पुस्तक समीक्षा:जीवट कैशोर्य की उद्दाम गाथा : मछुआरे की लड़की
– डॉ. सत्येन्द्र शर्मा
एक दैनिक समाचार पत्र की कथा प्रतियोगिता में वरीयता प्राप्त कर प्रकाश और चर्चा में आई, विनोद कुमार वर्मा की कहानी ‘ मछुआरे की लड़की’ यदि अपने जन्मकाल से ही सामाजिकों और कथा रसिकों के चेतना केन्द्र में है तो यह स्वाभाविक ही है। समाज के एक अचीन्हे और कथित रूप से छोटे वर्ग मल्लाह परिवार के घरौंदे में पली-पुसी, काली-कलुटी लुलिया उर्फ सरस्वती उर्फ प्रियम्बदा उर्फ शांकरीसुता के साहस, दृढ़ता, इच्छा शक्ति, उद्दम आवेग, दायित्व बोध, घनीभूत संवेदना, निर्भयता और महत आकांक्षा को उकेरती यह गाथा अपने एकीकृत प्रभाव में कथा शिल्पी जयशंकर प्रसाद के उन अनेक नारी चरित्रों का उदात्त स्मरण कराती है, जो जीवन का सूत्र तो बनती ही है, अपने कर्म कौशल से जन-उपवन की स्थाई सुवास बन जाती है।
कथाकार विनोद कुमार वर्मा चाहते तो उसकी पहचान मछुआरे की लड़की में ही कर इसी संज्ञा से उसकी तथा-कथा कह सकते थे, किन्तु काली-कलुटी लुलिया से लेकर शांकरी सुता के क्रमिक विकास तक उसकी संज्ञाओं का रूपान्तरण उसके व्यक्तित्व के अनुरूप होता चला आता है, बल्कि कहना चाहिए कि वह यह संज्ञाएँ अर्जित करती चली जाती है। चरित्र नायिका के व्यक्तित्व का उद्घाटन, कथा की उत्तरोत्तर उदात्त मनोभूमि और क्रमश: उसे मिलते जाते नाम तीनों उपादान इस तरह विन्यस्त हैं कि वे परस्पर अंगीभाव से गुँथे हुए नजर आते हैं।
प्रकृत्यांचल के बड़े कैनवास में उकेरी गई यह कथा शुरूआत में ही जिस ऊँचाई और विरात्तव की संभावना जताती है, उसमें व्यक्त सरस्वती की गाथा अपनी परिणति में वैसा ही प्रतिफल उद्भाषित करती है। एक व्यापक प्रकृति फलक में एक उत्तुंग जीवन की झलक। पूरे कथा विन्यास में नर्मदा की भौगोलिक इयत्ता जैसे पसरी पड़ी है उसी के समानांतर बल्कि उसमें समरस सरस्वती की अप्रतिम शौर्य गाथा लय-लीन है। कहना मुश्किल है कि रचनाकार ने लड़की के असाधारणत्व को दिखाने के लिये नर्मदा के यथार्थ विराट को उल्लेखित किया है या वह वस्तुतत्व की मांग के तहत है, किन्तु जो भी है उसे रचनाकार ने एक ऐसे सिद्धहस्त चित्रकार की प्रतिभा का परिचय दिया है जो अपने नायक को वांछित ऊँचाई देने के लिये दृश्य फलक की पृष्ठभूमि को उदात्त और उत्तुंग भावबोध कराने वाले रंगों की सृष्टि करता है। सच तो यह है वह लड़की और नर्मदा अपने व्यक्तित्व के अनेक गुणों के समानता के कारण परस्पर पूरक और पर्याय लगती हैं।
नर्मदा दुर्द्धर्ष है, वेगवती है, तट प्रदेशों को सींचती, सिरजती है, सदानीरा होने से सतत कल्याणमनी और वन्दनीय है। मछुआरे की लड़की बाल्यावस्था से अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये सजग संचेष्ट है, विवाह के आकर्षण से अधिक कर्तव्यबोध से सम्प्रक्त है, अपशब्दों से मर्माहत किन्तु लक्ष्य प्राप्ति के लिये दृढ़ है। आपदा में अडिग, अविचलित, सहज मानवीयता से आपूरित, प्राणों को दाँव पर लगा मनुष्य भाव की रक्षा के लिये संकल्पित उच्चाकांक्षाओं से पूरित प्रेरित। कहा जाता है व्यक्तित्व का विधायक तत्व परिवेश है, कहना न होगा मछुआरे की लड़की का व्यक्तित्व नर्मदा की लोल लहरियों में पल्लवित पोषित होने के कारण वह ऐतिहासिक घटना की कर्ता और कथा का चरित नायक होने का दर्जा पा सकी है।
