नरसिंह रखा गया। परन्तु पूँछ के कारण लोग उन्हें लागुला नरसिंह कहने लगे। युवावस्था प्राप्त नरसिंह देव बड़े प्रतापी थे। उन्होंने पिता की तरह ही राज्य विस्तार किया। गौड़ देश पर आक्रमण कर अपार धन सम्पदा प्राप्त किया।
सूर्य मंदिर निर्माण की भूमिका-
माता चहतीं थीं कि उनका पुत्र कोणार्क क्षेत्र में एक विशाल सूर्य मंदिर का निर्माण कराये। नरसिंह देव के मन में माता की आज्ञा का पालन करने की योजना बन रही थी। राजा के जीवन में दुःखद घटना घटी। उनका विवाह काश्मीर की राजकुमारी से हुआ था वे शिशुपाल नामक सामंत की पुत्री माया के रूप, गुण, शील पर मुग्ध हो गये, किन्तु रानी के संकोचवश उससे दूरी बनाये रखी। काश्मीर की राजकुमारी ने नरसिंहदेव के वियोग में माया के रूग्ण होने का समाचार सुना। राजा उस समय युद्ध पर थे। अतः राजकुमारी माया का विवाह अपने पति से स्वीकार कर उसके पास गईं। किन्तु दुर्भाग्य से माया का देहान्त हो गया। यह समाचार सुनकर राजा युद्ध से तुरन्त वापस आये। माया की इच्छानुसार उसका मृत शरीर एक पेटी में रखकर बहा दिया गया था। खोजने पर चन्द्रभागा नदी जहाँ समुद्र से मिलती है, वहीं वह पेटी मिल गई। खोलकर देखा तो माया की आँखें खुली हुईं थीं, मानो वे अपने प्रियतम की राह देख रही हों। राजा के स्पर्श से उनके नेत्र सदा के लिए बन्द हो गये। राजा ने वहाँ एक मंदिर बनवाया था (माया देवी मंदिर) जो आज भी है।
सूर्य मंदिर निर्माण के लिए शिल्पी की खोज-
भग्न हृदय राजा एक दिन राज्य के दौरे पर थे। प्राची नदी के तट पर बसे गाँव, ओशलंग में रात्रि विश्राम करने लगे। यह गाँव श्रेष्ठ कारीगरों का था। राजा एक सामान्य सैनिक के वेश में थे, ताकि राज्य की वास्तविक जानकारी प्राप्त हो सकें। वे विशुराणा नाम के शिल्पी के अतिथि बने। उस समय विशुराणा एक अश्व प्रतिमा के निर्माण में दत्तचित्त था, उसने राजा के घोड़े की टाप नहीं सुनी, उसके हाथ में निहाई और हथौड़े थे, हाथ निर्जीव चट्टान में प्राण फूँकने की तैयारी में लगे हुए थे। पत्नी ने उन्हें अतिथि आगमन की सूचना देनी चाही, परन्तु राजा ने शिल्पी का ध्यान भंग करना उचित नहीं समझा। गृहिणी ने पूरे मनोयोग से मेहमान नवाजी की।
प्रातःकाल अतिथि ने अपने अश्व को सामने खड़ा देखा ‘‘अरे यह यहाँ कैसे आ गया’’ ? वे आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने उसके जिस्म पर हाथ फेरा। उनकी दृष्टि अश्व के पाँवों की ओर गई, हाथ में छेनी हथौड़ी लिए शिल्पी निद्रा निमग्न था।
‘‘ओह ! इतनी सजीव कलाकृति ? मैं भी धोखा खा गया। यही शिल्पी सूर्य मंदिर बनाने में समर्थ हैं। राजा ने शिल्पी की भूरि-भूरि प्रशंसा की और अपनी राजधानी आने का आमंत्रण दिया।
सूर्य मंदिर निर्माण की कथा-
गहन विचार-विमर्श के पश्चात् राजा नरसिंह देव ने विशु राणा के एक अद्वितीय सूर्य मंदिर निर्माण का दायित्व सौंपा। वह अपने 1200 साथियों के साथ 12 वर्षों तक लगातार सूर्य मंदिर के निर्माण ले लगा रहा ।
