पुस्तक समीक्षा: हाना: जिनगी के गाना
आनुभविक यथार्थ के आयामों का विस्तार करता लोकोक्तियों का संग्रह हाना: जिनगी के गाना
समीक्षक- डुमन लाल ध्रुव
किसी भी रचनाकार की जीवन-छाया उसकी रचनाओं में उभरती ही है, रचनाकार को उसके हालात मथते हैं, फिर वह वेदना हो या संवेदना वही लोकजीवन का हाना बनकर लोक में सुनाई पड़ते हैं। डॉ. रमाकांत सोनी जी की सद्य प्रकाशित संग्रह ”हाना: जिनगी के गाना” में ग्यारह सौ से अधिक छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का संग्रह देखी जा सकती है ।
04 दिसम्बर 1951 चांपा (छत्तीसगढ़) में जन्में डॉ. रमाकांत सोनी जी साहित्य की सेवा करते हुए अपने जीवन के 71 वर्षों की सारस्वत यात्रा एवं 50 वर्षों की साहित्य साधना पूरी करते हुए अपने आप में जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं वह साहित्यिक यात्रा की सफलता में हाना: जिनगी के गाना कृति रच कर नई पीढ़ी के लिए वर्तमान के साथ-साथ अतीत से जोड़ने का प्रयास किया गया। यह छत्तीसगढ़ की अमूल्य निधि है। कृति में ऐसी बहुत सारी सामग्री है जिसे हर साहित्य प्रेमी संजोकर रखना चाहता है। वैसे डॉ. रमाकांत सोनी जी समाज और परिवेश को दृष्टिगत रखते हुए हाना: जिनगी के गाना को बखूबी सर्वथा बिंब सहित आकार दिये हैं । डॉ. रमाकांत सोनी जी विरासत में बाप-दादा से मिले हुए ज्ञान को अपनी कृति में स्थान दिया। साहित्य के एक पूरे दौर से व परंपरा से परिचित कराते हैं। मेरे विचार से हाना: जिंनगी के गाना का भव्य रूप क्या होगा यह बार-बार सोंचता हूं और यह विचार भी सही है। इस प्रश्न का उत्तर केवल एक ही हो सकता है और वह यह है कि वर्तमान में अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक और लोक परंपरा का थाती का साथ कभी नहीं छोड़ेगा। छत्तीसगढ़ के बढ़ते कदमों के साथ-साथ हाना: जिंनगी के गाना भी अपनी यात्रा जारी रखेंगे ऐसा विश्वास है।
हाना लोक का सौंदर्य है ठीक उसी तरह संघर्ष और जिजीविषा का समाजशास्त्र है। साथ ही प्रेम और सौंदर्य का भी समाजशास्त्र लोक है। बाबा नागार्जुन ने प्रेम और सौंदर्य को संघर्ष के साथ जोड़कर देखते हुए कहा है- जब हम संघर्ष को महत्व देते हैं तो किसलिए । प्रेम और सौंदर्य जैसे श्रेष्ठ मानव मूल्यों के लिए । इसी प्रेम और सौंदर्य की रक्षा के लिए हम संघर्ष के रास्ते पर अग्रसर होते हैं जहां-जहां उसके लिए संघर्ष होता है वहां-वहां हम कूद पड़ते हैं। प्रेम और सौंदर्य के लिए किए गए संघर्ष से ही आदिम समाज से लेकर 21वीं सदी तक का समाज विकसित हुआ है। लोक जीवन में इस संघर्ष की अविरल धारा दिखाई देती है। यही वजह है कि हाना किसी एक जाति विशेष का नहीं रह जाता। कालांतर में समूचा लोक उससे जुड़ जाता है।
मांगे बहू सोनहा , बिहाय बहू रूपिया
आए बहू पीतली तिहां मन चित ले उतरी
यह आज के स्थिति का यथार्थ चित्रण है । पुत्र के लिए मांगी गई बहू रूप गुण संपन्न लगती है, फिर प्राप्त हो जाने के बाद वह सोने जैसे लगती है। घर आ जाने के बाद हर कोई उसे प्यार करता है लेकिन उसमें श्रद्धा व सेवा का अभाव देखकर वह मन और चित से उतर जाती है।
बोये ले सोना नइ उपजय , ना मोती के मिले डार
गए समझइया नई बहुरय, ना मंगनी म मिले उधार
करमे राजा अमर भरर्थरी की गाथा में भी ‘बोये ले सोना नइ उपजय’ का उल्लेख मिलता है इससे तात्पर्य है कि सोना खेत में बोने से नहीं उगता उसके लिए परिश्रम करना पड़ता है, मोती किसी पेड़ के डाल में नहीं लगता उसके लिए समुद्र के भीतर गहरे में गोता लगाना पड़ता है । आदर या सम्मान मांगने पर या उधार नहीं मिलता और सूक्ति के साथ अनुभवी समझाने वाला पुरुष दुबारा वापस नहीं लौटता । उसकी बातों का सम्मान कर उसके अनुभव का लाभ उठाना चाहिए।
कुआं रहितिस पटवा डारतेंव,सगरो पाटे न जाय
