मूल कहानी -पूस की रात-मुंशी प्रेमचंद
छत्तीसगढ़ी अनुवाद -पूस के रात
अनुवादक-कन्हैया लाल बारले
मुंशी प्रेमचंद का सुप्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद ‘पूस के रात’ कन्हैया लाल बारले द्धारा अनुदित है । इस अनुदित रचना में कहानी के मूल स्वभाव को यथावत रखते हुए इसे छत्तीगढिया परिवेश में अच्छी तरह ढाला गया है ।
हल्कू आके अपन गोसइन ल किहिस ” सहना आय हे। घर में जउन पइसा हे तेला दे, ओला दे देथंव, कइसनो होय झंझट तो छुटही ।”
मुन्नी घर बहारत रिहिस । पीछु मुड़क के किहिस “तीन रुपिया तो हे, दे देबे त कमरा कहां ले आही? माघ पूस के रतिहा खेत में कइसे कटही ? ओला कहि दे ओनहारी होही त दे देबो । अभीन नइ हे।”
हल्कू काय करंव सोचत खड़े रहिस। पूस जाड़ के महीना आय, कमरा के बिगर खेत म रखवारी करइ नइ हो सके । फेर सहना नइ मानही, भड़कही, गारी दिहि । कइसनो होय जाड़ मरबो का होही, झंझट तो खतम होही ।
इही सोचत अपन नाव के उल्टा अपन गरु तन ल अपन गोसइन के तीर म लाइस अउ मनावत किहिस-” ला दे पइसा ल दे देथंव, झंझट तो नइ रहही ।कमरा बर कुछु दूसरा सोचबो ।”
मुन्नी ओकर मेरन ल दूरिहा घुचिस अउ आँखी ल लड़ेरत किहिस-“काय दूसर सोचबे ? बता तो काय दूसर उदिम करबे? कोन ह तोला फोकट म कमरा दे दिही? कोनजनी कतेक करजा बांचे हे ते, कतको छूटबे फेर नइ छुटाय ।मेहा तो कहिथंव कि ते काबर खेती-किसानी करे बर नइ छोड़स ? मर मर के कमाव अन्न उपजिस ताहन दे देव। लागथे करजा छुटे बर हमन जनम धरे हन । पेट पोसे बर बनी भूती कर लेबो। चूलहा म जोरंव अइसन खेती किसानी ल। मेहा पइसा नइ देंव, नइ देंव, तेहा कुछु करस।”
हल्कू उदास होके किहिस -” त का मेंहा गारी खांव ?”
मुन्नी तरमरा के किहिस-” गारी काबर दिही, का ओकरे राज हे ?”
फेर अइसन काहत मुन्नी के रिस उतरगे। हल्कू के गोठ म जउन सच लुकाय रिहिस तेन ह जानो मानो बघवा कस गुरेरत राहय। मुन्नी जाके चुरकी ले पइसा निकालिस अउ लाके हल्कू के हाथ में धरा दिस।
अउ किहिस -” अब ले छोड़दे खेती किसानी ल। बनी करे ले सुख से पानी – पसिया तो मिलही। कोनो के सुने ल तो नइ मिलही। बढ़िया खेती आय भई ! रेगड़ा के पकत ले कमाव अउ होइस ताहन दे देव, उपर ले गारी बखाना सुनो।”
हल्कू पइसा धरिस अउ अइसे बाहिर निकलिस जइसे अपन करेजा निकाल के देय बर जावत हे । बनी कर करके एक-एक पइसा सिलहोय रिहिस तब तीन रुपया सकलाय रिहिस कमरा लेय बर । उही पइसा आज हाथ ले निकलत हे। एक एक पांव रेंगई जियानत राहय,काबर कि पइसा देवइ ह अखरत राहय।
पूस के अंधियारी रतिहा रहिस।अगास म चंदैनी मन घलो जाड़ म ठुठरत हे तइसे लागत राहय। हल्कू अपन खेत के तीर कुसियार पाना के बनाय छपरी के खालहे बांस के खटोलना के ऊपर अपन जुन्ना चिरहा चद्दर ल ओढ़े कांपत परे रहिस। खटिया के नीचे ओकर संगवारी कुकुर जबरा चुरुमुरु सोय कूं कूं करत राहय। दुनों झन ल नींद नइ आवत राहय।
