पुस्‍तक समीक्षा:विचारधरात्‍मक सचेतता और सोदेश्‍यता की कहानी-‘दोस्‍त अकेले रह गये’-डुमन लाल ध्रुव

पुस्‍तक समीक्षा:

विचारधरात्‍मक सचेतता और सोदेश्‍यता की कहानी-‘दोस्‍त अकेले रह गये’

-डुमन लाल ध्रुव

पुस्‍तक समीक्षा:विचारधरात्‍मक सचेतता और सोदेश्‍यता की कहानी-'दोस्‍त अकेले रह गये'-डुमन लाल ध्रुव
पुस्‍तक समीक्षा:विचारधरात्‍मक सचेतता और सोदेश्‍यता की कहानी-‘दोस्‍त अकेले रह गये’-डुमन लाल ध्रुव
कृति का नामदोस्‍त अकेले रह गये (कहानी संग्रह)
कृतिकार का नाम जयंत कुमार थोरात
भाषाहिन्‍दी
विधाकहानी
समीक्षकडुमन लाल ध्रुव
पुस्‍तक समीक्षा: दोस्‍त अकेले रह गये (कहानी संग्रह)
पुस्‍तक समीक्षा: दोस्‍त अकेले रह गये (कहानी संग्रह)
पुस्‍तक समीक्षा: दोस्‍त अकेले रह गये (कहानी संग्रह)

जयंत कुमार थोरात की दो गजल संग्रह ’’कारवां लफ्जों का’’, ’’शबे चराग’’ किसी स्थायी उपलब्धि से कम नहीं है। संग्रह की गजलें इस बात का गवाह है कि एक समय विशेष अपने उत्कर्ष को प्राप्त की है। साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक ऐतिहासिक भूमिका अदा करने के बाद जयंत कुमार थोरात अपने गौरवशाली बुनियाद और स्मृतियों के सहारे कहानी लेखन की शुरूआत की है। यहां थोरात जी कहानी लिखते हुए काफी सतर्क और सचेत नजर आते हैं। उनके लिखे कहानी का एक सामान्य पक्ष ही उभर कर सामने आ पाता है। कहानी के कारण ही उसकी भूमिका निर्धारित हुई है जो महत्व की चीज है। बाकी बाते समय के प्रवाह में पीछे छूट जाते हैं।

यह सत्य है कि जयंत कुमार थोरात जी ने अपने कहानी लेखन को बाह्य आवरण से बचा कर रखा है यही उनके कहानी का सबसे सकारात्मक पक्ष है। प्रतिबद्धता की हमें तारीफ करनी होगी कि रिया ‘‘एक नई शाम’’ कहानी की सामर्थ्‍यता को द्विगुणित करने लगती है। यह विश्लेषण ही स्वच्छ उदाहरण प्रस्तुत करता है। रिया सभ्रांत और कुलीन दृष्टि कहानी में जीवन की कुत्सा और पाश्विकता के चित्रण को अभीष्ट नहीं  मानती, उसे जीवन की सुकुमारता में ही भावनाशीलता और संवेदनशीलता के दर्शन कराते है। 

कहानी ’’एक नई शाम’’ में रिया ने अपने भाई नवीन से संपर्क करना चाहा पर नहीं हो सका। बड़ी मुश्किल से एक बार काॅल मिला और उसे सारी बातें रिया ने बतायी और अस्पताल आने को कहा तो उसने रूखे स्वर में कहा कि ’’मरने दो बुड्ढे को अब मुझे फोन मत करना’’ और उसने फोन काट दिया। बेहतर ईलाज व रिया की देखभाल से उसके पिता ठीक होने लगे कुछ कमजोरी भर थी। रिया उनसे अस्पताल से डिस्चार्ज कराकर अपने घर ले आयी। पलंग पर लिटाने के बाद रिया वहीं बाजू में बैठ गई। उसने पिता की ओर देखा उनकी आंखों में आंसू थे वे भरे गले से बोले रिया बेटा मुझे माफ कर देना मैं गलत था बेटी मैंने तुझमें और नवीन में बहुत भेदभाव किया। लड़की होने पर तुझे तेरा हक नहीं दिया। तेरे हिस्से का प्यार दुलार लड़का होने की वजह से नवीन पर लुटाता रहा। जब तुझे मेरी जरूरत थी तुझे सहारा नहीं दिया क्योंकि तू लड़की है मेरी आंखों में लड़का-लड़की के भेद का पर्दा पड़ा था।

