प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग लोकमानस के निकट कृति-इक्कीसवीं सदी में भी
– डुमन लाल ध्रुव
कृति | इक्कीसवीं सदी में भी (काव्य संग्रह) |
क़तिकार | डॉ. श्रीमती शैल चन्द्रा |
विधा | काव्य |
भाषा | हिन्दी |
समीक्षक | श्री डुमन लाल ध्रुव |
कविता लेखन की अपनी विशिष्ट शैली है। वर्तमान परिदृश्य में आधुनिक कविता की परिभाषा को पहचान से बाहर कर दिया गया है। कविता लेखन का योगदान कितना महत्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य है, यह तो मूल्यांकन और बहस का मुद्दा हो सकता है परंतु उनके समकालीन उपस्थिति से ही। मुंह चुराना सिवाय साजिश या कुंठा के और कुछ भी नहीं है।
कवयित्री एवं लघु कथा लेखिका डॉ. श्रीमती शैल चन्द्रा की काव्य कृति ’’इक्कीसवीं सदी में भी’’ पढ़ने को मिला। इक्कीसवीं सदी में भी यह अजूबा दो दशक से अधिक चर्चित हुआ है। इस महान अजूबे का क्यों न मैं भी दर्शन लाभ लूं। यही सोचकर जब मैंने इक्कीसवीं सदी के प्रमुख द्वार से प्रवेश किया तो क्या देखता हूं कि दुकान पर सरकारी राशन दुकान की तरह लंबी लाइन लगी हुई है। इधर खेतों के स्थान पर बड़ी-बड़ी कालोनियां बन जाने से कई लोग मकानों की छतों पर खेती करते नजर आ रहे हैं, जनसंख्या इस प्रकार बढ़ी हुई है कि रैक की तरह एक के ऊपर एक बिस्तर लगभग हर मकान में नजर आ रहे हैं, लोगों में चिंता की लकीरें नहीं देखी जा रही है। शायद वे भावी जीवन के प्रति अभ्यस्त हो गए हैं। इक्कीसवीं सदी का यह विकराल रूप देखकर मैं भयभीत हो गया हूं। थर-थर कांपते हुए मैंने भगवान से प्रार्थना कि सृष्टि के मालिक तू बस इक्कीसवीं सदी में भी विभत्सता का सुंदरता प्रदान कर दे। भ्रष्टाचार, लूट, बेमानी की जो परत मुख पर जमी हुई है उसे ईमानदारी कर्तव्यनिष्ठा आदि के ’’एक्सल पावर’’ से उजला कर दे, ताकि लोग दाग ढूंढते रह जाए।
शहरों में कम्प्यूटर, ई-मेल, इंटरनेट गांवों में बंजर धरती, टूटी, झोपड़ी, खाली-पेट, गांव और शहर के बीच इस सदी में जो दरार आयी है आने वाली सदी की वो एक खौफनाक खायी है। हमने अब तक अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धरातल पर विषमता के जो कंटक लगाये हैं आने वाले ’’कल’’ को उसकी ही चुभन बाटेंगे यानी बीसवीं सदी में जो भी बोया है। इक्कीसवीं सदी में भी वही तो काटेंगे।
डॉ. श्रीमती शैल चंद्रा अपने समय और पारिवेसिक हलचलों के प्रति जितना अधिक सजग जीवंत, सतर्क और सचेत काव्य सृजन किया है वहीं कालांतर में कालजयी सिद्ध होगा। कविता के नए प्रतिमान दृष्टिव्य-
मुझे भी घर में थोड़ी सी जगह चाहिए लड़की होने की सजा गर्भ में मुझे मत दो। हूं जीवित प्राणी इस धरती का मुझे भी बाहों में थोड़ा सा प्यार दो प्यार दो, अधिकार दो मुझे भी धरती में जीने का हक दो हूं जननी मैं पुरुष की फिर क्यों जन्म से पहले ही घोंट दिया जाता है गला मेरा इक्कीसवीं सदी में भी ?
