पुस्तक समीक्षा-शब्द गठरियां बांध-पुस्तक परिचय-
कृति का नाम | ‘शब्द गठरिया बाँध’’ |
कृतिकार | श्री अरूण निगम, दुर्ग |
कृति में भूमिका लेखक | दानेश्वर शर्मा, भू.पू. अध्यक्ष राजभाषा छत्तीसगढ़ |
कृति का प्रकाषक | अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद |
कृति स्वामित्व | श्री अरूण निगम, कवि-‘‘शब्द गठरिया बाँध’’ |
प्रकाशन वर्ष | 2015 |
सामान्य मूल्य | रू. 120.00 |
विधा | पद्य |
शिल्प | छंद |
भाषा | हिन्दी |
पुस्तक की उपलब्धता | कृतिस्वामी के पास |
आनलाइन उपलब्धता | www.surta.in |
समीक्षक | श्री रमेशकुमार सिंह चौहान, नवागढ़ |
कृतिकार से परिचय-
कृतिकार श्री अरूण निगम आज छत्तीसगढ़ का सुपरिचित नाम है । आपको छंदकार ही नहीं अपितु छंदगुरू के नाम से जाना जाता है । आप अपने पिता जनकवि कोदूराम ‘दलित‘ के सुदीर्घ छंदकाव्य परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य रहे हैं किन्तु आपके इस शिखर में पहुँचना केवल और केवल आपका छंद के प्रति दृढ़ संकल्पी होना ही है । इसी पुस्तक के भूमिका देते हुये छत्तीसगढ़ के जाने-माने वयोवृद्ध साहित्यकार छत्तीसगढ़ राजभाषा के अध्यक्ष रह चुके श्री दानेश्वर शर्मा जी लिखते हैं- ‘‘मैं अरूण को शैशवकाल से जानता हूँ, वह मेरे शिक्षा गुरू और छत्तीसगढ़ के प्रथम कोटि के कवि स्व. कोदूराम दलित का पुत्र है, किन्तु कवि के रूप में नहीं जानता था । अरूण के इस पाण्डुलिपि पर निगाह डाली तो आश्चर्य चकित रह गया । इतनी उच्चकोटि की कवितायें !’’ श्री अरूण निगम की अन्य प्रकािशित कृति ‘छंद के छ’ छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखि गई एक छंद शास्त्र है । इसी कृति के नाम पर निगम छंद आंदोलन सह पाठशाला ‘छंद के छ’ चला रहे हैं जिसमें असंख्य लोग छंद विधा को आत्मसात कर रहे हैं ।
पुस्तक समीक्षा-शब्द गठरियां बांध-
‘शब्द गठरिया बाँध’’ अपने नाम के अनुरूप श्ब्दों का एक ऐसी गठरी है जो छंद व्यकरण की डोरी से बंधी हुई है और इस बंधन से भाव, रस, अलंकार स्वमेव निसृत हो रहे हैं-
अक्षर-अक्षर चुन सदा, श्ब्द गठरियां बाँध । राह दिखाये व्याकरण, भाव लकुठिया काँध ।। अलंकार रस छंद के, बिना कहाँ रस-धार । बिन प्रवाह कविता कहाँ, गीत बिना गुंजार ।।
छंद की कसौटी पर ‘शब्द गठरिया बाँध’-
‘शब्द गठरिया बाँध’’ काव्य शिल्प एवं भाव शिल्प दोनों का अटूट बंधन को प्रतिपादित किया है । इस कृति में छंद का समग्र दर्शन होता है मात्रिक छंद में दोहा, रोला चौपई, कुण्डलियां, आल्हा, सरसी, सार,उल्लाला, छन्न पकैया, कहमुकरिया, कामरूप गीतिका तो वार्णिक छंद में घनाक्षरी, सवैया आदि शतप्रतिशत छंद अनुशासन से अनुशासित हैं । छंद की कसौटी पर ‘शब्द गठरिया बाँध’’ शतप्रतिशत उत्तीर्ण है । अस्तु यह कृति नवछंदकारों का मार्गप्रशस्त करने में सक्षम है ।
विषय की विविधता को भावनात्मक रूप से यह एकाकार कर रही है । समान्यतः कृतिकार कृति का आरंभ ईश प्रार्थना से करते हैं, किन्तु इसमें कृति का आरंभ ‘कालजयी साहित्य’ से किया गया है, जहाँ साहित्य का अमरत्व सात दोहों में निबद्ध है । यह एक सच्चे साहित्यकार का साहित्य पूजा है । यहां दृष्टव्य है-