मछुआरे की लड़की की कथा वास्तव में एक यथार्थ घटना है जिसकी तिथिकाल तक का उल्लेख रचना में हुआ है, किन्तु इस जानकारी से रचना अधिक प्रभविष्णु विश्वसनीय और तर्क संगत लगने लगती है। लोकव्यापी घटना को रचना का आधार बना लेना सरल तो है किन्तु उसका निर्वाह उतना ही कठिन बल्कि ‘ तलवार की धार पे धावनों ‘ जैसा होता है। इस तथ्य को वे रचनाकार भलीभाँति जानते होंगे जिन्होंने इतिहास प्रसिद्ध घटनाओं को रचनाओं का वर्ण्य विषय बनाया है।
इस कथा की घटना, स्थान, तिथि को छोड़कर शेष संपूर्ण रचनाकार का मनोजगत है, किन्तु यह मनोजगत इस खूबी से रूपायित है कि पूरे रचना विधान में सरस्वती ऊभ-चूभ दिखाई पड़ती है। इसमें संदेह नहीं कि मछुआरे की उस नामालूम-सी विकलांग लड़की का असाधारण पराक्रम और मानवीय संरक्षा का भाव रचना की अन्तर्वर्ती शक्ति है और शायद रचना की प्रेरणा का मूल कारण ही घटना का वैशिष्ट्य है, किन्तु लड़की के चारित्रिक गठन, विकास और उदात्त परिणति को विश्वसनीय विकास देना रचनाकार का अपना कौशल है।
प्रसंगवश यहाँ एक शाश्वत प्रश्न साहित्य मात्र के हेतु के रूप में उतरता है और वह यह है कि वस्तु तत्व की मार्मिकता या शक्तिमत्ता रचना को अपनी ओर से अधिक ताकतवर बना देते हैं, या फिर इसका सारा श्रेय रचनाकार के अभिव्यक्ति कौशल या फिर संवेदनात्मक अनुभूति को जाता है । ‘ मछुआरे की लड़की ‘ का वस्तु संसार इस जिज्ञासा का उत्तर ढूंँढऩे में हमारी बड़ी मदद कर सकता है। इस रचना में भी संवेदना तो बीज रूप में बुनियाद बनकर उपस्थित है ही, जो रचनाकार को लड़की की उत्कृष्ट उपलब्धि के बखान में ही अपने रचनाकर्म को संतुष्टि नहीं दे पाता वरन् वह उसके उस अतीत और बाल्यावस्था के परिवेश को शब्द-शब्द आविष्कृत करता है जिसमें पल-बढ़कर वह लड़की उदात्त शिखर को छूती है।
दूसरा, वस्तु तत्व का चयन भी तो लेखक की संवेदना का अंग ही माना जाएगा और तय है कि उसके श्रेय का भागीदार भी वही होगा।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य के क्षेत्र में हिन्दी के शिखर कवियों की विवेचना करतेे हुए ‘ मार्मिक स्थलों की पहचान ‘ सभी कवियों में नहीं होती कहकर वस्तु चयन की महत्ता को ही रेखांकित किया है। वास्तव में विनोद कुमार वर्मा के रचनाकार ने ‘ मछुआरे की लड़़की ‘ के जिस प्रातिभ को संवेदना के केन्द्र में रखकर अनुभूत किया है, उसका श्रेयस भी उनके रचनाकार को तो जाता ही है, साथ ही साधारण में असाधारणत्व को देखने-दिखाने का जो आनुषंगिक लाभ इस रचनाकार को मिलता है, वह लेखक का अतिरिक्त और सहज प्राप्य है।