हल्कू अपन माड़ी अउ मुड़ी ल एक जगा सकेलत किहिस -“कइसे रे जबरा ,जाड़ लागत हे का ? तोला कहत तो रहेंव, घर म पैरा में सोय रह, फेर इहां काबर आय ? अब जाड़ मर, मेहा काय कर्ंव ? जानो मानो मेंहा इहां बरा सोंहारी खाय बर आवत हंव तइसे, आगू आगू दउड़त आगेस। अब भुगत बेटा ।”
जबरा सोय सोय पूछी ल हलावत अउ जोर-जोर से कूं कूं करे लगिस।
हल्कू किहिस -“काली ले मत आबे मोर संग नहीं ते सबर दिन बर जुड़ा जाबे।”
ए हवा के धुका कोन जनी कती ले करा धरके आवत हे ते। उठथंव, फेर एकठन चिलम पिथ्ंव। कुछु होय रतिहा तो कटे। आठथन चिलम पी डरे हंव। लागथे इही खेती के मजा आय। ए दुनिया म अइसन घलो धनवान मनखे हे जेन ल जाड़ घरि म घलो पसीना छूट जाथे। काबर कि ओकर मेरन मोट मोट गद्दा कथरी कमरा रहिथे। मजाल हे, ओमन ल थोरिक जाड़ लाग जाय। ए सब तकदीर के खेल आय। मिहनत हम करन अउ मजा दूसर उड़ाय ।
हल्कू उठके गड्ढा ले आगी निकाल के चिलम भरीस। जबरा घलो उठगे।
हल्कू चिलम पियत पुछिस -” चिलम पीबे का रे जबरू ? जाड़ कहां भागही फेर हाँ मन माड़ जाथे ।”
जबरा ओकर मुह ल बड़ परेम भाव ले देखिस।
हल्कू -“आज भर अउ जाड़ खाले। काली ले मेंहा तोर बर इहां पेरा जिठा देहुं, उही मे घोलंड के सोबे, तब जाड़ नइ लागे।” जबरा अपन पांव हल्कू के माड़ी म रख दिस अउ ओकर मुंह मेंरन अपन मुह ल लेगे । हल्कू ल कुकुर के गरम-गरम सांहस बने लागिस। चिलम पी के हल्कू फेर सोय के उदिम करिस। सोचिस कि अब के बेरा कुछु हो जाय सुतेच रहूँ । मोर नींद पर जाही फेर छीन भर में वोकर हिरदे कांपे लगिस। कभु एति कलथे कभु ओती , फेर जाड़ कोनो मसान असन ओकर छाती ल चपके लागिस । जब जाड़ नइ सहिगे तब जबरा ल धीरे से उठइस अउ ओला पुचकारत पोटार के अपन गोदी म सोवालिस। कुकुर के तन ले कोनजनी कइसन बास आवत रहिस तभो ले ओला पोटार के सुते लगिस जइसे अइसन सुख गजब दिन ले नइ मिले हे तइसे। जबरा तो इही भोरहा में रहिस कि सरग इही आय अउ हल्कू के अंतस म वो कुकुर बर थोरको दुवा भेद नइ रहिस। वो इही भाव ले अपन मितान अउ सगे भाई ल घलो पोटार लेय। वो अपन गरीबी ले परसान नइ रिहिस जेन ह ओला ए दशा म पहुंचाय हे। कुकुर अउ मनखे के ए मितानी ह जइसे ओकर अंतस के सबो दरवाजा ल खोल दे रहिस अउ ओकर तन के पोर – पोर ले अंजोर निकलत राहय।
हुरहा जबरा ल कोनो जानवर के आरो मिलिस ।हल्कू के मया ह जबरा के तन में ताकत बनके दउड़त राहय , जेन ह हवा के जुड़ झकोरा ल घलो ठेमना बनावत राहय। जबरा लकर -लकर उठिस अउ छपरी ले बाहिर निकल के भूके लगिस। हल्कू वोला कइ बेर छुछवा के बलाइस , फेर वो ओकर तिर नइ आइस। खेत के चारों मुड़ा दउड़ – दउड़ के भुकत राहय। एक छिन में आ जाय अउ तुरते अउ दूरिहा दउड़ जाय। करनी ओकर हिरदे म सपना बरोबर कुदत राहय ।