कागज रहितिस बांच डारतेंव करम न बांचे जाय
भाग्य की विडंबना ऐसी है जो अगर कुआं इतना बड़ा होता तो मैं उसे पटवा डालती ये तो सागर इतना बड़ा है जो पाटा नहीं जा सकता । कागज में लिखा होता तो मैं पढ़ लेती लेकिन भाग्य के लिखे को कोई पढ़ नहीं सकता।
व्यक्ति जब किसी बात को प्रभावशाली या वजनदार बनाना चाहता है तब कहावतों, लोकोक्तियों की शरण में जाता है। कोई भी समाज ऐसा नहीं होता जिनमें कहावतों का सटीक प्रयोग नहीं किया जाता हो । कहावतें व्यावहारिक अनुभव की खरी कसौटी होती है । छत्तीसगढ़ में सभी समाज वर्गों में बात-बात पर कहावतों का प्रयोग करते सहज रूप से देखा जा सकता है।
का सारा के राखे , अउ का नारा के बांधे
घर में साले को अधिक दिन रखने का कोई औचित्य नहीं है अधिक दिन रहने पर वह आपके निर्णय को प्रभावित करेगा इसी तरह खेत के नाले को बांधकर निश्चिंत नहीं होना चाहिए । बांधा हुआ नाला कभी भी फूट सकता है।
आंखी कान के ठिकाना नइये बंदन के खइता
बंदन अर्थात मांग का सिंदूर । जब आंख कान ठीक से नहीं दिख सुन रहा हो तो सिर्फ मांग भरने से क्या लाभ ? मांग भरना श्रृंगार का प्रमुख अंग है इसके लिए संपूर्ण चेहरे का सुंदर दिखना आवश्यक है।
लोकोक्तियां ही ऐसी विधा रही है जिसमें मानव शुरू से ही सुख और मार्गदर्शन खोजता आया है। किंतु आज की स्थिति उलट है। साहित्य में सच का साया जहां दिखता है वहीं राजनीति के दांव पेंच शुरू हो जाते हैं। हम यह सोच कर आश्वस्त हो जाते हैं कि स्थितियां वक्त की सामान्य उपज है जो तात्कालिक होती है और सृजनशीलता के आगे विघटन भी सृजन का अंग बन जाता है नियति का यही शाश्वत सत्य है। छत्तीसगढ़ी साहित्य की मूल्यवत्ता इसी में है कि वह निरंतर आनुभविक यथार्थ के उन आयामों का विस्तार करता चलता है जो दूसरे सभी आयामों के परीक्षण की कसौटियां हमें देते चलते हैं और इस प्रकार हमारे लिए यह संभव बनाते हैं कि हम उन दूसरे आयामों को आत्मसात कर सकें-अपने अनुभव और अपनी चेतना का विस्तार कर सकें।
क्षण-क्षण रचनात्मक पल जो जीवन से जुड़े व्यापक आशय को व्यक्त करता है , लोक का यह गुणात्मक पक्ष लोगों को मुग्ध करता है। हाना जीवन में शब्दजीवियों को प्रेरणा देती है और तो और जटिल स्थिति में भी उस चरित्र को भी जी लेना अपनी खास अहमियत को बताती है।
डॉ. रमाकांत सोनी की कृति हाना: जिनगी के गाना लोकोक्तियों के गहरे पानी में पैठ जाने पर हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि आदिमकाल में मानव एक था, उसकी प्रवृतियां, भावनाएं, विचारधाराएं और कल्पनाएं सर्वत्र एक थीं । सभ्यताएं और संस्कृतियां ऊपर से हमें चाहे जितनी विभिन्न दिखाई पड़ती हों, फिर भी वह आपस में मिलने के लिए निरंतर एक- दूसरे की ओर अपना सहानुभूतिपूर्ण हाथ बढ़ाती रही हैं। यदि संसार के सभी देशों की सब जातियों के लोकोक्तियों को संग्रह कर प्रत्येक भाषा के लोकोक्तियों का संसार की प्रत्येक दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाए तो निश्चय ही एक जाति के लोग दूसरी जाति का, एक धर्म के लोग दूसरे धर्म का और एक राष्ट्र के लोग दूसरे राष्ट्र का अधिक सम्मान करने लगेंगे और प्रांतीयता तथा राष्ट्रीयता जैसे शब्दों को शायद शब्दकोशों से निकल जाना पड़े । हमें ऐसा जान पड़ेगा कि एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न भाषाओं में बोल रही है।
बात बात म बात बाढ़य खेत म बाढ़य धान
तेल फूल म लइका बाढ़य ,सोल म बाढ़य कान
नाचा छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य की प्रमुख विधा है । लोक चेतना को जगाने के लिए नाचा के अधिकांश कलाकार इस लोकोक्ति का प्रयोग करते हैं । यह सत्य है किसी से बातचीत हो जाने पर बात में ही बात बढ़ती है कोई एक चुप हो जाए तो बात वहीं खत्म हो जाती है। बात ही बात अर्थात क्षण – क्षण में खेत में धान बढ़ता है उसी तरह रोज के तेल मालिश से शिशु बढ़ता है और सोल डालने से कान का छेद बढ़ता है।