दीपक पलभर जल बुझे, नित्य जले आदित्य । ज्योतिर्मय जग को करे, कालजयह साहित्य ।।
तत्पश्चात ‘हिन्दी‘, ‘मेरे सपनों का भारत‘ प्रकाशित करना कवि का राष्ट्रवंदन ही तो है-
आया मेरे स्वप्न में, धारे सुन्दर वेश । मैंने पूछा कौन हो, बोला भारत देश ।। रत्न जड़ित हिंदी दिखी, मुकुट बनी थी शीश । सम्मानित माँ बाँटती, सबको ही आषीश ।।
हेमन्त ऋतु, वर्षा ऋतु, पर्यावरण, जल, आँगन शीर्षक से प्रकाशित दोहे कृति का मजबूत पक्ष है जो पर्यावरण की चिंता को केवल व्यक्त ही नहीं कर रहा है अपितु पर्यावरण सबल होने पर उसका आनंद और पर्यावरण के निर्बल होने पर धरती के चराचर पर क्लेश को रेखांकित करते हुये पाठक को झकझोर रहा है-
काट काट कर बाँटता, निशदिन देता पीर । कबतक आखिर बावरे, धरती धरती धीर ।।
रिश्ते, मजदूरनी, श्हर, तलाश, नववर्ष शीर्षकों में सामाज के विविध बुराईयों को उद्धृत करते हुये मानव से मानव बनने का आव्हान किया गया है-
बरगद पीपल का जिसे, है मालूम महत्व । वही जान सकता यहाँ, क्या है जीवन सत्व ।।
बिटिया, दुहिता, कचनार कली, दहेज, नारी जैसे शीर्षकों से नारी का बेटी से स्त्री तक के यात्रा का यथार्थ चित्रण है –
देखे तन के घाव कब, जख्म जिगर के दूर । वो निर्दय जल्लाद तो, ये भी क्या कम क्रूर ।। ये भी क्या कम क्रूर, सुनाऊँ किसको दुखड़ा । आते मुझको देख, सभी का उतरा मुखड़ा ।। बाबुल-भैया बोल, कहाँ जाऊँ दुख लेके । समझाइश सब देत, घाव नहीं तन के देखे ।।
पूरी कृति में विषय की विविधता कलमकार की उन्मुक्त लेखनी, उन्मुक्त विचार, गंभीर चिंतन का परिचायक है । पाठक के हर वर्ग तक पैठ बनाने का सहज उद्यम है । निश्चित रूप से पाठकों के विचारों के अनुरूप कविताओं की बानगी है ।
अलंकार की कसौटी पर ‘शब्द गठरिया बाँध”
छंद काव्य की कसौटी है तो अलंकार काव्य का श्रृंगार, रस काव्य की अनुभूति । स्वछंद मन से निसृत भाव को कवि ने जब छंद में बांधा तो स्वाभिक रूप से यह काव्य श्रृंगारित हो गई-
अनुप्राय अलंकार से अलंकारित काव्यांश –
- चम-चम चमके गागरी, चिल-चिल चिलके धूप ।
- अजगर अजर-अमर हुये, मगरमच्छ दीर्घायु ।
- पहले पहले प्यार था, नशा रहे कुछ और ।
यमक अलंकार से अलंकारित काव्यांश-
- कबतक आखिर बावरे, धरती धरती धीर ।।
- पर सूरज सूरज रहा, है बादल की ओट ।
- धरे तिरंगा हाथ में, धरा धरा पर पाँव ।
श्लेेेष अलंकार से अलंकारित काव्यांश –
श्वेत साँवरे घन घिरे, लेकिन अपना कौन ।
गरजे वह बरसे नहीं, जो बरसे वह मौन ।।
उपमा अलंकार से अलंकारित काव्यांश-
- मइका खलिहान बराबर है, बिटिया रहती खुशहाल जहाँ ।
- ‘कर’ की लालच जोंक सरीखी,नश कर रहा सेहत नाश ।
- मेंहँदी भाँति रंग, सँवरता हौले-हौले ।
रूपक अलंकार से अलंकारित काव्यांश-
- सुख माखन नवनीत, अरूण सुख मत की मटकी ।
- बदरा कारे नैन, समाये इन्हे हटाओं ।
- नयन कँटिले बावरे, मारे तुक तुक बाण ।
उत्प्रेक्षा अलंकार से अलंकारित काव्यांश-
- दारू भठ्ठी खा गई, सौतन-सी तनख्वाह ।
- अरूण नीर आशाढ़ का, अमृत जैसा जान ।
- तरकारी बिन प्याज की, ज्यों विधवा की मांग ।
मानकीकरण अलंकार से अलंकारित काव्यांश-