एक घड़ी अउ बीतगे। रात ह जाड़ ल हवा देके भड़काय लगिस। हल्कू उठ बइठिस अउ दुनों माड़ी ल अपन छाती म चिपकावत ओमा अपन मुड़ी ल लुकाय लगिस। तभो ले जाड़ कम नइ होइस। अइसे लागे जइसे जम्मो लहू जम गेहे अउ नस में करा बोहाथे। हल्कू झाँक के अगास कोति ल देखिस कि अभीन रात कतिक बांचे हे। चोर अउ खटिया अभीन अगास म आधा घलो नइ चढ़े हे। उपर आ जाही तब बिहनिया होही। अभीन एक पहर ले जादा रतिहा बांचे हे। हल्कू के खेत ले अंदाजी एक लबदेना मारे के दूरिहा म आमा के बगीचा राहय। पाना झरइ शुरू होगे राहय। बगीचा में झुक्खा पाना मन बिगरे राहय। हल्कू सोचिस कि जाके पाना मन ल सकेलंव अउ आगी बार के मन भर तापंव । फेर सोचिस रातकुन कोनो मोला पाना सकेलत देखही ते मोला भूत समझ लेही। कोनजनी कोनो जानवर लुकाय बइठे होही। फेर अब तो कलेचुप बइठे म नइ बने। हल्कू तीर के राहर के खेत में जाके तीन चार ठन पेड़ ल उखानिस अउ खरहेरा बाहरी बना के आगी के इंगरा ल धरके बगिच्चा कोति गिस। जबरा ओला तीर म आवत देख के पूछि ल हलाय लगिस।
हल्कू कहिस -” अब तो जाड़ सहे नइ जात हे जबरू। चल बगिच्चा म पाना सकेल के आगी बार के तापबो। टठां जाबो तब आके सुतबो। अभिन तो बिकट रात हे।”
जबरा कूं -कूं करत हव किहिस अउ आगू -आगू रेंगत बगिच्चा कोति जाय लगिस।
बगिच्चा में बिकट अंधियारी रहिस अउ अइसन अंधियार में निरदयी हवा ह पेड़ के पाना मन ला सिहरावत चलत राहय । पेड़ ले सीत टप टप नीचे चुहत राहय । हुरहा नाक में मेहंदी फूल के महक आइस। हल्कू किहिस -“कइसन बढ़िया वाले महक आइस जबरू ।तोरो नाक में महक आवत हे कि नहीं?”
जबरा ल कोनों मेरन हड्डी परे मिलगे रहिस उहि ल चिचोरत रहिस।
हल्कू आगी ल भुइयां म रख दिस अउ सुक्खा पाना मन ल बहार के सकेले लगिस। एककनिक में गंज अकन पाना सकलागे ।हाथ ठुठरत राहय। उघरा पांव जाड़ के मारे गलगे राहय तइसे लागे तभो ले हल्कू पाना के पहार सकेलत राहय । जानो मानो एकर आगी म जम्मो जाड़ ल जरा के राख कर दिही तइसे।
थोरिक बेर में भुर्री जलगे। ओकर आगी पेड़ के पाना मन ल छुअत राहय । आगी के झिलमिल अंजोर में बड़े-बड़े पेड़ मानो अइसे लागत राहय कि गहिरी अंधियारी ल मुड़ म बोहे हवे। अंधियार के अइसन समुंदर म ए आगी के अंजोर नानचुन डोंगा कस हालत डोलत हे तइसन लागत राहय। हल्कू भुर्री ल आगू म बइठ के तापत राहय। थोरिक समे म अपन चिरहा चद्दर ल सकेल के खखोरी म चपक लिस अउ दुनों हाथ पांव आगू करके आगी तापे लगिस मानो जाड़ ल बलावत राहय कि आ तोर जी म जइसन आय वइसन कर ।
हल्कू जाड़ के अपार ताकत ल जीत के जीत गुमान ल अपन हिरदे म लुका नइ सकत राहय। जबरा ल कहिस -” कइसे रे जबरु अब जाड़ नइ लागत हे न ?”