पूरा मंदिर बनकर तैयार हो गया, किन्तु कलश नहीं चढ़ रहा था, देश-देश के कारीगर बुलाये गये, किन्तु सब नाकामयाब हुए। गोड़वाना अभियान का सारा धन खर्च हो चुका था, राजा व्यग्र हो चुके थे। उन्होंने मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का दिन निश्चित कर दिया, साथ ही घोषणा कर दी कि जो मंदिर पर कलश चढ़ायेगा उसे वे प्रधानमंत्री का पद देंगे।
पिता का अपयश सुनकर विशुराणा के बारह वर्षीय पुत्र धर्मपद ने, जिसे शिल्पकला विरासत में मिली थी, सहज ढ़ंग से रातों रात कलश चढ़ा दिया। सारे कारीगर प्रसन्न हुए किन्तु तुरन्त उदास हो गये।
‘‘संसार क्या सोचेगा’’ इतने कारीगरों ने 12 वर्षों तक क्या किया ? एक छोटा बच्चा कर सकता है किन्तु ये नहीं कर सके या फिर इन्होंने ईमानदारी से कार्य नहीं किया।’’ विशुराणा की सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी’’।
धर्मपद ने तो अपने पिता की प्रतिष्ठा के लिए यह कार्य किया था। ‘‘ऐसे जीवन से क्या लाभ जो पिता के अपयश का कारण बने’’? उसने कलश के पास से ही समुद्र में छलांग लगाकर अपना बलिदान कर दिया।
कोणार्क मंदिर दर्शन-
मेरे चेहरे पर पीड़ा की रेखायें गहरी हो गईं। बेचारा धर्मपद ! होम करते हाथ जला बैठा। उसका जीवन अमूल्य था, उसके निधन से भारतीय शिल्पकला की अपूरणीय क्षति हो गई। पुत्र हो तो ऐसा।’’
‘‘का हो गे ओ, निचट रोनहू हो गे’’ ? देवकी दीदी ने मुझे हल्के से कुहनी मारी।
‘‘कुछु नही दीदी, रोगहा ड्राईवर, मांसाहारी होटल म खवा के मार डारिस’’। मैंने अपना दुःख गुप्त रखा।
‘‘ले भइगे, गंगा जल मं शुद्धि कर लेबो, सोचे ले का फायदा? हो गे तेन होगे’’। उन्होंने समझाया। अभी हम बातें ही कर रहे थे कि हमारी गाड़ी एक भव्य द्वार के सम्मुख रुक गई।
पक्की चौड़ी सड़कें, भांति-भांति के वृक्ष, पिंंक्तबद्ध दुकानें, जिनमें कोणार्क मंदिर की मूर्तियाँ, पुरी मंदिर के चित्र, श्रृंगार प्रसाधन, खिलौने आदि सजे थे। सामने ही विश्व का सबसे सुन्दर मंदिर, अपने गौरवपूर्ण इतिहास के साथ खड़ा था। गाड़ी से उतर कर हमने लंबी साँसे लीं। हम बाउण्ड्री वाल के किनारे-किनारे चल कर मंदिर के भव्य द्वार से अन्दर प्रविष्ट हो गये। सामने सुव्यवस्थित उपवन है, भाँति-भाँति के पुष्प क्यारियों में मुस्करा रहे थे। पेड़ों की छाँव में मखमली घास बिछी हुई थी। समुद्र से आने वाली ठंडी हवा मध्यान्ह के सूर्यताप का शमन कर रही थी। मुझे पता था कि अब मैं अपना आपा खोने वाली हूँ। इसलिए मैंने खंड-खंड करके मंदिर को देखने का संयम पैदा किया अपने अन्दर।
वाजपेयी जी ने अभी-अभी भोजन किया था। आदतन अब उन्हें विश्राम की इच्छा थी, सो वे अपना गमछा बिछाकर एक जगह छाया देख लेट गये।
‘‘तुमन घुमि आवव, मैं ह, एही मेर रइहं’’।
दीदी ने कोई प्रतिवाद नहीं किया।
हम आगे बढ़े। मंदिर छलछौहीं चट्टनों को काटकर बनाया गया है। यह सूर्य भगवान् का रथ है। विशाल रथ, जिसमें पुष्ट घोड़े जुते हुए हैं। रथ के विशाल चक्र समय के सदा गतिमान होने का संदेश देते से लगे। हम लोग अभी मंदिर के रथ का सामने वाला भाग पार कर चक्रों की ओर पहुँचे ही थे, कि पेशेवर फोटोग्राफरों ने घेर लिया।