मछुआरे की लड़की की बाल्यावस्था में ही उसकी आंतरिक उड़ान और बलवती आत्मा के जो संकेत रचना के प्रारंभ में ही दिये हैं- जैसे हवाई जहाज देखकर उसमें बैठ पाने की उत्कंठा और हाथी पर बैठने की जिद आदि में उसका पल्लवन रचना के अंत में स्वाभाविक गति और फल प्राप्ति में दिखाई देता है। मछुआरे की लड़की की ये बालोचित उत्कंठाएँ सर्वथा सामान्य है किन्तु इन्हें कथा का उपजीव्य बनाकर और उनकी सटीक परिणति दिखाकर रचनाकार उन प्रवृत्तियों को वैशिष्ट्य दे देता है।
रचना में आदि से अंत तक नर्मदा का वैभव फैला पड़ा है। उसकी भौगोलिक सबलता, पौराणिक और सांस्कृतिक माहात्म्य, उसके इर्द-गिर्द प्रकृति का प्रशस्त आँगन, उत्स से लेकर अरब सागर तक की यशस्वी यात्रा गाथा, उसका पुण्य सलिला वत्सल स्वरूप और प्रलयंकारी विनाशी रूप…. इस वर्णन के साथ-साथ ही लिपटी हुई है मछुआरे की लड़की की गाथा। जैसा कि पूर्व में भी संकेत कर चुका हूँ दोनों वर्ण्य विषय अलग-अलग इकाई होकर भी परस्पर विलीन हो गये हैं। जाने क्यों नर्मदा के माहात्म्य में उस लड़की का और लड़की के महत्व वर्णन में नर्मदा की प्रकृति भासित होती चलती है। यह लेखक का सायास कौशल हो या नहीं पर कथा शिल्प की उल्लेखनीय उपलब्धि है।
कथा की समाप्ति करते हुए रचनाकार को वेदव्यास कृत दासराज कालिका पुत्री सत्यवती का स्मरण आना रचना विधान का आग्रह चाहे भले हो किन्तु इसके संकेत मात्र से कथा की अर्थच्छटा और गरिमा बढ़ गयी है। सत्यवती इस महादेश के इतिहास की धारा बदलने का कारण बन गयी थी, यही आधार किसी दलितवादी कथा लेखक को अपने मनोजगत की ग्रंथि को व्यक्त करने और आक्रोश अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त है, किन्तु एक बड़े अभिप्राय और मनुष्य की कल्याण कामना से रचे जाने वाले साहित्य में ऐसे प्रसंग संकेत में अभिव्यक्ति पाकर भी कैसी अर्थ व्याप्ति दे जाते हैं, यह यहाँ महसूस किया जा सकता है। मेरी राय में कथित दलित-साहित्य के सर्जकों को अपने ‘ स्कूल ‘ में ऐसी रचनाओं को केन्द्र में रखकर गंभीर विमर्श कर रचनात्मक स्तर पर दिशा-बोध अर्जित करना चाहिए।
कहानी में गणतंत्र दिवस के अवसर पर सरस्वती बाई के परिचय वाचन में पुनरूक्ति से बचकर भी कहानी की काया छोटी नहीं की जा सकती थी किन्तु ऐसा करना कहानी के कसाव का लक्षण होता। प्रलय की रात में थककर चूर हो चुकी सरस्वती के दर्द और पीड़ा को प्रसव जैसा बताना भी शायद युक्तिसंगत नहीं किन्तु यहाँ रचनाकार के अपने तर्क हो सकते हैं। बहरहाल, कहानी के ऐसे एकाधिक स्थल सुडौल, स्वस्थ, समुन्नत चेहरे पर डिठौने (बुरी नजर से बचने के लिये लगाया गया काला टीका) की भाँति समझे जाने चाहिए।
डाॅ सत्येन्द्र शर्मा ‘श्यामायन’
सहकार मार्ग, सतना ( मध्यप्रदेश )
संपूर्ण कहानी यहां पढ़े- मछुवारे की लड़की
उत्कृष्ट समीक्षा बधाई💐💐💐💐💐