लड़कियां लड़कों से कम नहीं होती हैं। ये भेद किसी भी मां-बाप को नहीं करना चाहिए। आज तू मेरे जीवन को बचाने में काम आयी जो नवीन पर मुझे नाज था वो तो मुझे मरने को छोड़ गया। मैं अपनी गलतियों पर शर्मिंदा हूं रिया। हो सके तो मुझे माफ कर देना और वे फफककर रोने लगे। पिता को रोता देख रिया ने उनका हाथ थामकर अपने गाल से लगा लिया। इतने अरसे बाद पिता का वात्सल्यपूर्ण स्पर्श पाकर रिया के आंसुओं का बूंद भी फूट गया। सभी गिले सिकवे उन आंसुओं में बह गये। 

जयंत कुमार थोरात कहानी ’’पतझड़ के वृक्ष’’ में जिन कलात्मक आयामों की बात अंकित करते हैं और इतिहास के ब्यौरे में इतिहास का बोध लेकर संभावना की खोज करते हैं। भू-भाग के ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य में जाकर प्राकृतिक संसाधनों पर पुलिस को पतझड़ की तरह जिस गहराई से देखते हैं उसी तरह के इतिहास बोध कहानी में दिखाई देती है।

इकबाल साहब उसे उठाते हुए बोले बस-बस रोहित मुझे इंसान ही रहने दो। प्रिया मेरी भी बेटी है दस साल पहले मैंने भी अपनी पांच साल की बेटी को ईलाज के अभाव में खोया है। मुझे पता है कि ईलाज में देरी होने से क्या नुकसान हो सकता है। फिर तुम लोग ही मेरे हाथ-पैर हो। तुम लोगों का परिवार मेरा भी परिवार है। तुम लोग मेरे लिए ड्युटी करते हो तुम्हारे ड्युटी के दौरान बाहर रहने पर तुम्हारे परिवार की देखभाल करना मेरी भी जवाबदारी है। हां ड्युटी में जब तक कड़क जरूर हूं पर मेरे भी सीने में एक दिल धड़कता है। पुलिस वह पेंड़  है जिसमें कभी बहार नहीं आती। आता है तो सिर्फ पतझड़ मगर विडम्बना है कि हर कोई इस पतझड़ वाले वृक्ष में भी छांव तलाश करता है। ताकि मुसीबत रूपी कड़ी धूप में राहत के लिए खड़े हो सके और आश्चर्य की बात ये है कि ये पतझड़ वाला पेड़ इस हालात में भी अपने नीचे आये राहगीर को छांव देकर उन्हें राहत पहुंचाता है। 

’’मिठास रिश्तों की’’ यह महत्वपूर्ण कहानी है, बिना किसी आसक्ति के घटनाओं का विश्लेषण करते हुए समस्या की जड़ तक जाने का प्रयास हैै। विनोद के मन में छोटू के प्रति विपरीत प्रभाव की दूरी बन गई थी। विचारधारात्मक सचेतता और सोदेश्यता के चलते यथार्थ की जमीन गहराई तक नहीं धंस पाया बल्कि दोनो भाई की पत्नी आत्मीय प्यार को रचनात्मक ऊंचाई तक ले गया। 

 विनोद की आंखों से पश्चाताप के आंसू निकलकर छोटू की कमीज भिंगोने लगेे। ये आंसू छोटू के विरूद्ध उनके मन में आये विपरीत विचारोें से उपजी ग्लानि के थे। दोनों की पत्नियां भाइयों के इस प्यार को देखकर मुस्कुरा उठी और मेहमानों की अगुवानी करने में जुट गई। 

भाई होने की चेतना से संपन्न एक संवेदनशील भविष्योन्मुखी इकाई जिसे किसी भी प्रकार के विमर्शवादी झंझावतों में नहीं बांधा जा सकता। नीलांश के प्राॅमिश में बहन रूचि के प्रति सृजनात्मक व्यक्तित्व आकार लेने लगा। मेहरून कलर की चमचमाती नई स्कूटी समाज को नए संस्कार देने की साक्षी ’’भाई की भेंट’’ कहानी में है।  

भाई ने प्राॅमिश किया था कि यदि वो बारहवी पहले डिवीजन से पास होगी तो कॅालेज जाने के लिए वह स्कूटी गिफ्ट में देगा। रूचि वैसे तो पढ़ाई में अच्छी थी पर स्कूटी पाने के लिए उसने पूरा जोर लगा दिया। परीक्षा के दिनों में उसे पढ़ाई के अलावा कुछ भी याद नहीं था। उसने अपने सारे शौकों को तिलांजली दे दी थी। याद रखा तो सिर्फ पढ़ाई परिणाम स्वरूप वह न केवल फस्र्ट डिवीजन से पास हुई बल्कि सारे शहर में प्रथम रही। जिस दिन परीक्षा का परिणाम आने वाला था उस दिन घर में सभी बड़े बेचैन थे। भाई चिढ़ाते हुए कहता ’’शायद मेरे स्कूटी के पैसे बच जायेंगे’’ और जोर-जोर से हंसता था। रूचि मां से शिकायत करती ’’देखो ना मां भाई मेरा बुरा सोंचते हैं’’ मां हंसकर रह जाती। 