‘‘बस पाँच मिनट में फोटो मिलेगा’’।
‘‘आइये मैडम’’
‘‘सर आइये’’।
मैंने सभी को बुलाया समूहिक चित्र के लिए।
बस फिर क्या था ? उसने अनेक चित्र उतार लिए अनेक मुद्राएँ बनवाई, जोड़े में आ जाइये आप भी, इस प्रकार इधर खड़े हो जाइये, यहाँ भी पंडित जी साथ थे, हमने साथ-साथ कई चित्र उतरवाये। जीवन के शुरूआती दिनों की मरी हुई अभिलाषा मानों पुर्नजीवित हो उठीं। पहले मैं चाहती थी पति के साथ घूमना फिरना, फोटो खिंचवाना किन्तु तब यह सब कुछ संभव नहीं था। आज जब आशायें घुंघट डाल चुकी हैं, अनायास ही पूरी हो रही थीं। सच कहते हैं सुख के पीछे भागने से वह दूर भागता है। उसे पीछे कर देने से पीछे-पीछे आता है। दीदी, भइया, वेदान्त और प्रभा दीदी के भी कई चित्र उतारे गये।
‘‘इस मंदिर के बारे में पुस्तक मिलेगी क्या’’ ? मैंने फोटोग्राफर से धीमे से पूछ लिया।
‘‘हाँ मैडम’’। उसने भी धीरे से उत्तर दिया।
‘‘मेरे लिए ला दो प्लीज़! अभी तो हम यहीं हैं’’।
‘‘अच्छा देखता हूँ’ ।
वह चला गया। हम लोग आगे बढ़ते हुए मंदिर की शिल्पकारी देखने लगे।
‘‘मैं यहाँ बैठता हूँ, तुम लोग घूमकर आओ’’।
पंडित जी एक पेड़ के चबूतरे पर बैठ गये।
‘‘अच्छा बैठिये’’, मैंने सहमति जताई।
हम लोग अब देख रहे थे मंदिर, जो सूर्य भगवान् के रथ की प्रतिकृति है। हम पूर्व दिशा की ओर से अन्दर प्रविष्ट हुए थे, यह लाल पत्थर का बना भव्य मुख्य द्वार है, इसके दोनों ओर हाथी के पैरों में दबोचे सिंह की प्रतिमाएँ हैं, लगभग 10 फुट ऊँचा, 5 फुट चौड़ा, लगभग 28 टन वजनी एक ही पत्थर को काट-काटकर बनाया गया है।
फोटोग्राफर हमें दायीं ओर ले गया था, जिधर करीने से गुलमेंहदी की छंटी हुई बाढ़ लगी है। हम लोग उसी ओर से मंदिर की परिक्रमा करने लगे। इस सूर्य रथ में सात घोड़ों की प्रतिमा बनी है, सारथी के बैठने का स्थान है। चौबीस चक्र हैं, हर पहिये में आठ-आठ आरे हैं, इनकी गोलाई दस फुट से कम क्या होगी ? प्रत्येक पहिये पर उत्कृष्ठ प्रतिमायें अंकित हैं। स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षी, राजा प्रतिहारी, सैनिक आदि की नृत्य रत, गायन वादन रत मूर्तियाँ, पारिवारिक झांकियाँ। स्त्री-पुरूष के शारीरिक सौष्ठव का प्रदर्शन करती मूर्तियाँ हैं, तो अंतरंग संबंधों को सार्वजनिक करती मिथुन मूर्तियाँ भी प्रचुर मात्रा में हैं। पहले तो मेरी निगाहें शर्म से झुक गईं। त्रिपाठी भइया साथ ही थे, प्रभा दीदी, देवकी दीदी भी एक एक मूर्ति पर नजरें टिकाएं शांत भाव से अनुपम कला का दर्शन कर रहीं थीं, वेदान्त के कौतुहल पूर्ण प्रश्नों के उत्तर देने में हम सभी असमर्थ थे। हमारे संकोच को समझकर त्रिपाठी भइया दूर निकल गये, जहाँ से हम एक दूसरे को देख सकते थे, किन्तु मूर्तियों को अलग अलग देख रहे थे।
