पुस्तक समीक्षा: कुण्डलियाँ किल्लोल
कृति का नाम | कुण्डलियाँ किल्लोल |
कृतिकार का नाम | श्री चोवाराम वर्मा |
विधा | काव्य |
शिल्प | कुण्डलियॉं छंद |
मूल्य | 100/00 |
समीक्षक | श्री अजय “अमृतांशु” |
पुस्तक समीक्षा: कुण्डलियाँ किल्लोल
साहित्य साधना मजाक का विषय नहीं है, चिंतनशील व्यक्ति ही साहित्य की साधना कर सकता है । भाषा शिल्प और शैली की अभिव्यंजना काव्य को जन्म देती है। छंदबद्ध पंक्तियों को सुनकर कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यदि काव्य में संवेदना ना हो तो लेखन व्यर्थ ही है। पारखी रचनाकार जीवन में आने वाली हर बाधाओं को आत्मसात कर समाज के लिए नये रास्ते गढ़ता है। चोवाराम वर्मा बादल जी की 151 कुंडलियों से सजा काव्य संग्रह “कुंडलिया किल्लोल” पढ़ने को मिला। सभी कुण्डलिया चित्रों पर आधारित हैं। कोदूराम दलित जी के बाद विधानसम्मत कुंडलियों का लेखन लगभग नहीं के बराबर हो रहा था। नवागढ़ के रमेश कुमार सिंह चौहान ने आँखी रहिके अंधरा नामक कुण्डलिया छन्दों का संग्रह प्रकाशित कर इस विधा में पहल की और अब चोवा राम बादल जी की कुण्डलिया इस कमी पूरा करने की एक कड़ी है कहूँ तो गलत नहीं होगा। छत्तीसगढ़ के परिदृश्य में वर्तमान दौर में कुण्डलिया लिखने वाले छंदकारों में बादल जी पहली पंक्ति के रचनाकार हैं । विधानसम्मत कुण्डलिया रचकर इस छन्द को पुनर्स्थापित करने का पूरा प्रयास बादल जी ने अपने संग्रह में किया है। काव्य, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है वहीं छंदबद्ध रचनाएँ सीधे अंतस में प्रवेश करती हैं। कुण्डलिया किल्लोल की ये 151 कुण्डलिया निश्चित रूप से आपको पसंद आयेंगी।
नैतिकता का पतन इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। अपने निहित स्वार्थों के लिए लोगों ने सब कुछ बेच दिया है। कुण्डलिया की इन पंक्तियों में बादल जी ने समाज को आईना दिखाने का काम किया है –
निष्ठा बिकती हाट में, अब मिट्टी के मोल।
सत्य धर्म ईमान सब, हरदम डाँवाडोल।।
हरदम डाँवाडोल ,लोभ पैसे का दिखता।
कोई नेक विचार, नहीं अंतस में लिखता।
गिरा हुआ इंसान, खोजता फिरे प्रतिष्ठा।
करता भागमभाग, टाँग खूँटी पर निष्ठा।
उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते शहर का वातावरण दूषित हो चुका है। बादल जी गाँव का अद्भुत चित्रण करते-करते गाँव की स्मृतियों में खो जाते हैं :-
लगता मुझको स्वर्ग सा,सुंदर मेरा गाँव।।
घन अमराई है जहाँ, बरगद पीपल छाँव।
बरगद पीपल छाँव, कुएँ का मीठा पानी।
बड़े बड़े तालाब, नदी की एक कहानी।
दूर-दूर तक खेत, अन्न जिस पर है उगता।
जीवित सब त्यौहार, हर्ष हर पल है लगता।
समाज की विसंगतियों को रेखांकित करना कवि का कर्तव्य होता है। काव्य में कोई संदेश ना हो तो सृजन अर्थहीन माना जावेगा । समाज में व्याप्त मृत्यु भोज जैसी कुरीतियों पर तगड़ा प्रहार करते हुए बादल जी लिखते हैं :-
जीते जी हो सर्वदा, मातु पिता से प्रीत।
व्यर्थ मृत्यु उपरांत है, मृत्यु भोज की रीत।।
मृत्यु भोज की रीत, दिखावा जानो इसको।
नाना विधि पकवान, परोसे मिलता किसको।
मिला न उनको प्रेम, रहे सेवा से रीते ।
सोचो मेरे मित्र, हृदय क्या उनके जीते।
एक दार्शनिक की भाँति बादल जी के विचार समाज को चिंतन करने पर मजबूर करता है :-
सोने का सुंदर महल, दौलत है भरमार।
मानव किंतु उदास है, चाहत पाल हजार।।
चाहत पाल हजार, निरंतर भाग रहा है।
नहीं कहीं विश्राम, नींद में जाग रहा है।
रखता भोग सहेज, उसे है डर खोने का।
जाएगा सब छोड़, करेगा क्या सोने का।
निराकार ईश्वर को कण-कण में विराजमान बताते हुए बादल जी मानव को सद्कर्मो के प्रति सचेत रहने हेतु आह्वान करते हैं । उनका मानना है कि सारी प्रकृति ब्रह्मांड और आकाश ईश्वर ने ही बनाए हैं। सारे पाप पुण्य का हिसाब रखना उस अदृश्य सत्ता का काम हैं जिसे हम ईश्वर कहते हैं:-
वृक्ष समाया बीज में, महक समाया फूल ।
कण-कण में भगवान है, मानव तू मत भूल।।
मानव तू मत भूल, दिखाई भले न देता ।
बिना आँख के देख, जान वह सब कुछ लेता।
माया की ले आड़, उसी ने जगत बनाया।
वही ब्रह्म ब्रह्मांड, बीज में वृक्ष समाया।
देश की वर्तमान हालत किसी से छुपी नहीं है। कानून व्यवस्था चरमरा गई है, ऐसे में एक समर्थ रचनाकार का दायित्व बनता है कि बिना किसी भय के सृजन करे और बादल जी ने ऐसा ही किया है –
अंदर पोला ढोल है, कोरा है मजमून ।
कातिल बाहर घूमते, अंधा है कानून ।।
अंधा है कानून, जेब में रख दो पैसा।
मिलते बहुत गवाह, कोर्ट में चाहो जैसा।
कितना बोले बोल, तीन बापू के बंदर।
किस पर हो विश्वास, घूस है थैला अंदर।
यद्यपि इस संग्रह की सारी कुण्डलिया, चित्र आधारित हैं तथापि बिना चित्रों के भी ये कुण्डलिया अपने भावों के संप्रेषण में सक्षम हैं जो लेखन की गुणवत्ता को दर्शाता है। विविध विषयों से परिपूर्ण यह संग्रह निश्चय ही पाठकों को पसंद आएगा। नव सृजनकार इसे जरुर पढ़ें, उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। कुण्डलिया किल्लोल के प्रकाशन के लिए बादल जी को साधुवाद।
समीक्षक- अजय “अमृतांशु”