’’घरौंदा’’ मैं बच्चे रेत का महल बनाते हैं। सपने को आकार देते हैं तब कहीं जाकर बचपन का स्वर मुखरित होते हैं। मनुष्य की संवेदना को अभिव्यक्ति के रागात्मक आधार मिले और ’’घरौंदा’’ जैसी कविता को नये आयाम मिले। आंचलिकता का लोक तत्व है घरौंदा।
घरौंदा केवल घरौंदा नहीं होता होता है मानव का प्राण स्पंदन करता है व्यक्ति के सपने साकार यही घरौंदा
कविता अपनी चेतना के स्फूलिंग चेतना के भीतरी धरातल से संपूर्ण जीवन को छूकर ही उठते हैं। इसीलिए कवयित्री की आंखों में ’’दिन’’ की व्यथा और कथा के बिम्ब उभरते दिखाई पड़ते हैं।
भूख उग जाती हैं गरीबों की आत्मा में कांटों की तरह जिससे जूझते वह दिन भर करता है परिश्रम दिन होते ही बिटिया रोटी और मचल उठती है कटोरी भर दूध के लिये
’’सिसकती जिंदगी’’ में ग्रामीण संवेदना अधिक ध्वनित होती दिखाई दे रही है। डॉ. शैल चंद्रा ने कविता के फलक को विस्तार किया है। समूचे समाज की पीड़ा को अनुभूत कर सर्जना के नए-नए द्वार खोले हैं। प्रतीकों एवं बिंबो का प्रयोग लोकमानस के निकट ही प्रतीत होते हैं।
दौड़ती भागती जिंदगी में नहीं है आत्मीयता पता नहीं फिर भी आदमी किस तरह है जीता
लोकमंगल की भावना को स्पर्श करती है ’’तुलसी की महक’’ आंचलिकता या लोकतत्व को अनुभूत करने की अद्भुत क्षमता से अंचल की माटी की सौंधी महक सुवासित होती हैं।
अंचल में दीप सहेज रख देती है वह चैरे में संतुष्टि बिखरे मुख से फटकती धान ओसारे में तुलसी का बिरवा रोप हर लड़की मुस्काती है मायके की सौंधी मिट्टी में उसे तुलसी की महक आती है
मां सत्यानुभूति के महत्वपूर्ण अंश हैं जो सच की आंच पाकर बच्चों को अभिव्यक्ति देते हैं। मां मूल्यों की तलाश कर धूमिल परिवेश को ढांकते धुंध की चादर उठाकर यथार्थ की छवि का आकलन कर गढ़हन-मुहुरन को ठीक करते हैं फिर भी एक संघर्षशील, ममतामयी मां बच्चे के लिए विस्तृत आकाश से कम नहीं है।
मां सुवासित पुष्प महकाती है घर का कोना-कोना मां सागर ममता की उठती है लहरें जिसमें में भींगकर जी उठता है इंसान मां विस्तृत आकाश देती है नित नई ऊंचाई बन जाती है सीढ़ी और बच्चा बन जाता है बड़ा आदमी और मां नीव की ईंट
आज मनुष्य की पहचान बदल गई है, परिभाषाएं बदल गई है। हमारा सामाजिक, पारिवारिक परिदृश्य बदल गये हैं। संबंधों के विनिमय और विनिमेष बदल चुके हैं। जिंदगी की अनिवार्यताएं जीवन के तौर-तरीके, जीवन के सरोकार बदल गया है। जन सामान्य के बीच की बोली-बानी-भाषा बदल चुकी है। नई भाषिक संरचना अपना कर अब तो खुशी के साथ कविता की नई परिभाषा गढ़नी होगी।
लोग तलाशते हैं खुशियों का ठिकाना एक खुशी के मिलते ही फिर ढूंढते हैं दूसरी खुशियां हर दिन हर पल ढूंढते रह जाते हैं खुशियां पर उन्हें खुशियां नहीं मिल पाती सारी जिंदगी बीत जाती है खुशियां तलाशते हुए क्योंकि खुशियां क्षणभंगुर होती है
डॉ. शैल चंद्रा ने कविता को विषय की बंदिश और लिजिर- लिजिर वाली कोमलता से बाहर निकालकर जन सामान्य के भीतर-बाहर के दुख-दर्द, संघर्ष की गहरी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का एहसास कराती है।
अच्छे कर्म के प्रतिफल सिर्फ एक नाम सदियां जिसे याद करती हैं, जैसे उसके श्रेष्ठ कर्मों का एहसान चुकाती है सदियां बीत जाने पर
काव्य संग्रह ’’इक्कीसवीं सदी में भी’’ की कविताएं गहरे चिंतन का बोध कराती है। आत्मविश्लेषण की गुंजाइश पैदा करता है। कृति को पढ़ा जाना श्रेयस्कर है।
-डुमन लाल ध्रुव प्रचार-प्रसार अधिकारी जिला पंचायत धमतरी