‘‘इतने बारीक अंगों को पत्थर पर कैसे उकेरा गया होगा ? जरा सी ज्यादा चोट, पूरी मूर्ति नष्ट कर सकती थी। कैसे पत्थरो के द्वारा गोपन भावाभिव्यक्ति संभव किया होगा, शिल्पियों ने। मैं गहन सोच में पड़ी, एक-एक मूर्ति देख रही थी। साथ ही उनकी इच्छा, आकांक्षाओं, प्रेम विरह, दाम्पत्य सुख आदि की प्रतिध्वनि सुन रही थी। कई जगह मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के अमानवीय तरीकों की मूर्तियाँ भी दिखाई दी जो कल्पनातीत थीं। कितने बड़े मनोवैज्ञानिक थे वे कलाकार मन की विकृतियों को भी मूर्त रूप दे दिया। जीवन के सारे क्रियाकलापों की मूर्तियाँ बना रहे थे, तो जन्म प्रक्रिया कैसे छोड़ देते। अनेक युग्म, अनेक मुद्राएँ, रथ रूपी मंदिर की दीवार का एक इंच भी कलाकारी से रहित नहीं है। मंदिर में सूर्यदेव को तीन आकृतियों में मूर्तिमान किया गया है।
दक्षिण की ओर उदयीमान सूर्य प्रतिमा, जिसकी ऊँचाई साढ़े आठ फुट तक होगी, पश्चिम की ओर मध्यान्ह सूर्य, जिसकी ऊँचाई साढ़े नौ फुट और उत्तर की ओर अस्तांचलगामी सूर्याकृति है इसकी ऊँचाई लगभग चार मीटर है। हमने दक्षिण की ओर सर्वाभरण विभूषित दो दिव्य अश्वाकृति देखी, ये क्रोधित काल से नजर आते हैं। अंग प्रत्यंग सुपुष्ट, दो टांगों पर खड़े हैं। इनके अगले पैरों के नीचे एक आदमी की गर्दन दबी हुई है। पार्श्व में वल्गा थामें घुड़सवार हैं संभवतः काल प्रवाह से घुड़सवार की प्रतिमा की गर्दन ख्ांडित हो गई हैं। घोड़े के एक एक अंग की बड़ी सूक्ष्मता से आकृति बनाई गई है। यहाँ तक कि घोड़ों की पूँछ के बाल भी अलग दिखाई देते हैं जो मिलकर उनकी पूँछ बनाते हैं। हमने प्रांगण में स्थिति माया देवी एवं संज्ञा देवी के भग्न मंदिर भी देखे।
एक चक्कर लगाकर हम लोग सीढ़ियों से होकर रथ के उस भाग में पहुँचे, जहाँ पहले सूर्य प्रतिमा विराजित थी। जो अब आक्रान्ताओं द्वारा भग्न कर दिये जाने पर पुरी के मंदिर में रखी गई है। इस भाग की दीवारों पर भी मिथुन मूर्तियों की अधिकता है। ये कारीगरों के काम कला में पारंगत होने की कहानी कहती हैं। यहाँ मूर्तियों के द्वारा चौरासी आसनों में से अधिकांश का प्रदर्शन हुआ है। राजा, प्रतिहारी, नर्तकी, चँवर धारिणी आदि की आकर्षक मूर्तियाँ इस भाग में भी अंकित हैं। हमने जितना हो सका फोटोग्राफी की। देव के बिना मंदिर बड़ा निर्जीव जान पड़ा।
एक कलाकृति ने मुझे अपने पास कुछ देर रुकने को मजबूर किया, इसमें एक कारीगर हाथ में छेनी हथौड़ी लिए मूर्ति बनाने में दत्तचित्त था और एक राजा उसे पान दे रहे थे। यह मूर्ति उस घटना की याद दिला रही थी, जिसमें एक राजा ने एक ध्यानमग्न कारीगर की सेवा कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। घटना उस समय की है जब दिन रात मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा था। राजा रानी बीच-बीच में काम देखने आया करते थे। एक दिन जब पहुँचे तो देखा कि एक कारीगर ध्यानमग्न लगातार छेनी निहाई से ठुक्..ठुक़ ध्वनि कर रहा था, निमिष मात्र को भी उसकी दृष्टि इधर-उधर नहीं हो रही थी, बस पान के लिए हाथ बढ़ाता था और उसका सहयोगी उसके हाथ पर पान रख देता था। पान खाकर पुनः कार्य में लग जाता था। राजा नरसिंह देव उसकी तल्लीनता देखकर बड़े प्रभावित हुए। संकेत से सहयोगी को रोक दिया और स्वयं उसके हाथ पर पान रख दिया। उसने पान मुँह में डाला, किन्तु राजा के पान का विशिष्ट स्वाद उसके पान से भिन्न था। उसने नजरें उठाकर देखा राजा स्वयं पान दे रहे थे। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। ‘‘क्षमा करें महाराज सेवक से बड़ा अपराध हुआ।