- पाखण्ड़ी किचड़ का रिष्ता, इस मौसम में खूब प्रगाढ़ ।
- चोट लगी वृक्षों को जब भी, होता घायल यह आकाष ।
- सीताफल हँसने लगा, खिले बेर के फूल ।
अतिश्योक्ति अलंकार से अलंकारित काव्यांश
- चितवा कस चुस्ती जाँगर मा,बघुआ कस मोरो हुँकार ।
- गरूड़ सही मयँ गजब जुझारू, नाग बरोबर हे फुफकार ।
- कविताओं में बाँचिये, शीतल मंद समीर ।
रस की कसौटी पर ‘शब्द गठरिया बाँध”
‘शब्द गठरिया बाँध’ रस से भरा एक रसीला फल है । किन्तु इसमें केवल एक ही फल का स्वाद नहीं अपितु कई फलों का स्वाद इसके रसपान से प्राप्य है –
श्रृंगार रस-
नयन कँटिले बावरे, मारे तुक तुक बान । चोट हृदय पर जब परै, लागे पुश्प समान ।। बोल थके नयना कजरा, अँचरा कुछ भी नहि जोर चला । फूल झरी मुरझाय चली, नहि बालम का हिरदे पिघला ।।
करूण रस-
चोट लगी वृक्षों को जब भी, होता घायल यह आकष । रो न सकी हैं आँखे इसकी, बादल इतना हुआ हताष ।। कौन करेगा अर्पण-तर्पण, कौन करेगा तुझको याद । पीढ़ी ही जब नहीं रहेगी, कौन सुनेगा तब फरियाद ।।
वीर रस-
माँ तुझको सब कहे कुमाता, यह कैसे कर लूँ मंजूर ।
कैसे मेरा मान बढ़ेगा, अगर पिता हो मेरे क्रूर ।।
हास्य रस-
छन्न पकैया छन्न पकैया, होगी आज हजामत । मूँछों वाले बच कर रहियो, चाची लाई शामत ।। प्यार जताना बाद में, ओ मेरे सरताज । प्हले लेकर आइये, मेरी खातिर प्याज ।।
रौद्र रस-
फाँसी से कमतर सजा, किसे भला मंजूर ।
नर-पिषाच ये भेड़िये, हैं अपराधी क्रूर ।।
हैं अपराधी क्रूर, इन्हें नहिं बख्षा जाये ।
न्याय मांगते लोग, हृदय में आग छुपाये ।।
कड़ा बने कानून,चूभे फिर से ना नष्तर ।
किसे भला मंजूर, सजा फाँसी से कमतर ।।
भयानक रस-
लूटा नोचा हत्या कर दी, और दिया वृक्षों पर टांग ।
वीभत्स रस-
जैसे पाई खबर यह, आया कन्या भ्रण । हत्या करने को खड़ा, उसका अपना खून ।।
अद्भूत रस-
है स्पर्शो की भाषा न्यारी, जाने सिखलाता है कौन ।
बिन उच्चारण बिना श्ब्द के, मुखरित हो जाता है मौन ।।
शांत रस-
मनव खूब गुमान करे, रहता मैं अकडा़-अकड़ा ।
जल बुने झट टूट पड़े, जस टूट पड़े मकड़ी-मकड़ा ।।
भूल गया क्षण भंगुर हूँ, करता झगड़ा रगड़ा लफड़ा ।
भान करावत है वसुधा, तब मूढ रहे असहाय खड़ा ।।
वात्सल्य रस-
प्राण निछावर कर गया, रण में पिछले साल ।
माई स्वेटर बुन रही, षायद लौटे लाल ।।
‘शब्द गठरिया बांध’ की भाषा शैली-
‘शब्द गठरिया बांध’ की भाषा शैली सहज बोधगम्य है । दुसह, दूअर्थी श्ब्दों से यह कोसो दूर है । मात्रिक छंदों की रचनाओं की भाषा खड़ी हिन्दी बोली के निकट है, वहीं वार्णिक छंदों में हिन्दी में आँचलिकता का पुट छंदों की गेयता में राग-रागनी का निर्माण कर रही है । भाषा, विषय, भाव में पूर्वाग्रह न होकर ग्राहित स्वाभाव सहज परिलक्षित हो रहा है जो इस काव्य के साथ-साथ हिन्दी साहित्य को भी सबल कर रहा है । कुल मिलकर यह कृति साधारण एवं विशिष्ठ पाठकों के लिये मनभावन तो है ही साथ ही साथ छंद अभ्यासी विद्यार्थियों के लिये, साहित्य शोधार्थियों के लिये भी कृति बहुमूल्य है ।
समीक्षक- रमेशकुमार सिंह चौहान
बहुत सुंदर
सादर धन्यवाद भाई
सुग्घर समीक्षा
सादर आभार भइया
Very nice
सादर धन्यवाद भाई