जबरा ह कूं-कूं करके किहिस कि “जाड़ लागतेच रही का?” “पहिली ले ए उदिम नइ सुझिस नही ते अतिक जड़ नइ मरतेन।” जबरा पूछी ल हलाइस।
“आ ए भुर्री ल कूद के आर -पार होथन , देखथन कोन निकल जाथे।”
“कोन्हो तेंहा आगी म जर जाबे बेटा त में दवा दारू नइ करंव।”
जबरा वो आगी ल टुकुर -टुकुर देखे लगिस।
” मुन्नी ल काली बता झन देबे नहीं ते मोर संग झगड़ा करही ।”
हल्कू डंका मार के आगी ले बुलकगे । पांव में आगी छुवाइस फेर कुछु नइ होइस।
जबरा आगी के तिर म घूम के खड़े रहिगे।
हल्कू किहिस -” चल चल अइसन अलाली नइ चले ।ऊपर ले खुद के बता । जबरा आगी के ऊपर ले कूद के पार होगे।
सबो पाना जरगे। बगिच्चा में फेर अंधियार होगे। राख भीतरी आगी जुग-जुगावत राहय। हवा परे म दिखे फेर थोरिक बेर मे बुझा जाय। हल्कू फेर चद्दर ओढ़ लिस अउ गरम राख के तिर म बइठ के गीद गुनगुनाय लगिस। ओकर बदन म गरमी आगे रहिस। फेर जइसे-जइसे जाड़ बढ़े लगिस तइसे नींद सताय लगिस। जबरा जोर से भूकिस अउ खेत कोती जोर से भागिस। हल्कू ल अइसे लागिस कि खेत में जानवर मन आहे। लागत हे नीलगाय के दल आय। उंकर कूदे अउ रेंगे के आरो मिलत राहय। फेर पता चलिस कि अब खेत में चरत हे। उंकर चरे के अवाज चर-चर सुनाय लगिस।
हल्कू मने मन म गुनिस कि नहीं, जबरा के राहत ले कोनो जानवर नइ आ सके । हबक दिही ।
मोला भोरहा होवत रिहिस । हाँ अब तो कुछु नइ सुनावत हे। महु ल कइसे -कइसे भोरहा हो जाथे। हल्कू जोर से चिल्लइस- “जबरा, जबरा।”
जबरा भुकत राहय। ओकर तिर नइ आइस। फेर खेत में जानवर चरे के आरो मिलिस। अब ओकर भरम टूटगे। जान डरिस कि जानवर मन खेत म चरत हे। फेर अपन जगा ले उठे के हिम्मत नइ होइस। बढ़िया दंदके बइठे रिहिस। ए जाड़ म खेत में जवइ अउ जानवर मन के पीछु भगइ नइ हो सके ,अइसे लागिस । वो अपन जगा ले टस से मस नइ होइस।
हल्कू जोर से चिल्लाइस – हिलो! हिलो! हिलो!
जबरा अउ जोर- जोर से भूके लगिस। तभो ले जानवर मन खेत में चरत राहय। फसल लुवे के लइक होगे रहिस। एसो के खेती बढ़िया रहिस फेर ए धूरतार जानवर मन सब बिनाश करत हे।
हल्कू करेजा ल टांठ करत उठिस अउ दू- तीन कदम चलिस फेर हवा के धुका अइसे चलिस कि ठंडा गड़े कस लागिस जइसे बिच्छी कांटा मारत हे, फेर लहुट के उही बुझाय भुर्री के तिर आके बइठगे अउ राख ल खुदर के अपन जुड़ाय देह ल सेके लागिस। जबरा अभिन घलो जोर-जोर से भुकत रिहिस । नीलगाय मन जम्मो खेत के फसल ल चरत रिहिन अउ हल्कू गरम राख तीर चुप बइठे रिहिस । ओकर अलाली पना ह डोरी कस मुसकी बंधना बांध के बइठारे राहय । उही गरम राख के तीर गरम भुइयां म चद्दर ओढ़के सोगे।
बिहनिया जब नींद खुलिस त देखिस कि चारों मुड़ा घाम उए राहय अउ मुन्नी काहत राहय कि “अभीन तक ले सोवत रहिबे का? ते इहां सोए हस अउ ओती जम्मो खेत चउपट होगे।”
हल्कू उठके किहिस-” का तेहा खेत कोती ले आवत हस ?”
मुन्नी किहिस-” जम्मो खेत के सत्यानाश होगे हे। भला अइसन कोनो सोथे का? तोर इहां झाला बनाय के का फायदा होइस?”
हल्कू बहाना बनाइस कि “वो मरत -मरत बांचे हे। तोला अपन खेत के परे हे। पेट में अतिक दरद होइस, अतिक दरद होइस कि मिही जानथंव।”
दुनोंझन खेत के मेड़ म आइन,
अउ देखिन कि जम्मो फसल रउंदा गेहे अउ जबरा झाला के तीर चित्ता सोए हे जइसे वो मरे परे हे। दुनोंझन खेत के दसा देखत रहिन। मुन्नी के चेहरा में उदासी राहय फेर हल्कू खुश राहय।
मुन्नी फिकर करत किहिस-” अब तो बनी -भूति करके भरना पटाय ल परही।”
हल्कू मुसकात किहिस -“रातकुन इहां जाड़ मे सोए बर तो नइ परही।”
छत्तीसगढ़ी म अनुवाद करइया
कन्हैया लाल बारले( अध्यक्ष)
मधुर साहित्य परिषद ईकाई डौन्डी लोहारा
ग्राम – कोचेरा
पोष्ट -भीमकन्हार
तहसील -डौन्डी लोहारा
जिला बालोद (छत्तीसगढ़ )
चौहान जी आपको बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने मेरी रचनाओं को आपनी सुरता पटल पर सम्मान पूर्वक स्थान दिये हैं।