‘‘नहीं कारीगर ! तुम मुझसे श्रेष्ठ हो ! कला की ऐसी पूजा तुम्हारे ही योग्य है, यदि मैं राजा न होता तो तुम्हारे चरण छू लेता। राजा ने कारीगर को गले से लगा लिया था। इस सम्मान से अभिभूत शिल्पी ने मूर्तियों में इसे अमर कर दिया था।
मंदिर का ऊपरी हिस्सा खंंडि़त हो चुका है। कैसे हृदयहीन रहे होंगे आक्रान्ता? जिन्होंने इतनी सुन्दर कलाकृति को खंडित करने का दुःसाहस किया होगा।
नीचे उतरकर हमने एक विशाल पत्थर पर (30 टन से कम की क्या होगी वह चट्टान) उकेरी गई, नवग्रहों की मूर्तियाँ देखीं, कहते हैं अंग्रेज इसे अपने देश ले जाना चाहते थे। एक हिस्सा तोड़कर जहाज तक ले जाने में ही इतना खर्च हो गया कि उन्होंने उसे ले जाने का विचार त्याग दिया। देवी जी के मंदिर में पूजा प्रणाम कर हम लोग वहाँ आये, जहाँ पंडित जी लेटे हुए थे। मुझे उनके ऊपर दया आ रही थी। इतने अच्छे स्थान पर आकर भी देख नहीं सके। हम चन्द पल रुके थे कि फोटोग्राफर हमारे फोटो ग्राफ्स और एक पतली पुस्तक लेकर आया, देखने पर पता चला कि कोणार्क के मिथुन मूर्तियों की तस्वीरों की किताब है। मैंने सधन्यवाद उसे वापस कर दिया। जब हम लोग उस स्थान पर आये जहाँ वाजपेयी जी लेटे हुए थे, तो देखते हैं कि वे वहाँ है ही नहीं। अभी इधर-उधर देख ही रहे थे कि त्रिपाठी भइया के मोबाइल की घंटी बज उठी।
उनके पास बिलासपुर से वाजपेयी जी के बेटे का फोन आया था, सूचना मिली कि वे पैदल-पैदल वहाँ चले गये जहाँ होटल में हमने भोजन किया था।
बाहर निकल कर अभी सोच विचार हो ही रहा था कि हमारी गाड़ी वहाँ आकर रुकी उसमें से वाजपेयी जी उतरे।
‘‘कैसे चले गये थे, बिना बताये-चेताये’’। प्रभा दीदी ने जरा कड़े स्वर में पूछा।
‘‘मैं सोचेय के दाढ़ी बना लौं’’। उन्होंने दबे स्वर में कहा।
‘‘यह गाड़ी तो यही खड़ी थी, फिर इससे कैसे आये।
‘‘पार्किंग नहीं है न साहब’’। ड्राईवर बोला था।
‘‘मैं अपन गाड़ी ला चिन्हेंव, अऊ आ गेंव’’। वाजपेयी जी ने ऐसे कहा जैसे कोई गलती हो गई हो उनसे।
‘‘चलिए कोई बात नहीं आ तो गये न’’। मैंने पूर्ण विराम लगाया।
‘‘गाड़ी चली, अब तक दिन ढलने लगा था, किन्तु धूप तेज ही थी।
‘‘अब कहाँ जायेंगे’’ ? मैंने पूछा।
‘‘चन्द्रभागा दर्शन कर लेते हैं, समुद्र में चन्द्रभागा नदी कैसे मिलती है देख लेते हैं’’। त्रिपाठी भइया ने बताया।
‘‘बस अब, सूर्य मंदिर ला अऊ देखा देवा, तहाँ बस्स’’! वाजपेयी जी बोले।
‘‘अऊ अभी का देखे गै रहेंन’’ ? त्रिपाठी भइया बोले।
‘‘ये ….ऽ…ऽ… तब मोला बताय काबर नहीं’’? वे पछतावे में पड़ गये।
‘‘कोणार्क…कोणार्क कहत रहेव सब झन, सूर्य मंदिर नी कहितव’’?
‘‘त कोणार्क म ही तो सूर्य मंदिर हे’’। प्रभा दीदी बोलीं।
‘‘वे उद्विग्न से हो गये।
-तुलसी देवी तिवारी
शेष अगले भाग में