डॉ. रमाकांत सोनी जी की लोकोक्तियां किसी भी देश के राष्ट्रीय जीवन की थाती है । इस अमूल्य संपत्ति – धरोहर को लोकजन बड़े से बड़े लोभ पर भी अपने से अलग नहीं कर सकते। वह सदा इन्हें अपनी छाती से चिपकाए रहते हैं । जिस प्रकार मां-बाप अपनी गोदी के लाल को वात्सल्य के आवेश में अपनी आंखों से ओझल होने देना पसंद नहीं करते , उसी प्रकार जनकंठ इन लोकोक्तियों को अपने से अलग नहीं कर सकता । जनजीवन की अनवरत दौड़-धूप के साथ-साथ सभ्यता तथा संस्कृति का जितना दर्शन इन दोनों लोकोक्तियां में मिल सकता है, उतना अन्यत्र नहीं । इनमें सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक, नीति दार्शनिक राजनीतिक आदि नित्य के प्रति जीवन की सभी भावनाओं का समुचित समावेश ही नहीं वरन उनका व्यापक विकास भी हुआ है । तुच्छ से छह रोग विशेषज्ञ प्रत्येक भावना समस्त मानवीय गुणों की सफलता तथा दुर्बलता के भाव चित्र में इतनी सुंदर हुए हैं, इनमें इतनी सूक्ष्मता एवं सौंदर्य के साथ अंकित हुए हैं कि सौंदर्य भी सजीव हो उठा है । इनमें इतने दर्दमय चित्र भी मिलते हैं कि वे कंपन भी पैदा कर सकते हैं। तीखापन इनमें इतनी सरलता से आया है कि मिठास का बोध होता है।
मन हरे त धन हरे
किसी से कुछ पाने के लिए उसका ह्रदय जितना आवश्यक है और हृदय जीतने के लिए निश्छलता एवं श्रद्धा जरूरी है जो किसी का मन जीत लेगा उसको उसके धन पाने में देर नहीं है।
हीरा गंवागे कचरा म
हपट परे पथरा म
पत्थर में टकराने के कारण हीरा जैसे अनमोल रत्न को कचरा में गंवा डाला । मनुष्य जीवन हीरा जैसे अनमोल है जिसे मैंने क्षणिक भोग विलास के कचरे में गंवा डाला ।
दाई के खमरछठ अउ डउकी के तीजा
मां का हलषष्टि व्रत और पत्नी का तीजा व्रत । मां अपने पुत्र के दीर्घायु की कामना लेकर हलषष्ठी व्रत रखती है और पुत्र को पोती मारती है और पत्नी अपने पति के दीर्घायु के लिए तीजा व्रत रखती है ।
आन के भरोसा तीन परोसा
दूसरे के तीन परोसा की आशा में आदमी भूखा मर सकता है इसलिए आदमी को प्रत्येक काम में सफलता प्राप्त करने के लिए स्वयं का भरोसा ही ठीक है। दूसरे के भरोसा में धोखा मिलने पर यह कहावत कही जाती है।
छत्तीसगढ़ी में और ना जाने ऐसे कितने लोकोक्तियां डॉ. सोनी जी के स्मृति पटल में बसे हुए हैं। ऐसे कृतियों का लोक जीवन में भी अपना एक महत्व है। केवल मनुष्य का ही महत्व – व्यक्तित्व नहीं होता, बल्कि छोटे बड़े नगरों एवं गांवों का भी अपना एक मूर्त लोकोक्ति होता है-जीवंत। हजारों साल में निर्मित अपनी एक संस्कृति, जो उनकी पहचान होती है। ऐसी ही बहुरंगी विविध संस्कृति का संपूजन है अपना यह छत्तीसगढ़ । यह विविधता और जीवंतता ही छत्तीसगढ़ की पहचान है। इस विविधता के मध्य एक अंतः सूत्र है, जो सबको बांधे हुए हैं। जिस दिन हमारी यह समृद्धि विविधता नष्ट हो जाएगी, एक इकहरापन शेष रह जाएगा। इसलिए हाना: जिनगी के गाना जैसी विविधता को जानने-पहचानने और संरक्षित करने की जरूरत है। इस कृति के माध्यम से लोकोक्तियों को हम जान समझ सकते हैं। सचमुच में यह जीवन भी तो एक निरंतर हाना ही है ।
छत्तीसगढ़ की लोकोक्तियों की परंपरा को ध्यान में रखते हुए ऐसा लगता है कि यहां वही रचना जातीय स्मृति का अंग बन पाती है , जिसे लोक स्वीकारें। डॉ. रमाकांत सोनी जी अपनी लोकोक्ति परंपरा को जीवित रखने के लिए कालजयी विचार को अनुशासित ढंग से प्रस्तुत कर पाए । बहुत-बहुत बधाई शुभकामनाएं …
डुमन लाल ध्रुव
प्रचार-प्रसार अधिकारी
जिला पंचायत धमतरी
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