नीलांश ने रूचि को हाथ पकड़कर उठाया उसके दोनों आंखों को अपनी हथेलियों से बंदकर बाहर जाने वाले दरवाजे की ओर ले गये। दरवाजे के बाहर ले जाके उसकी आंखों से अपनी हथेलियां हटा ली। रूचि ने आंखें मलते हुए देखा सामने मेहरून रंग की चमचमाती नई स्कूटी खड़ी थी। 

किसी भी कहानीकार के लिए कहानी लेखन की प्रक्रिया उसकी निजी होती है। ‘‘ रिश्ते की दुशाला’’ कहानी में बदलाव देखने को मिल रहा है। एक ही भावद्शा की कहानी है। ईला की मां अपने जीवन अनुभवों को रखकर जीवन की सापेक्षिता को उजागर करती है। एक प्रतीक बनकर, एक रूपक बनकर कहानी में नई जान डालती है। 

ईला कुछ बोलना चाह रही थी तभी मां ने बीच में टोकते हुए कहा- देख ईला मैं कोई बीमार-वीमार नहीं हूं वो तेरे मन को टटोलना चाह रही थी देखना चाह रही थी कि ससुराल वालों के लिए तेरे बर्ताव बदले कि वैसे ही है। बार-बार मेरे समझाने पर भी तुझमें कोई बदलाव आया या नहीं। मैं देख रही हूं तू अभी भी वैसी ही है। तू मेरी कसौटी पर खरी नहीं उतरी। तेरे सास-ससुर तेरे दूसरे माता-पिता हैं अभी भी समय है संभल जा। उनकी अच्छी देखभाल कर अपनी जिंदगी संवार ले। ये जो रिश्ते होते हैं ना वो गर्म दुशाले की तरह होते हैं जो मुसीबतों की सर्दी में गर्माहट लाते हैं और परिवार को बीमार होने से बचाते हैं। अभी भी समय है अपने आप को बदल ले तेरे इस व्यवहार की वजह से मैं आगे से तेरे घर आने वाली नहीं हूं। तुझे अच्छा घर और वर दोनों मिले हैं उनकी कद्र कर। उन्हें संभालकर रख। रिश्तों के पौधों को अपनत्व का खाद पानी देगी तो वे लहलहा उठेंगे। छायादार पेड़ बनेंगे। जो संकट की बेला में घनी छांव देंगे।  

जयंत कुमार थोरात बहुत बदले और सधे हुए कहानीकार के तौर पर उभरते हैं। लेखक की प्रतिभा, परिश्रम, प्रतिबद्धता के प्रति सम्मान हमारे मन में बढ़ा है। जब वह लघुकथा लिखते हैं तो विषय, परिदृश्य को मजबूती के साथ चित्रित करने का प्रयास करते हैं। जब हम ईश्वर के नाम पर आदमी-आदमी में फर्क करते हैं तो ऐसी पूजा व श्रद्धा का क्या फायदा। (एक श्रद्धा ऐसी भी) ये हालात करीब-करीब सभी घरों में है। ऐसे में लड़की बचाओे,लड़की पढ़ाओ सिर्फ नारा ही रह जाता है।

(कथनी और करनी) अनिल के शरीर पर अधिक चोट तो नहीं आई पर गिरने से उसका सिर सड़क के किनारे पत्थर से टकरा गया। सिर में चोटें आई सिर फट गया। लोगों ने उसे अस्पताल पहुंचाया जहां डाॅक्टर ने उसे मृत घोषित किया। काश वह मां की बात मानकर अपना हेलमेट ले गया होता। (बड़ो की भी सुने) चलो कुछ दिन की पार्टी का इन्तजाम तो हो गया। (मुआवजा) हरिया की बातें  सुनकर रामू अवाक रह गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस अच्छी बरसात के लिए खुशी मानंे या दुःख। (असमंजस) अब्बू मुझे आपने उस जरूरतमंद वाहिद की मेरे कहने पर मदद कर मुझे सबसे अच्छी व कीमती ईदी दी है। मुझे अब और कुछ नही चाहिए। और पिता के गले लग गया। (ईदी) 

कहानी के लेखक के जुनून को सलाम।

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